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व्यवस्था परिवर्तन जरूरी

व्यवस्था परिवर्तन जरूरी

by हिंदी विवेक
in दिसंबर २०१२, सामाजिक
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विजयादशमी विजय का पर्व है। संपूर्ण देश में इस पर्व को दानवता पर मानवता की, दुष्टता पर सज्जनता की विजय के रूप में मनाया जाता है। विजय का संकल्प लेकर, स्वयं के ही मन से निर्मित दुर्बल कल्पनाओं द्वारा खींची हुई अपनी क्षमता और पुरुषार्थ की सीमाओं को लांघ कर पराक्रम का प्रारंभ करने के लिए यह दिन उपयुक्त माना जाता है। अपने देश के जनमानस को इस सीमोल्लंघन की आवश्यकता है, क्योंकि आज की दुविधामय एवं जटिल-तायुक्त परिस्थिति में से देश का उबरना देश की लोकशक्ति के बहुमुखी सामूहिक उद्यम से ही अवश्य संभव है।

चिन्ताजनक परिदृश्

यह करने की हमारी क्षमता है इस बात को हम सबने स्वतंत्रता के बाद के 65 वर्षों में भी कई बार सिद्ध कर दिखाया है। विज्ञान, व्यापार, कला, क्रीड़ा आदि मनुष्य जीवन के सभी पहलुओं में, देश-विदेशों की स्पर्धा के वातावरण में, भारत की गुणवत्ता को सिद्ध करनेवाले वर्तमान कालीन उदाहरणों का होना अब एक सहज बात है। ऐसा होने पर भी सद्य: परिस्थिति के कारण संपूर्ण देश में जनमानस भविष्य को लेकर आशंकित, चिंतित और कहीं-कहीं निराश भी है। पिछले वर्ष भर की घटनाओं ने तो उन चिंताओं को और गहरा कर दिया है। देश की अंतर्गत व सीमांत सुरक्षा का परिदृश्य पूर्णत: आश्वस्त करने वाला नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व से एक बहुप्रतीक्षित नई और सही दिशा की घोषणा ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ नामक वाक्य प्रयोग से शासन के उच्चाधिकारियों से हुई थी। दक्षिण पूर्व एशिया के सभी देशों में इस सत्य की जानकारी और मान्यता है कि भारत तथा उनके राष्ट्रजीवन के बुनियादी मूल्य समान हैं, निकट इतिहास के काल तक और कुछ अभी भी सांस्कृतिक तथा व्यापारिक दृष्टि से उनसे हमारा आदान-प्रदान का घनिष्ठ संबंध रहा है। इस दृष्टि से यह ठीक ही हुआ कि हमने इन सभी देशों से अपने सहयोगी और मित्रतापूर्ण संबंधों को फिर से दृढ़ बनाने का सुनिश्चिय किया। वहां के लोग भी यही चाहते हैं। परंतु घोषणा कितनी और किस गति से कृति में आ रही हैं, इसका हिसाब वहां और यहां भी आशादायक चित्र नहीं पैदा करता।

राष्ट्रहित की अनदेखी

राष्ट्र का हित हमारी नीति का लक्ष्य है कि नहीं, यह प्रश्न मन में उत्पन्न हो ऐसी घटनाएं पिछले कुछ वर्षों में हमारे अपने शासन-प्रशासन के समर्थन से घटती हुई संपूर्ण जनमानस के लिए घोर चिंता का कारण बनी हैं। जम्मू-कश्मीर की समस्या के बारे में पिछले दस वर्षों से चली नीति के कारण वहां उग्रवादी गतिविधियों के पुनरोदय के चिन्ह दिखाई दे रहे हैं। राज्य और केंद्र के शासनारूढ़ दलों के सत्ता स्वार्थ के कारण राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करना और विदेशी दबावों में झुकने का क्रम पूर्ववत चल रहा है। इतिहास के क्रम में राष्ट्रीय वृत्ति की हिंदू जनसंख्या क्रमश: घटने के कारण देश के उत्तर भूभाग में उत्पन्न हुई और बढ़ती गई इस समस्यापूर्ण स्थिति से हमने कोई पाठ नहीं पढ़ा है, ऐसा देश के पूर्व दिशा के भूभाग की स्थिति देखकर लगता है। असम और बंगाल की सच्छिद्र सीमा से होने वाली घुसपैठ और शस्त्रास्त्र, नशीले पदार्थ, बनावटी पैसा आदि की तस्करी के बारे में हम बहुत वर्षों से चेतावनियां दे रहे थे। देश की गुप्तचर संस्थाएं, उच्च और सर्वोच्च न्यायालय, राज्यों के राज्यापालों तक ने समय-समय पर खतरे की घंटियां बजाई थीं। न्यायालयों से शासन के लिए आदेश भी दिए गए थे। परंतु सबकी अनदेखी करते हुए सत्ता के लिए लांगूलचालन की नीति चली, स्पष्ट राष्ट्रीय दृष्टि के अभाव में गलत निर्णय हुए और ईशान्य भारत में संकट का विकराल रूप सबके सामने है।

खुदरा में विदेशी निवेश क्यो?

देश की राजनीति में आज जो वातावरण है वह उसके देशहितपरक, समाजसौहार्दपरक होने की छवि उत्पन्न नहीं करता। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के माध्यम से बड़ी विदेशी कंपनियों का खुदरा व्यापार में आना विश्व में कहीं पर भी अच्छे अनुभव नहीं दे रहा है। ऐसे में खुदरा व्यापार तथा बीमा और पेंशन के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाना हमें लाभ पहुंचाने के बजाय अंततोगत्वा छोटे व्यापारियों के लिए बेरोजगारी, किसानों के लिए अपने उत्पादों का कम मूल्य मिलने की मजबूरी तथा ग्राहकों के लिए अधिक महंगाई ही पैदा करेगा। देश की प्राकृतिक संपदा की अवैध लूट तथा विकास के नामपर जैव विविधता और पर्यावरण के साथ ही उनपर निर्भर लोगों को बेरोजगारी से लेकर विस्थापन तक जैसी समस्याओं की भेंट चढ़ाना अनिर्बाध रूप से चल ही रहा है। देश के एक छोट वर्गमात्र की उन्नति को जनता की आर्थिक प्रगति का नाम देकर हम जिस तेज विकास दर की डींग हांकते थे वह भी आज 9 प्रतिशत से 5 प्रतिशत तक नीचे आ गया है। संपूर्ण देश नित्य बढ़ती महंगाई से त्रस्त है। अमीर और गरीब के बीच लगातार बढ़ते जा रहे अंतर ने विषमता की समस्या को और अधिक भयावह बना दिया है। न जाने किस भय से हड़बड़ी में इतने सारे अधपके कानून बिना सोचविचार और चर्चा के लाए जा रहे हैं। इन तथाकथित ‘सुधारों’ के बजाय जहां वास्तविक सुधारों की आवश्यकता है उन क्षेत्रों में-चुनाव प्रणाली, करप्रणाली, आर्थिक निगरानी की व्यवस्था, शिक्षा नीति, सूचना अधिकार कानून के नियम-सुधार की मांगों की अनदेखी और दमन भी हो रहा है।

 

अतएव सारा उत्तरदायित्व राजनीति, शासन, प्रशासन पर डालकर हम सब दोषमुक्त भी नहीं हो सकते। अपने घरों से लेकर सामाजिक वातावरण तक, क्या हम स्वच्छता, व्यवस्थितता, अनुशासन, व्यवहार की भद्रता व शुचिता, संवेदनशीलता आदि सुदृढ राष्ट्रजीवन की अनिवार्य व्यावहारिक बातों का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं? सब परिवर्तनों का प्रारम्भ हमारे अपने जीवन के दृष्टिकोण व आचरण के प्रारंभ से होता है, यह भूल जाने से, मात्र आंदोलनों से काम बनने वाला नहीं है।

स्व. महात्मा गांधी जी ने 1922 के ‘यंग इंडिया’ के एक अंक में सात सामाजिक पापों का उल्लेख किया था। वे हैं- तत्त्वहीन रजनीति, श्रम बिना संपत्ति, विवेकहीन उपभोग, शील बिना ज्ञान, नीतिहीन व्यापार, मानवता बिना विज्ञान, समर्पणरहित पूजा। आज अपने देश के सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य का ही यह वर्णन लगता है। ऐसी परिस्थिति में समाज की सज्जनशक्ति को ही समाज में तथा समाज को साथ लेकर उद्यम करना पड़ता है। हमें इस चुनौती को स्वीकार कर आगे बढ़ना ही होगा। भारतीय नवोत्थान के जिन उद्गाताओं से प्रेरणा लेकर स्व. महात्मा गांधी जी जैसे गरिमावान लोग काम कर रहे थे, उनमें एक थे स्वामी विवेकानन्द। उनकी सार्ध जन्मशती के कार्यक्रम आने वाले दिनों में प्रारंभ होने जा रहे हैं। उनके संदेश को हमें चरितार्थ करना होगा। निर्भय होकर, स्वगौरव व आत्मविश्वास के साथ, विशुद्ध शील की साधना करनी होगी। कठोर निष्काम परिश्रम से जन में जनार्दन का दर्शन करते हुए नि:स्वार्थ सेवा का कठोर परिश्रम करना पड़ेगा, धर्मप्राण भारत को जगाना होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य इन सब गुणों से युक्त व्यक्तियों के निर्माण का कार्य है। यह कार्य समय की अनिवार्य आवश्यकता है। आप सभी का प्रत्यक्ष सहभाग इसमें आवश्यक है। समाज निरंतर साधना व कठोर परिश्रम से अभिमंत्रित होकर संगठित उद्यम के लिये खड़ा होगा, तब सब बाधाओं को चीरकर सागर की ओर बढ़ने वाली गंगा के समान राष्ट्रट का भाग्यसूर्य भी उदयाचल से शिखर की ओर कूच करना प्रारम्भ करेगा। अतएव स्वामीजी के शब्दों में- ‘उठो, जागो व तब तक बिना रुके परिश्रम करते रहो जब तक तुम अपने लक्ष्य को नहीं पा लेते।’
उत्तिष्ठत! जाग्रत!! प्राप्यवरान्निबोधत!!!
– भारत माता की जय-

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