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निर्णायक कदम

निर्णायक कदम

by डॉ. दिनेश पाठक शशि
in कहानी, नवम्बर- २०१२
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मई का अन्तिम सप्ताह था। गर्मी अपनी चरम सीमा पर थी। पशु-पक्षी, राहगीर, किसान, सभी गर्मी की भीषणता से त्रस्त, आकुल-व्याकुल थे। ऐसे में, मैं दोपहर का भेजन करने के बाद थोड़ी देर आराम करने के उद्देश्य से कूलर चलाकर बिस्तर पर लेटा ही था कि अचानक कॉलवैल की आवाज सुनकर चौंक उठा।

ऐसी भीषण गर्मी में, इस समय कौन हो सकता है? सोचते-सोचते मैं बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। पैरों में स्लीपर पहनी और सामने हैंगर पर अभी-अभी टांगी शर्ट को उतार कर पहनने लगा। इतनी ही देर में कॉलवैल मेनगेट पर हुंच गया।

गेट खोलते ही सामने सुकेश को खड़ा पाया। सामने खड़ी कार में शायद उसकी पत्नी भी थी। मुझे देखते ही सुकेश मेरे पैरों में झुक गया- ‘सॉरी अंकल, आपको ऐसी गर्मी में डिस्टर्ब किया।’

‘अरे हमारे-तुम्हारे बीच में ये डिस्टर्ब करने की बात कहां से पैदा हो गई सुकेश?’- मैंने सुकेश को दोनों बाहों से बीच में पकड़कर सीने से लगा लिया- ‘गाड़ी में क्या बहू है? अरे उसे बोलो अन्दर आये।’- कहते हुए मैंने पूरा मेनगेट खोल दिया ताकि ड्राइवर गाड़ी को अन्दर कर सके।

सुकेश के इशारे पर ड्राइवर ने गाड़ी को पोर्च में खड़ा कर दिया तो रेणुका ने गाड़ी से उतर कर मेरे पैर छुए।
‘चलो, चलो तुम लोग अन्दर चलो। बहुत गर्मी पड़ रही है। अन्दर चल कर ही बात करेंगे।’- आशीर्वाद की मुद्रा में मैंने अपना दाहिना हाथ रेणुका के सिर पर रखते हुए कहा।

‘अंकल, पापाजी की तबियत बहुत खराब है। अब मैं क्या करूँ’- सुकेश ने खड़े-खड़े ही व्याकुल होकर मेरी ओर देखा तो मैं चौंक उठा-

‘तुझे किसने बताया? मेरे पास तो ऐसी कोई खबर नही है।’

अचानक ही मेरे मुँह से निकल तो गया पर दूसरे ही पल मैं स्वयं ही झेंप सा गया। पांच वर्ष पूर्व की वह घटना चलचित्र की भाँति मेरे पस्तिष्क-पटल पर भागने लगी। मेरी और सुकेश के पिता मि. भण्डारी की घनिष्ठ मित्रता थी या यूँ कहूँ कि बचपन से ही हम दोनों एक ही स्कूल, विद्यालय और फिर विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए शिक्षित हुए और एक-दूसरे के ही घर में रहते-सोते, खोते-पीते बडे हुए थे। दोनों के घर वाले ही नहीं, गाँव भर के लोग हम दोनों को राम-लक्ष्मण पुकारते थे। शिक्षा पूर्ण होते ही दोनों अपनी-अपनी नौकरियों पर चले गये। पर संयोग से दोनों की पोस्टिंग एक ही शहर में हुई। विवाह के बाद एक दूसरे की पत्नियाँ भी आपस में घुल-मिल गईं, जैसे सगी जिठानी-दौरानी हों दोनों।

समय का चक्र घूमता रहा और दोनों के बच्चे बड़े होने लगे। स्कूल की पढ़ाई पूर्ण कर कॉलेज और विश्वविद्यालयों तक पहुँच गये। ये भी संयोग ही था कि दोनों के पहले एक-एक पुत्री हुई और उसके बाद दो-दो पुत्र।

दोनों के बच्चे आपस में बिना किसी परायेपन के बेरोकटोक तरीके से मिलते, बातचीत करते और हम दोनों की बचपन की जिन्दगी की तरह ही जब जी में आता एक-दूसरे के घर साधिकार रुक जाते।

समय गुजरने के साथ-साथ सभी कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। भण्डारी ने अपनी बेटी ऋतु की शादी मुंबई के एक धनाढ्य परिवार में कर दी थी तो मैंने भी अपनी बिटिया सेतु के हाथ पीले कर दिए थे।

भण्डारी के बड़े बेटे ने इंजीनियरिंग किया था और उसकी शादी भी दिल्ली के अच्छे परिवार में हो गई थी साथ ही मेरे बड़े बेटे की शादी नोएडा में। अब भण्डारी के पास सुकेश और मेरे पास छोटा बेटा सुरेश शादी के लिए बकाया थे। दोनों के ही अच्छे-अच्छे घरानों से रिश्ते आ रहे थे। पर हम दोनों ने ही दहेज को किसी भी बच्चे की शादी में महत्व नहीं दिया था। अत: सुकेश और सुरेश के लिए भी हमारी प्राथमिकता में लड़की की सुयोग्यता एवं सुशिक्षित व सुसंस्कारवान होना प्रमुख था। किन्तु कुछ समय से मैं मि. भण्डारी के व्यवहार में थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन सा महसूस कर रहा था। हो सकता है ये मेरा भ्रम ही हो, ये सोचकर मैं इस बात पर ज्यादा नोटिस नहीं ले रहा था।

सुकेश के लिए जिस लड़की का रिश्ता आया, उसके साथ जन्म-पत्रिका का मिलान किया गया तो पता चला कि सुकेश तो मंगली है। लड़का यदि मंगली हो तो उसके लिए लड़की भी मंगली ही देखनी चाहिए, ऐसा ज्योतिष शास्त्र में उल्लेख है।
सुकेश मंगली है, ये जानकर मि. भण्डारी थोड़ा बिचलित हुए और मंगली लड़की के इन्तजार में सुकेश की उम्र बढ़ने लगी। सुरेश की शादी हुए भी दो वर्ष बीत गए किन्तु सुकेश का युगल अभी तक नहीं बन पाया। धीरे-धीरे कर सुकेश सत्ताइस की उम्र पार कर गया तो मि. भण्डारी का चिंतित होना स्वाभाविक था। उनके मस्तिष्क में पुरानी कहावत कि ‘लड़के तो अच्छों-अच्छों के व्याहने से रह जाते है पर लड़की गरीब की भी नहीं रहती’ उथल-पुथल मचाने लगी। जब गरीब की भी लड़की की शादी हो जायेगी तो सुकेश की जोड़ी कहां से बनेगी।

अचानक ही उनके दिमाग में एक उपाय सूझा और उन्होंने पुत्र का वैवाहिक विज्ञापन कुछ अखबारों में छपवा दिया। कुछ ही दिन बाद डाक से मंगली लड़कियों के फोटो और विवरण-पत्रों की झड़ी सी गल गई तो मि. भण्डारी की बांछें खिल उठीं।
अब उनके पास चुनाव के लिए कई लड़कियों के रिश्ते थे। कई लड़कियाँ काफी समृद्ध परिवारों की थीं तो कई विपन्न परिवारों की भी। इतना ही नहीं कई लड़कियाँ उच्च शिक्षित थीं तो कई उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही थीं और कई तो उच्च पदों पर अच्छे वेतनमानों में नौकरी भी कर रही थीं जिनके विवाह अभी तक केवल इसीलिए नहीं हो पाये थे कि वे मंगली थीं और उनके परिवारीजन अपने जीवन की व्यस्तताओं के कारण या किसी अन्य कारण से मंगली लड़के की खोज नहीं कर पाये थे या फिर कई ऐसी भी थीं जिनके माता-पिता उनके विवाह पूर्व ही दिवंगत हो चुके थे और भाई-भाभाी अपने पारिवारिक जीवन में ही उलझे होने के कारण उनके लिए वर की खोज नहीं कर पाये थे।

सुकेश के वैवाहिक सम्बन्ध ने अब एक नया ही मोड़ ले लिया था। मध्य अन्तराल में जहां मि. भण्डारी सुकेश के सम्बन्ध को लेकर चिंतित रहने लगे थे वहीं अब उन्हें सुकेश के लिए रिश्ता लेकर आने वाले शतरंज के खेल की भांति दिलचस्प लगने लगे थे जिन्हें वे अपनी वाक्चातुरी से शह और मात देने की पूरी-पूरी कोशिश करते।

मि. भण्डारी ने वाकायदा प्लास्टिक की एक फाइल बना ली थी जिसमें रिश्ते के लिए आये लड़कियों के फोटो, उनके वायोडाटा और अन्य विवरण उन्होंने क्रमवार फाइल कर रखे थे। प्रत्येक नये आने वाले व्यक्ति के सामने वे उस फाइल को खोल देते जिसमें कुल दहेज देने का विवरण भी रहता।

कई लड़की वाले तो उस फाइल को और उसमें लिखे लड़कियों व दहेज के विवरण को पढ़कर ही बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते। कुछ बातचीत का सिलसिला शुरू भी करते तो भण्डारी उन्हें फाइल के अधिकतम दहेजदाता का विवरण दिखाकर और बातों को घुमा-फिराकर उससे अधिक ही दहेज की माँग का प्रस्ताव रख देते।

मि. भण्डारी के इस खेल में सयम का चक्र तेजी से घूमते हुए फुर्र-फुर्र उड़ा जा रहा था। सुकेश भी अपनी बढ़ती जा रही उम्र को देखते हुए अपने पिता के इस व्यवहार से खिन्न सा रहने लगा था। संयोगवश उसी दौरान मेरे एक सहकर्मी मि. हरिओम ने मेरे माध्यम से सुकेश के रिश्ते की बात चलानी चाही तो मैंने सुकेश की बढ़ती उम्र और खिन्नता के मदद्ेनजर भण्डारी से बात की। लड़की के रंग-रूप, शिक्षा और दहेज की क्षमता को देखते हुए मुझे लगा कि इस जगह सुकेश का रिश्ता जरूर तय हो जायेगा।

मि. हरिओम की ये पहली सन्तान थी किन्तु मंगली होने के कारण अभी तक शादी न हो पाने के कारण अन्य बच्चों की शादियों में भी विलम्ब होता जा रहा था। मेरा माध्यम पाकर मि. हरिओम कुछ आश्वस्त हुए और न्हें लगने लगा कि शायद इस जगह उनकी पुत्री का रिश्ता तय हो ही जायेगा। अपनी ओर से ही हरिओम ने एक गाड़ी और अच्छी शादी कर देने का वायदा भी किया। हरिओम की बेटी रेणुका मेरी अच्छी तरह देखी-भाली ही थी, सुकेश को भी अपने घर पर बुलाकर मैंने उसे दिखा दिया था। सुकेश ने उससे काफी देर तक बातचीत भी की तथा रेणुका को पसंद भी किया था। विवाह की रूपरेखा लगभग तय ही हो गई थी कि तभी भण्डारी के मन में लोभ कुछ ज्यादा ही पैदा हो गया।

भण्डारी ने मेरे ऊपर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि मैं अरिओम से कहकर पांच लाख रुपये नगद भी दिला दूं। हरिओम स्वत: ही अपनी पुत्री और दामाद को अधिक से अधिक जीवनोपयोगी सामान देना चाहते थे ताकि पुत्री-दामाद को नया दाम्पत्य-जीवन शुरू करने में कठिनाइयों का सामना न करना पड़े किन्तु भण्डारी की नकदी की मांग को सुनकर हरिओम के पसीने छूटने लगे। वे रूआंसे होकर मेरे सामने रिरियाने लगे- ‘देखो जगन्नाथ, मैंने तो अपनी ओर से ही इतना देने का मन बना रखा था कि मि. भण्डारी को कुछ कहने की आवश्यकता ही न पड़ती पर पांच लाख नकद की उनकी मांग ने मुझे निराश कर दिया है। आप बात करके देखो मान जायें तो।

हरिओम का रूआंसा चेहरा देखकर मुझे भी उसके प्रति सहानुभूमि सी एवं दहेज-दानव के प्रति ग्लानि सी हो उठी। मैं सोच-सोच कर हैरान था कि अब भण्डारी को हो क्या गया है। पहले तो किसी भी बच्चे के विवाह में उसने ऐसा व्यवहार नहीं किया था। फिर अचानक ही इतने बदलाव का कारण मेरी समझ से परे था फिर भी चूंकि भण्डारी मेरे बचपन का मित्र था, मैं अभी भी आश्वस्त था कि मैं भण्डारी को इस विवाह के लिए तैयार कर लूंगा। किन्तु घोर आश्चर्य! मैं किसी भी तरह भण्डारी को इस विवाह के लिए उसकी शर्तों से हटकर, तैयार न कर सका।

मुझे अन्दर ही अन्दर बहुत ग्लानि हुई और हरिओम के दयनीय चेहरे ने मुझे कई दिन तक तनाव में घेरे रखा। इन बातों की भनक सुकेश को भी लग गई कि पापा ने अपनी जिद के आगे अंकल को भी अपमानित कर दिया है तो अपनी बढ़ती उम्र का तकाज या फिर अपने पिता की हठधर्मी के कारण, सुकेश के अन्दर एक विद्रोह उत्पन्न हो गया। वह मेरे पास आया और अपने मन की बात जुबान पर ले आया-‘अंकल, पता नहीं पापा को अब हो क्या गया है। मेरी बढ़ती उम्र की ओर भी नहीं देख रहे। बैल अगर व्याहेगा नहीं तो क्या बूढ़ा भी नहीं होगा। रेणुका मुझे पसंद है और मैं चाहता हूँ कि शादी रेणुका से ही हो।’’

सुकेश की बात सुन मुझे उससे हमदर्दी सी होने लगी लेकिन दूसरी ओर मैं बचपन के अपने मित्र भण्डारी को नाराज भी नहीं करना चाहता था किन्तु मेरे चाहने से क्या होने वाला था आखिर सुकेश ने रेणुका से बात की और सुकेश-रेणुका दोनों ही इस बात पर अड़ गये कि वे दोनों ही बालिग हैं और अब वे बिना किसी दान-दहेज के ही, कोर्ट में जाकर शादी कर लेंगे। दहेज का ये कोढ़ समाज में इसीलिए भी अधिक फैलता जा रहा है कि युवावर्ग दहेज की प्रत्यक्ष बुराइयों के कारण नष्ट होते जा रहे परिवारों की दुर्दशा को देखते हुए भी या तो अपने लोभी माँ-बाप का खुलकर विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता या फिर वह दहेज के कारण हो रही कन्या-भ्रूण की हत्याओं के कारण आने वाले कल में उत्पन्न होने वाले विस्फोटक सामाजिक दुष्परिणामों और विकृतियों से बेखबर बना हुआ है या कहूं कि जानबूझकर आँख मूंदे हुए हैं। हम दोनों मिलकर इसके विरोध की पहल करेंगे।
और सचमुच ही सुकेश-रेणुका ने कोर्ट में जाकर शादी कर ली थी। भण्डारी को लगा कि शायद ऐसा करने के लिए मैंने ही सुकेश को फुसलाया होगा फलत: सारे जीवन की मित्रता में गांठ पड़ गई। भण्डारी ने मुझसे और मेरे परिवार से सारे सम्बन्ध विच्छेद कर लिए। चूंकि रेणुका का प्रस्ताव मैं ही लेकर गया था अत: अपने मन में अपराध बोध लिए मैं भी अपने आप में सिमट कर रह गया।

मि. हरिओम, रेणुका-सुकेश के रूढ़ियों के कारा को तोड़ने के इस साहसिक कदम से जहां एक ओर आश्चर्यचकित थे वहीं दाम्पत्य-जीवन की नई डगर पर बढ़ते उनके कदम कहीं संघर्षों की झंझा से डगमगा न जायें इस चिंता से उनकी कुछ सहायता करना चाहते थे पर रेणुका-सुकेश ने कुछ भी स्वीकारने से नम्रता पूर्वक मना कर दिया और प्रसन्नतापूर्वक दाम्पत्य की नई डगर पर चल पड़े पर मेरे दिल में रह-रह कर भण्डारी की नादानी पर दया आती साथ ही अपनी खुद्दारीवश मैं कभी उसके हाल-चाल लेने भी नहीं गया उसके बाद।

‘अंकल, कहां खो गये आप?’- रेणुका-सुकेश की आवाज सुनकर मैं वर्तमान में लौट आया।
‘बेटे, तुम्हारे पापा की तवियत खराब है तो तुम सीधे घर क्यों नहीं गये, मेरे पास क्यों आये हो?’- मेरे दिल में एक हूक सी उठी- ‘तुम लोग जानते हो कि भण्डारी ने तो तुम्हारी शादी के बाद से मुझसे सारे नाते ही तोड़ लिए हैं। वह समझता है कि मैंने ही तुम दोनों को….’- कहते-कहते मेरा गला रूंध गया।

‘इसीलिए तो हम सीधे आप के पास आये हैं, आपको अपने साथ ले चलने के लिए ताकि पापा की गलतफहमी दूर हो सके।’
एक ओर न किये गये अपराध की सजा भोगने के कारण मेरी खुद्दारी वहां जाने से रोक रही थी तो दूसरी ओर मित्र की अस्वस्थता का समाचार मेरे दिल में हूक पैदा कर रहा था। खुद्दारी को भूल मैंने रेणुका-सुकेश के साथ ही चलने का निर्णय लिया। भण्डारी से अपने आप उठा भी नहीं जा रहा था। उसकी ये हालत देखकर मैं अपने आप को रोक न सका और उसे अपनी दोनों बाहों में भरकर हूंक देकर रो पड़ा- ‘‘तूने मुझे इतना पराया समझ लिया भण्डारी कि अपनी अस्वस्थता की सूचना तक नहीं दी।’’

‘अरे मुझे क्या हुआ है, अच्छा भला तो हूँ। भण्डारी ने चेहरे पर मुस्कान लाने का प्रयास किया।
‘इसे अच्छा भला कहते हैं, तो फिर अस्वस्थ किसे कहते हैं?’- मैंने कटाक्ष किया।

‘अस्वस्थ नहीं, मैं अपनी गलतियों का प्रायश्चित कर रहा हूँ। दरअसल मैं अपने अहं एवं गलत फहमी का शिकार हुआ, अपने मित्र की मित्रता और अपने ही बच्चों का प्यार खोने के बाद ये समझ सका कि बच्चों की खुशी के आगे दुनिया के सारे लोभ बेकार हैं। आज के युग में, विघटन के इस दौर में दहेज से अधिक महत्वपूर्ण है बहू का अच्छघ् पढ़-लिखा होना संस्सकारवान होना। आज का सबसे उपयुक्त नारा ‘दुल्हन ही दहेज है’ ही है जिसे किसी ने बहुत ही सोच-विचार और बुद्धिमत्ता से बनाया है। दहेज तो सचमुच ही दानव है जिसकी बलिवेदी पर ईश्वर की बनाई अद्भुत रचना कितनी ही ‘कन्याऐं’ निर्दोष होते हुए भी, होम हो जाती है। रेणुका-सुकेश ने मेरी आंखें खोल दीं। सचमुच मुझे इन दोनों बच्चों के साहसिक कदम पर नाज हैं।’

सुनकर रेणुका और सुरेश भी रो पड़े और उन्होंने भण्डारी के पैर पकड़ लिए-‘हमें माफ कर दो पापा। हम ये कदम उठाने पर मजबूर थे। लेकिन पापा रेणुका ने आपके दहेज की भरपाई के लिए अपनी नौकरी से पांच लाख रूपये जमा कर लिए हैं जिन्हें वह आपको ही देने के लिए लाई है, ये लीजिए।’’- रेणुका ने रूपये देने के लिए हाथ बढ़ाए तो भण्डारी ने उसके हाथों के पकड़ कर चूम लिया- ‘बहू, तू मेरी पुत्र-वधु नहीं, मेरी बेटी भी है। मैने अब तक तुझे क्या दिया, सिवाय अलगाव और तनाव के? ये रूपये मेरी ओर से तेरी मुँह-दिखरौनी के हैं, रख ले। और हाँ, तूने तो सचमुच ही सिद्ध कर दिखाया कि दुल्हन ही दहेज है।’
सुनकर सभी हंस पड़े। रेणुका भी लजाते हुए अपनी सास के पास कमरे में चली गई।

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