मकर-संक्रान्ति पर्व का सांस्कृतिक वैशिष्ट्य

भारतवर्ष धर्म प्रधान देश है। यहां प्रत्येक पर्व को श्रद्धा, आस्था और उमंग के साथ मनाया जाता है। पर्व एवं त्योहार प्रत्येक देश की संस्कृति तथा सभ्यता के द्योतक हैं। यहां के प्रत्येक प्रदेशों में पर्व और त्योहार पृथक-पृथक ढंग से मनाये जाते हैं।

भारतीय संवत्सर का ग्यारहवां चान्द्रमास और दसवां सौरमास ‘माघ’ कहलाता है। इस महीने में मघा नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा होने से इसका नाम माघ पड़ा। धार्मिक दृष्टिकोण से माघ मास का अत्यधिक महत्त्व है। इस मास में शीतल जल के भीतर डुबकी लगाने से पापों से मुक्ति और स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।

इस मास में सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं। इसलिए मकर-संक्रान्ति का पर्व मनाया जाता है। मकर-संक्रान्ति के दिन से सूर्य की दिशा बदल जाती है और सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं। शास्त्रों में उत्तरायण को देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन को रात्रि कहा गया है। इस दिन दान, स्नान, जप, तप, श्राद्ध तथा अनुष्ठान आदि का विशिष्ट महत्त्व है। कहते हैं कि इस अवसर पर किया गया दान सौ गुना फलदायक है। इस दिन कम्बल और घृत दान करने वाले को सम्पूर्ण भोगों की प्राप्ति होकर मोक्ष मिलता है।

मकर-संक्रान्ति के दिन गंगा स्नान तथा गया तट पर दान की विशेष महिमा है। लोक आस्था के अनुसार इस दिन गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर प्रयागराज में मकर-संक्रान्ति के पर्व पर सभी देवी-देवता अपना स्वरूप बदल कर स्नान के लिए आते हैं। अतएव इस दिन प्रयाग में संगम पर स्नान करना अनन्त पुण्य प्रदायक माना जाता है। हमारे धर्म ग्रन्थों में इसे (स्नान को) पुण्य जनक के साथ ही स्वास्थ्य की दृष्टि से भी लाभदायक बतलाया गया है। क्योंकि इस दिन सूर्य के उत्तरायण हो जाने से मौसम मे गरमी प्रारम्भ हो जाती है। इसलिए उस समय शीतल जल से स्नान स्वास्थ्य के लिए गुणकारी है।

मकर-संक्रान्ति का पर्व प्राय: प्रतिवर्ष अंग्रेजी की तारीख 14 जनवरी को पड़ता है। खगोल-शास्त्रियों के मतानुसार इस दिन सूर्य अपनी कक्षाओं में परिवर्तन कर दक्षिणायन से उत्तरायण में मकर राशि में जब प्रवेश करते हैं तो ‘संक्रमण’ या संक्रान्ति कहा जाता है।
उत्तर भारत में गंगा-यमुना आदि नदियों के तट पर बसे गांवों, नगरों में स्नान पर्व के समय मेले भी लगते है। भारत में सबसे विशाल स्नान का मेला बंगाल में मकर संक्रान्ति के पावन पर्व पर ‘गंगा सागर’ में लगता है। गंगा सागर के मेले के सम्बन्ध में पौराणिक कथा है कि मकर-संक्रान्ति को गंगा जी स्वर्ग से उतरकर भगीरथ के पीछे-पीछे चलती हुई कपिल मुनि के आश्रम में जाकर सागर में मिल गईं। गंगा जी के पावन जल से राजा सगर के साठ हजार शापग्रस्त पुत्रों का उद्धार हुआ था। इसी घटना की स्मृति में ‘गंगा सागर’ नाम से यह तीर्थ विख्यात हुआ। उसी उपलक्ष्य में मकर-संक्रान्ति (14 जनवरी) को गंगा सागर तीर्थ में वृहद् मेले का आयोजन होता चला आ रहा है। इसी दिन दक्षिण बिहार के मदार-क्षेत्र में भी मेला लगता है। इलाहाबाद (प्रयाग) के संगम पर प्रतिवर्ष लगभग एक मास (माघ मास) तक माघ मेला का आयोजन होता है। जहां भक्तजन कल्पवास भी करते हैं। यहां 12 वर्ष में कुम्भ का विशाल मेला भी लगता है। यह भी लगभग एक मास तक रहता है। सौभाग्य से इस वर्ष प्रयागराज में कुम्भ का आयोजन हो रहा है। जहां लाखों-करोड़ों की संख्या में साधु-सन्त, विद्वान, सद्-गृहस्थ संगम में स्नान कर पुण्य लाभ प्राप्त करेंगे।

महाभारत के अनुसार भीष्म पितामह ने जब सूर्य उत्तरायण हुए तभी मकर-संक्रान्ति की पवित्र वेला में ही अपने शरीर का परित्याग कर परम् धाम प्राप्त किया था। इस दिन सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में जाने से हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर जाना माना जाता है। मकर-संक्रान्ति से दिन बढ़ने लगता है और रातें छोटी होने लगती हैं। यही अंधकार से निकल कर प्रकाश की ओर बढ़ने का क्रम है। सूर्य हमारी चेतना और ऊर्जा शक्ति की वृद्धि करके हमें बल, बुद्धि और तेजस्विता प्रदान करता है। मकर-संक्रान्ति के दिन खिचड़ी खाने तथा खिचड़ी व तिल के बने पदार्थ दान करने का विशेष महत्त्व है। इसलिए इस पर्व को ‘खिचड़ी पर्व’ या ‘खिचड़ी व्रत’ भी कहा जाता है।

महाराष्ट्र में माना जाता है कि मकर-संक्रान्ति से सूर्य की गति तिल-तिल बढ़ती है, इसलिए इस दिन तिल के विभिन्न मिष्ठान्न बनाकर एक-दूसरे को बांटते हैं। महाराष्ट्र में विवाहित स्त्रियां पहली संक्रान्ति पर तेल, कपास, नमक आदि वस्तुयें सौभाग्यवती स्त्रियों को दान करती हैं। महाराष्ट्र और गुजरात में यह पर्व बड़े उत्साह से मनाया जाता है, वहां अनेक प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है। गुजरात में इस दिन पतंगें उड़ाई जातीं हैं। बहुत बड़े स्तर पर पतंगबाजी की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। जिसमें भाग लेने के लिये देश-विदेश से लोग आते हैं। बंगाल में इस दिन स्नान के पश्चात् तिल दान करने का विशेष प्रचलन है। दक्षिण भारत में इसे ‘पोंगल’ कहा जाता है। असम में इस दिन ‘बिहू’ नाम से इस त्योहार को मनाया जाता है। पंजाब और जम्मू-कश्मीर में ‘लोहिड़ी’ के नाम से मकर-संक्रान्ति पर्व मनाया जाता है। सिन्धी समाज मकर-संक्रान्ति से एक दिन पूर्व इसे ‘लाल लोही’ के रूप में मनाता है। राजस्थान की प्रथा के अनुसार इस दिन सुहागिन औरतें तिल के लड्डू, गजक, घेवर तथा मोतीचूर के लड्डू आदि का वायना, उस पर दक्षिणा रखकर मन्सती हैं और उसे अपनी सास के चरण छू कर प्रदान करती हैं। उत्तर प्रदेश व राजस्थान की स्त्रियां प्राय: किसी भी वस्तु का चौदह की संख्या में संकल्प कर ब्राह्मणों को दान किया करती हैं।

इस प्रकार हमारे देश की संस्कृति में मकर-संक्रान्ति पर्व का विशेष महत्त्व है। देश के विभिन्न भागों में इस पर्व को मनाने की विविध परम्पराएं प्रचलित हैं।

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