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मखमली शाल

मखमली शाल

by हरमन चौहान
in कहानी, दिसंबर २०१२
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बहुत दिनों के बाद मेरा गांव जाना हुआ। वहां जाने पर मुझे पता चला कि मेरा लंगोटिया यार पीताम्बर भी आया हुआ है। उसके चाचा का तीन-चार दिन पहले ही देहांत हुआ है। उसके घर बैठने के लिए मुझे जाना ही था। अगले दिन जब मैं उसके घर गया, तब वहां मातम सा छाया हुआ था। कुछ गांव की औरतें बैठी-बैठी रो रही थीं और कुछ आदमी गुमसुम होकर बैठे थे। उनके बीच पीताम्बर भी बैठा हुआ था। वह उठ कर मेरे गले लग कर रो पड़ा। मैंने उसे धीरज बंधाया और वहीं हम भी गुमसुम होकर बैठ गए। थोड़ी ही देर में कुछ औरतें और रोती हुई आईं, तो माहौल अधिक गमगीन हो गया। मैंने देखा पीताम्बर की आंखों से टप-टप आंसू टपक रहे हैं। मैंने उसका हाथ पकड़ा और मकान की छत पर ले गया। काफी देर बाद जब वह सामान्य हुआ, तो उसने पूछा, ‘कब आए?’ मैंने कहा, ‘रात को आया था। मां ने मुझे बताया कि तुम संयोग से दो एक दिन पहले ही यहां पहुंच गए थे।’ वह बोला, ‘हां, मैं बड़ा भाग्यशाली हूं।’ वह फिर से उठा। मैंने रुंधे स्वर में उसे चुप हो जाने के लिए कहा। दोनों गुमसुम होकर अपने गांव का प्राकृतिक सौन्दर्य देखने लगे। वही खेत, वही पहाड़, पेड़, तालाब, मंदिर और न जाने क्या-क्या। मैं तो बचपन की यादों में खो गया। खास कर पीताम्बर के साथ बिताए उन क्षणों की यादें ताजा होने लगी, जब हम गिल्ली-डंडा, लट्टू का खेल खेला करते थे।बरसात में तालाब के बीच भैंसों की पूंछ पकड़ कर तैरना, कूदना या फिर खेतों -अमराइयों में भागना, आंख-मिचौली खेलना आदि-आदि।

उसने मेरी तन्द्रा भंग की – ‘‘बहुत बरसों के बाद मिल रहे हैं हम?’’
मैंने गर्दन हिला कर हामी भरी। मैं बोला – ‘‘कॉलेज की पढ़ाई के बाद तुम मद्रास चले गए और मैं जम्मू। कैसा संयोग है कि बचपन में हम एक-दूसरे का विरोध करते रहे, आपस में लड़ते रहे, मिलते रहे, प्यार करते रहे और अब नौकरी में उत्तर-दक्षिण? तुम्हारी बहुत-बहुत याद आती रही। हम नौ-दस बरस बाद मिल रहे हैं।’’

मेरी इस बात पर वह थोड़ा मुस्कराया। मैं चाहता था कि वह अपने चाचा के देहांत का गम कुछ गलत करे। दरअसल उसके गम को भुलाने के लिए ही मैं उसका ध्यान कहीं और बंटाना चाह रहा था। मैंने उसे छेड़ दिया – ‘‘यार तुम्हारी एक पुरानी धारणा थी कि कभी-कभी साधारण चीजें भी बड़ी असाधारण हो जाती हैं। उन्हें मोहवश छोड़ने का मन ही नहीं करता। खास करके तब, जब चीज के साथ भावनात्मक संबंध व्यक्ति विशेष से जुड़ जाए। तुम्हें याद है, कभी तुम्हें हर पीली चीज ही अच्छी लगती थी? मैं तुझे सूरजमुखी फूल लाकर देता और तू मुझे अनार खिलाता? मुझे गुलाबी रूमाल रखने का शौक था और तुझे पीला शॉल रखने का?’’

शॉल का नाम लेते ही वह गंभीर हो गया। कुछ देर की चुप्पी के बाद वह बोला – तो सुन? एक साधारण सी मखमली शॉल, जिसे मैंने मद्रास से गांव आते समय ट्रेन में खरीदा था। एक फेरीवाले ने जबरदस्ती मेरे गले मढ़ दी थी। पीले रंग का शौक था न मुझे? फेरीवाले के हाथ में पीली कंघी, जो बोली लगाने पर मुफ्त में बांट रहा था, उसे देखकर मैं भी बोली लगा गया। कंघी, तो मिली नहीं, उसने पीली मखमली शॉल हाथ में थमा दी। वहां बैठे लोग बाद में कहने लगे- यह तो नकली है। बड़ी घटिया शॉल है। अजी, आप तो ठगा गए।

लेकिन मैं ठगा जाने के बाद भी प्रसन्न था। इसलिए कि शॉल को देखकर काकूसा बड़े प्रसन्न हुए। मुझे संतोष हुआ, मैं ठगा नहीं गया। छुट्टियां बिता कर मैं मद्रास लौट गया। मैं जब भी गांव आता, काकूसा के लिए कुछ न कुछ जरूर लाता था, क्योंकि उनके सिवाय मेरा कोई था ही नहीं। कभी धोती, कभी पगड़ी, कभी कंबल और कभी कुछ भी उन्हें लाकर देता। ठीक वैसे ही, जैसे वह मुझे बचपन में लाकर देते थे – कंचिया, लट्टू, पतंग, गिल्ली-डंडा और खिलौने आदि-आदि। काकूसा का गांव में बड़ा मान था। शादी-ब्याह से लेकर खेती-बाड़ी के कामकाज में वह हर किसी का हाथ बंटाया करते थे। झाड़-फूंक से लेकर औषधियों के कई ईलाज कर लिया करते थे। जब तक दादा-दादी जिंदा थे, तब तक उनके बड़े ठाठ थे। उनके मरने के बाद उन पर दु:खों के पहाड़ टूट पड़े। मेरे तिा बचपन में ही चल बसे थे। आज जो कुछ हूं मैं, सब काकूसा की वजह से ही हूं। वह मुझसे बड़ा स्नेह करते थे। कंधों पर बैठाकर हल चलाते, तालाब में तैराते। मेरी हर बात का ख्याल रखते। जब भी वह शहर जाते, मेरे लिए कुछ न कुछ चीज जरूर लाते थे। उन दिनों उनके हाथ में एक खास प्रकार की लकड़ी घर से बाहर निकलते समय होती थी। कान तक लंबी उस लकड़ी की मूठ पीतल जड़े तार की और नीचे उसके तांबे की कड़ियां ठंसी थीं। उन्हें वह लकड़ी जान से प्यारी थी। वह एक बार किसी की बारात में गए थे, वहां वह लकड़ी गुम हो गई, तो तीन दिन तक उदास रहे। काकी जी की मनुहारें भी फीकी पड़ गई थीं। मेरे मुंह से निकल गया – ‘मैं बड़ा होऊंगा, तब आपके लिए चांदी की कड़ियां जड़ी लकड़ी लेकर आऊंगा, तब तो आप खुश होंगे न? हालांकि मैं उनके जीते जी वैसी लकड़ी उन्हें लाकर नहीं दे सका। काकूसा को मुझसे बड़ी उम्मीदें थीं। उनके दोनों लड़के पढ़ ही नहीं सके। बड़का कहीं परदेश मजूरी करने भाग गया और बरसों तक लापता रहा। छुटका निखट्टू हो गया। उस पर काकीसा पागल हो गई। उनके इलाज के लिए वह मारे-मारे फिरते रहे। भोपों, ओझाओं की झाड़-फूंक काम नहीं आ सकी। आखिर वह चल बसीं। मेरी बूढ़ी मां उन्हें ढाढ़स बंधाया करती थी। घर-खर्च के लिए मैं हर माह मनीऑर्डर कर दिया करता था। खेती-बाड़ी से कोई खास आय नहीं थी। मैं जब भी छुट्टी पर आता, वह उदास होकर एक ही बात दोहराते ‘‘बड़के का कहीं कुछ ता चला। बस, अब तो एक ही इच्छा है, मरने से पहले एक बार भीमा का चेहरा देख लूं।’’
पन्द्रह बरस का अन्तराल कम नहीं होता। वह एक लकड़ी को तो भूल नहीं सके, भला सगे लड़के को कभी भूल सकते थे? बेटे के अलगाव की पीड़ा कम नहीं होती। एक तरफ उनकी धारणा थी कि जब से लकड़ी गुम हुई, तब से ही उनके बुरे दिन शुरू हो गए। दूसरी तरफ उन्हें विश्वास था – एक दिन बड़ा जरूर लौटेगा, ढेर सारी चीजें, ढेर सारे रुपये लाएगा और बुरे दिन खत्म हो जाएंगे।

मैं उनके विश्वास को कैसे तोड़ सकता था? हालांकि मैं जानता था, रोज मजदूरी करके पेट भरने वाला परदेस में कितना कुछ बचा सकता है? मैंने उनके दु:ख को कम करने के लिए एक सुन्दर सा हुक्का, जो उन्हीं के लिए मैंने खरीदा था, उनके सामने लाकर रखा। वह हंस कर बोले – ‘तू क्या-क्या लाता रहेगा मेरे लिए? इतना कह कर वह उठे और तकिये के नीचे से पहले उन्होंने पगड़ी सिर पर बांधी, फिर शॉल ओढ़ कर बोले – गांव में सभी जानते हैं, ये चीजें मेरे भतीजे की लाई हुई हैं, लेकिन इस मखमली शॉल को तूं वापस ले ले। लोग मुझसे मसखरी करते हैं, ताने मारते हैं।’

मैंने कहा – ‘‘काकूसा। अगर आप, लोगों की बातों पर ध्यान देंगे, तो मुझे दु:ख होगा।’’
वह बोले – नहीं रे। यह शॉल तो मुझे बड़ी पसंद है। इसे बहुत संभाल कर रखता हूं। तुम्हारी दी हुई चीजों को देख-देख कर ही तुम्हें याद कर लेता हूं। यह शॉल बड़ी शगुन वाली है। एक रात मैं यह चिंता करके सोया कि अगर एक-दो दिन में बरसात नहीं हुई, तो फसल सूख जाएगी। सवेरे उठा, तब अचानक तकिये के नीचे से इस शॉल के दर्शन हो गए। बाहर निकला तो आसमान इसी रंग का हो रहा था, तुझे अचरज होगा, उस दोपहर जमकर बारिश हुई।

मैंने कहा – ‘यह मात्र संयोग है। आपकी इस धारणा को मैं नहीं मानता।’
वह कुछ बोले नहीं, लेकिन अशिक्षित वर्ग में अंधविश्वास की जड़ें कितनी गहरी होती हैं सुनो! पिछली दीवाली पर मैं एक हफ्ते की छुट्टी आया। त्योहार के दिन सवेरे-सवेरे, दौड़े-दौड़े आकर मुझे कहने लगे – आज शॉल के फिर दर्शन हुए हैं, जरूर कुछ शुभ होने वाला है।
संयोग देखिए, संध्या को दीयों की जगमगाहट के साथ ही कोई खबर लाया कि भीमा लौट आया है। गांव में फलां के घर बैठा है। काकूसा की बांछें खिल गई, बोले – देखा, मैंने सवेरे कहा था न, आज शॉल के दर्शन हुए हैं, जरूर कुछ शुभ होगा। और उन्होंने छोटे को हिदायत देते हुए तुरंत दौड़ाया – जा, जल्दी जाकर उसे ला। उसके पास नोटों से बरी पेटी और बिस्तर होंगे, वह उन चोरों के घर पर बीच में ही क्यों रुक गया? जा, बाग! मैं भी आऊं क्या? उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था। इसलिए मैंने उन्हें मना किया और मैं खुद भागा। डेढ़ दशक बाद भीमा गांव लौटा। मात्र एक छोटी सी पुरानी पेटी, जिसे वह घर से ही ले गया था। भीमा बेहद कमजोर, फटेहाल और लंबी बीमारी से ग्रस्त लग रहा था। काकूसा उसे इस हाल में देखकर भी प्रसन्न हुए।

मैं अपनी छुट्टियां काट कर लौट गया। साल भर तक मैं गांव नहीं आ सका। चिट्ठियां बरोबर मिल रही थीं, उसमें बस, यही लिखा होता था कि काकूसा बीमार है और भीमा उनसे झगड़े करता रहता है। इस बार अचानक बीमारी का तार मिला, तो गांव तुरंत चला आया। काकूसा बहुत बीमार लग रहे थे। मुझे देखकर रोने लग गए। कहने लगे, इन तेरे दोनों भाइयों ने मुझे बहुत सताया है। बड़का परदेस में ही मर जाता तो मैं सब्र कर लेता। बेलों को भूखा-प्यासा रखकर मार डाला। बैलगाड़ी बेच दी। खेतों को गिरवी रख दिया…।
मैंने उन्हें टोका-अब छोड़ों ये सब बातें आपकी तबियत ठीक नहीं है।
इस बार मैं उनके लिए छड़ी लाया था। जब उनका मूड ठीक हुआ, तो मैंने उन्हें छड़ी लाकर दी। उसे देखकर वह बोले – ‘छड़ी बहुत अच्छी है, लेकिन तेरे होते हुए मुझे इस छड़ी की क्या जरूरत है?’

वह देर रात तक मुझसे बातें करते रहे। सवेरे उठे, हमेशा की तरह मुझे आवाज देकर बुलाया और हंसते हुए कहने लगे – ‘आज शॉल के फिर दर्शन हुए हैं। जरूर कुछ शुभ बात होने वाली है।’ मैंने शॉल को तकिये के नीचे से उठाकर देखा। वह तह की हुई वैसी ही रखी है, जैसी मैं लाया था। मैंने कहा – ‘आप इसे ओढ़ते नहीं हैं क्या? फिर शॉल लाने से क्या फायदा?’

वह बोले – ओढ़ंगा, जरूर ओढ़ंगा। इसे ओढ़ कर अब गांववालों की मैं मसखरी करूंगा। इसे ओढ़ने का वक्त आ गया है। आज ही ओढ़ंगा।
सचमुच उस वक्त वह बहुत खुश नजर आ रहे थे। मैं कुएं पर चला गया था। पीछे से मेरा एक नजदीकी भाई दौड़ा-दौड़ा आया और हांफते हुए बोला – ‘भाई, काकूसा नहीं रहे। जल्दी घर चलो। मुझे विश्वास नहीं हुआ। मैं दौड़ कर घर पहुंचा। कुछ औरतों के साथ मां रो रही थी और कुछ रिश्तेदार भी आकर बैठे थे। भीतर घर में जमीन पर काकूसा शांत चिरनिद्रा में लेटे हुए थे। उनके शरीर पर वही मखमली शॉल लिपटी हुई थी। छुटका रोते हुए बताने लगा-शॉल ओढ़ कर, छड़ी हाथ में लेकर कहीं निकल रहे थे। शरीर में ताकत तो थी नहीं, सीढ़ियों से पैर फिसल गया और फिर नहीं उठे। भीमा गुमसुम बैठा था। पीली शॉल, पीला आसमान और पीली लपटों वाली जलती काकूसा की चिता के बाद अब मुझे पीले रंग से ही नफरत हो गई है।’

पीताम्बर मुझे पूछने लगा – ‘तुम्ही बताओ, वह मखमली शॉल शगुन वाली थी या अपशगुन वाली?’ इतना कहकर वह पुन: सुबक-सुबक कर रोने लग गया। मैं चुप था। मेरे पास उसकी बात का कोई उतर नहीं था।

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