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मूंछ की महत्ता

मूंछ की महत्ता

by ज्वाला प्रसाद मिश्र
in कहानी, नवम्बर- २०१२, सामाजिक
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मूंछ को पौरुष का प्रतीक सदा से माना गया है। किंतु मेडिकल साइंस के अनुसार पुरुषों और महिलाओं में अंत:स्रावी ग्रंथियाँ भिन्न प्रकार के हार्मोन छोड़ती हैं। एस्ट्रोजेन के हार्मोनों के कारण उनमें स्त्रियोचित चिन्ह बनते हैं। कभी-कभी पुरुषों में एस्ट्रोजेन की कमी से उनके दाढ़ी- मूछें नहीं ऊगतीं, आवाज महिलाओं जैसी सुरीली हो जाती है; और वे अपनी चाल-ढाल, हाव-भाव से वृहन्नलाओं जैसी हरकतें करने लगते हैं। इसके उलट महिलाओं में पुरुष हार्मोन की अधिकता हो जाए तो उनका स्वर मर्दो जैसा हो जाता है, और दाढ़ी-मूंछ भी आ जाती है। इसलिये यह कहना कि मूछें पुरुषों का ट्रेड मार्क हैं, पूर्ण सत्य नहीं है।
यह भी आवश्यक नहीं कि सभी पुरुष मूछें रखें। वे निर्मुच्छ भी हो सकते हैं। हमने अपने ईश्वर के प्रमुख अवतारों-राम एव्ं मृष्ण की बिना मूछों के कल्पना की है। लेकिन मूछों को लेकर हमेशा से भ्रम बरकरार है, और रहेगा। तथाकथित झोला-छाप सेक्सोलाजिस्टों के विज्ञापन जहाँ-तहाँ दिख जाएंगे-जिनमें चेतावनी होती है, ‘मूछ नीची न हो’।
राजपूत योद्धाओं, राक्षसों और डाकुओं की हम बिना मूछों के कल्पना ही नहीं कर सकते। कुछ लोग अपनी मूछों को ऐंठते ही रहते हैं। एक जमाना था, जब ठाकुरों के सामने से कोई दलित मूछों को ताव देता निकल जाए, तो उसे अपनी जान भी गंवानी पड़ सकती थी। अनेक मुच्छड़ अपनी मूछों की प्राणपण से देखभाल करते हैं। मूछ क्रीम, वेसलीन लगाते हैं, ट्रिमिंग व कंघी करते हैं, डाई करते हैं।
‘‘साबुन चाहिये घोवन को, ककवा इक चाहिये झारन को।
सीसी खिजाबहु भी चाहिये, रंगबे हित ऊनरे बारन को।
होय संवारन को वेसलीन, जुआं कछु होएं गिहारन को।
चाहिये गोद में छोटो सो बालक, मूंछ के बार उचारन को।’’
राजकपूर, राजकुमार, अनिल कपुर जैसे बिरले हीरो हुए हैं जिन्होने सदैव मूछों को मेन्टेन किया है। कई ऐसे भी हैं जो मूछें इसलिये मुड़ा देते हैं, कि वे बढ़ती आयु की चुगली न करने लगें-जैसे रवि शास्त्री।
जब मैं कालेज में सहायक प्राध्यापक था, तब एक वर्ष हमने नकलकियों की जमकर धर-पकड़ की। मेरे एक सहयोगी प्रो. दुबे थे- उनका कहना था कि पकड़ो तो मूछ वालों को (यानी दबंगों को जो चाकू आदि लेकर परीक्षा देने आते हैं) अर्थात उन्होने भी मूछों को दबंगई से जोड़ दिया।
मूछों कई प्रकार की होती हैं। तलवार कट, बटर फ्लाई, मक्खी टाइप, झुब्बेदार, गलमुच्छ, अजय देवगन की तरह नीचे की ओर जाती हुई अर्थात ‘बेग योर पार्डन’ किस्म की। कई हस्तियाँ ऐसी हो चुकी हैं, और हैं, जिनकी केवल मूछों की फोटो दिखाई जाए, तो लोग पहचान लेंगे कि ये किसकी हैं, जैसे हिटलर, स्टालिन, राणा प्रताप, लोकमान्य तिलक, रविशंकर शुक्ल, रामचंद्र शुक्ल, वीरप्पन, मनिंदर सिंह बिट्टा आदि। पं. रवीशंकर शुक्ल की भव्य मूछें उनके आकर्षक डील-डौल पर खूब फबती थीं। जब वे नया मध्य प्रदेश बनने पर भोपाल गए तब मरहूम ‘मुसिफ’ ने लिखा था-
‘प्रथम नवंबर निसि अंधियारी, नरक चतुरदिसि तिथि भयकारी।
सो अवसर विरंचि जब जाना, चले सकल सुर साजि बिमाना।
सोहत ताल तीर भोपाला, धूरि-धूसरित नगर बिसाला।
कोउ काहु कर बात न पूछा, पहुँचे सुकुल हलावत मूछा।
राजस्थान के कई महल या हवेलियाँ सितारा होटलों में तबदील हो गए हैं। वहाँ रौबदार मूछों या गल मुच्छ वाले भूतपूर्व सैनिकों कों नियुक्त किया जाता है। विदेशी पर्यटक, विशेष कर महिलाएं उन पर लट्टू हो जाती हैं। पुछकर के मेले में एक मुछंदर आता है जिसकी मूछें कई फुट लंबी है, उसे लिम्का या गिनीज बुक में स्थान मिला है; और वह आकर्षण का केंद्र रहता है।
उर्दू के व्यंगकार शफीकुर्रहमान ने मूछों के प्रकारों को घड़ी के समय से जोड़ा था जैसे, ‘उनकी मूछें सवा नौ बाजा रही थी’, यानी एक सीधी रेखा में थी; 11 बज कर 10 मिनट बता रही थी अथवा 5 बज कर 20 मिनट बता रही थीं।
मेरे एक परिचित पुलिस इन्स्पेक्टर सुंदरलाल महाजन थे। वे जब भी शहर मी गश्त पर निकलते तो एकाध सिपाहियों के अलावा एक नाई अपनी पेटी लेकर उनके साथ चलता था। जहाँ कोई गुंडा-मवाली दिखा तो वे उसे दो-चार तमाचों की प्रसादी देते, मुर्गा बनाते और खोपड़ी आधी या पूरी घुटना देते, और यदि मूछें हो तो आधी या पूरी उडवा देते थे। दु:शला के पति की भी तो अर्जुन ने आधी मूछें काट ली थीं, जब उसने द्रौपदी के साथ ज्यादती करने की कुचेष्टा की थी।
झुब्बेदार मूछों के स्वामियों को लस्सी, मैंगो या पाइनएपल शेक आदि पीने में दिक्कत पेश आती है, क्योंकि उनका ??? रस आदि मूछों से छन कर ही मुंह में जा पाता है, झाग मूछों पर छा जाता है। वे चिपचिप पाने लगती हैं, और उन्हें धोना पड़ता है। शायद यही वजह है कि मुल्ला-मौलवी दाढ़ी तो रखते हैं पर मूछें नहीं रखते। वैसे मूंछो पर ताव देते एक बांके जवान चंद्रशेखर ‘आजाद’ की छवि जनमानस पर अंकित है।
साहित्य में मूछों का जिक्र वीर रस की कविताओें में होता है, जैसे ‘‘ताव दे मै मूछन पै, कंगूरन पै पांव दे में।’’ परंतु मेरे पिता स्व.बदरी प्रसाद तिवारी, मृषकाय पर महामुच्छ थे। वे डेंटिस्ट थे और वैदकी की करते थे। इनके बीच मूछों को लेकर बड़ी प्यारी नोक-छोंक होती रहती थी। मिश्रजी ने तो एक पूरा ‘मुछेदर चरित्र’ ही लिख डाला था। तिवारी जी कम लिखते थे किंतु काव्य प्रतिमा के धनी थे।
तिवारी जी की दंत पंक्ति धव और सुडौल थी। एक दिन दोनो स्व. सुरेंद्र नाथ त्रिपाठी, इंजीनियर के घर बैठे थे कि मिश्र जी ने दांतों की आड़ में तिवारी जी की मूछों पर एक सवैया लिखा दिया-
‘आज केहू बिधि जान्यों चहैं हम, देहु हमें बतलाय तेवारी।
दांत बिलौरी जो हैं तुम्हरे, कहौ कैसे चबायें ये पान-सुपारी।
चूरिन या सुथना पहिरे, चले जात कहाँ हौ उठावें सवारी।
है इन दूनों दें कौन बड़ी, हनुमान की पूंछ कि पूंछ तुम्हारी।
इसके उत्तर में तिवारी जी ने भी तत्काल एक छंद लिखा जो मुझे याद नहीं है।
श्री मिश्र की बदली नागपुर हो गई। तिवारी जी को पांच कन्याओं के बाद पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। मिश्रजी ने बधाई संदेश भेजा-
‘‘आयो जो गेद में पुत्र ससी सम, लेहु तेवारी हमारी बधाई।
छायो उछाह अनंद चहूँ, दिसि, दे है। हमैं कब पेड़ा-मिठाई।
पायो महाफल पूरन अंत मैं, व्यर्थ नही गई, बार जाहाई।
भायो है देबो असीस हमें, रहे बाप ते बेटा की मूंछ सवाई।’’
तिवारी जी ने मिश्रजी पर पलटवार किया-
‘‘का मरदा नी तें ऊबि गयौ, औ भेस जनाना नीक लाग।
औ जेहिकै खातिन जनम लिह्यो, वहु चोला तुमका फीक लाग।
तुम मूंछ काटि कै का समझयो, की कालचक्र काटा रि जाएं।
का जान्यों मूछैं बाधु आयं, ई कौन्यो दिन ना फारि खायं।’’
कुछ दिनों बाद मिश्र जी ने दो पद लिख कर तिवारी जी को बताया कि मर्द की पहचान मूछों से नहीं होती।
‘‘रस्सी सी मूँछ रहो बाटते, कहते निज को रहो पंडित ग्यानी।
मूंछ का साइन बोर्ड दिखा के, बाताते रहो खुद को मट मानी।
देन खुदा की जो दाढी वो जुल्फ, भले ही करो उनकी कुरबानी।
नेक सुनो न, कहे जो कोई ये, कि मर्द की और कहीं है निशानी।’’
और
‘‘मूँछ है कीर्ति की ऊँची ध्वजा, इसके तले चोटी है मन्दर भी।
मूँछ जो है तो बहादुर हूँ, भले बात निराली हो अंदर की।
नोक सदा जलती, वो उड़ाती सुगंध है ऊद बसंदर की।
है परवाह न इन्दर भी इसे, मूंछ जो है ये मुछन्दर की।
कलम को विराम देने से पहले ‘मुछन्दर चरितम’ की चंद पंक्तियों उद्धृत करना उचित होगा। इसमें मूँछ को अभिमान का प्रतीक व मुछन्दर इंद्र का पुत्र बताया गया है, जिसका जन्म व अंत मूछों से हुआ। वंदना में उन्ही प्राणियों की स्तुति की गई है, जिनमें नर व मादा दोनो की मूछें होती हैं,
‘‘मूस बिलारि मनाइ, बंदि बाथ कुकूर चरन।
बरनउ हिय हरखाइ, देव मुछंदर को चरित।
मूछ मुछंदर ते अधिक, कलि यहं प्रकट प्रमाउ।
ते मतिमंद जे मूछ तजि, निज सन करहिं दुराउ।
देवताओं की सेना और मुछंदर के बीच युद्ध की झाकियाँ
‘‘आवत लखि सुर चमू मुछंदर। मूँछ लपेटि उपारेसि मंदर।
ताहि लटू सम पटकि प्रचारा। परयो धरनि रव घोर अपारा।
मागे सुर जहं तहं भय पाई। असि न कबहुँ हम सुनी लराई।
एक-एक कहं मूंछ लपेटै। दूर टारि पुनि निकट समेटै।
सुर न सकहिं तेहि सन करि होड़ा। मारइ मूंछ लगइ जिमि कोड़ा।’’
मुछन्दर चरितम् का अंतिम दोहा:
‘‘ताते मूंछ बढ़ाइ निज, क्यों न करहु कल्यान।
कलि मंह मूंछ समान कोउ, देख न बूझिय जान।
कहिये, कैसी रही?

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