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बजट और आम जनता

बजट और आम जनता

by अमरनाथ शर्मा
in अप्रैल -२०१३, आर्थिक, सामाजिक
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भारत वर्ष में यह कानूनन अनिवार्य है कि हर वर्ष आय और व्यय का एक बजट बनाया जाये और उसके अनुरूप वर्ष भर काम किया जाये। हम सब भी अपने-अपने परिवार में बजट बनाते हैं। परिवार के बजट और देश के बजट में एक बड़ा फर्क होता है। परिवार में इसके पहले आय का बजट बनाते हैं फिर उनके अनुरूप खर्चे का बजट बनता है। हर वर्ष खर्चे का बजट ज्यादा होता है और आय का बजट कम होता है। इसे हम घाटे का बजट कहते हैं।

देश की आजादी के बाद से आज तक केवल और केवल घाटे का ही बजट बना है। बड़-बड़ेे अंग्रेज अर्थशास्त्री इस घाटे के बजट को अच्छा जानते हैं। घाटे के बजट के कई फायदे गिनाये जाते हैं और पढ़े भी जाते हैं। पर हमारा अनुभव क्या रहा? घाटे के बजट के कारण देश पर बेतहाशा कर्ज बढ़ा, अमीरी-गरीबी की खाई, बेरोजगारी बढ़ी, पढ़े लिखों में बेरोजगारी बढ़ी, हमको पढ़ाया गया- ‘तेती पांव पसारिये जेती चादर होय’

गरीबी बढ़ी, रुपये की कीमत में लगातार गिरावट आयी, जिसके कारण महंगाई बढ़ी और गड़बड़ाता जा रहा है बजट। कई नुकसान उठाने के बाद भी पता नहीं हम क्यों लगातार घाटे का बजट बनाते जा रहे हैं? यह तो हमारे भारतवर्ष के सदियों के लिये आ रहे संस्कार हैं, जिसके बदौलत हम आज भी बने हुए हैं। हमको बचपन से सिखाया गया कि बेटा 100 कमाओ तो 25 बचाओ। नमक तक भी जमीन पर गिर जाये तो कहते हैं उसे जमीन पर मत गिरने दो नहीं तो अगले जनम ने आंख से उठाना पड़ेगा। मतलब नमक जैसी छोटी सी वस्तु की भी बरबादी मत करो। लेकिन योजनाबद्ध तरीके से इन संस्कारों पर लगातार कुठाराघात हो रहा है।

कभी-कभी लगता है बजट बनाना एक अनीवार्य उपक्रम है, जो उपक्रम हमारी सरकारें लगातार उसी तरीके से करती जा रही हैं और पैसे के बूते पर बजट फिक्सिंग भी अब किसी से छुपा नहीं है। इस तरह से बिना सोचे समझे, बिना विजन के बिना सिर-पैर के ज्यादा तर कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए कुछ कानूनों को जानना, बदलना या निकालना आदि के कारण आप बजट को एक अनिवार्य उपक्रम के अलावा क्या कहेंगे?

प्रत्यक्ष कर व अप्रत्यक्ष करों की सैकड़ों धाराएं फिर उसने हर वर्ष बजट में सैकड़ों बदलाव, फिर सैकड़ों अलग-अलग उच्च न्यायालयों के निर्णय, सर्वोच्च-न्यायालय के निर्णय, वर्ष भर सैकड़ों स्पष्टीकरण, जानकारियां आदि। एक उद्योगपति को पूरेे वर्ष भर में लगभग 365 अलग-अलग कानूनों के तहत कर भरने पड़ते हैं। इन सबका पालन करते हुए भी वह कुछ कमा कर घर ले जाता है। वाकई में ऐसे उद्योगपति भारत रत्न के अधिकारी हैं।

चाणक्य ने लिखा है कि राजा को जनता पर कर इस तरह लगाना चाहिए जिस तरह भंवरा फूल का रस लेता है और फूल की सुगन्ध जैसी की तैसी बनी रहती है, पर हकीकत में क्या हो रहा है? आपने इतने सारे कानून बना दिये। सब कानूनों को जितना हो सके पेंचीदा बना दिया। कानून बनाने वाले सही अर्थो में उसका मतलब नहीं बता सकते। इन्स्पेक्टर के हाथ में ऐसे पेंचीदा कानून को पालन कराने के लिये कानूनी डंडा थमा दिया।

मैं यह मानता हूं कि कानून इतना सरल हो कि एक साधारण व्यवसायी भी उसको समझ सके। कानूनी प्रक्रिया भी इतनी ही सरल हो। मुकदमा का निपटारा तुरन्त हो और मुकदमे लड़ना महंगा न हो। बार-बार कानूनों में बदलाव न हो। एक दूरगामी नीति हो ओर ऐसा नहीं है कि यह बहुत कठिन काम है। बस एक बड़ी इच्छा शक्ति की जरूरत है, हमारे देश में इतने सारे बुद्धिमान हैं, उनका इस कार्य में उपभोग करना चाहिए। यह तो रहा कर प्रणाली के विषय में, जिसके कारण एक बड़ी आय का बजट बनाया जाता है। अब हम चर्चा करेंगे खर्चेे के बजट के कुछ पहलुओं पर। देश की जनसंख्या को उनकी आमदनी के हिसाब से साधारणतया तीन भागों में बांटा जाता है।

1) निम्न वर्ग 2) मध्यम वर्ग 3) उच्च वर्ग
निम्न वर्ग और उच्च वर्ग पर बजट का आज तक कोई फर्क नहीं पड़ा है। गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में और कुल जनसंख्या में उनकें अनुपात में वृद्धि ही हुई है। मतलब साफ है कोई भी बजट में उनके बारे में सोचा ही नहीं गया और अगर सोचा गया तो केवल कागजी कार्यवाही तक सीमित रह गया।

बजट की बाजीगरी :-

बजट में कुल बजट का 2/3 खर्चे के लिए होता है। जैसे वेतन, ब्याज आदि। खर्च के लिए बजट में प्रवाधान होता है। इस बार लगभग 16 लाख करोड़ का बजट बना, जिसमें करीब 10 लाख कारोड़ खर्चो के लिए रखा गया। केवल 6 लाख करोड़ के आस-पास खर्चो के लिए बजट में प्रवाधान रखा गया है, वह भी साल खत्म होते-होते पूरा खर्च नहीं किया जाता। मतलब एक तो कुल बजट के केवल 1/3 विकास के लिए रखना और उसे भी पूरा खर्च न करना। यह कई सालों से चला आ रहा है। बात है कि अगर यही चलता रहा तो देश का विकास किसी हालत में नहीं हो सकता। जो विकास होगा भी तो उसकी रफ्तार इतनी धीमी होगी की वो दिखेगा ही नहीं। पूरे साल मेें 2/3 समय केवल देश के बारे मे बोला जाता है। बड़ी-बड़ी बातें होती है, क्योंकि वह पूरा देश सुनता है, पर जो भाषण में होता है उसमें से बजट में बहुत सी चीजों के लिए कोई प्रावधान ही नहीं होता। जिसका होता भी है, उसको भी पूरा नहीं करते। जिसको करते है, उसमें भ्रष्टाचार होता है। एक कहावत याद आती है ‘एक तो पैमाना कम, फिर उसमे भी कम’।

पूरे देश में 90,000 कि.मी. सड़कें हैं। 20,000 अंग्रेज छोड़कर गये थे। 70,000 कि.मी. पूरे 65 वर्षों में बनी, जिसमें 4500 कि.मी. केवल तीन वर्षो में एन.डी.ए. शासन में बनी। मतलब केवल 2500 कि.मी. पूरे 60 वर्षो में बनी।
मेरा ऐसा मानना है कि जब भी कोई नयी सरकार शपथ ले, उसी समय वह पांच साल की पूरी योजनाएं देश के सामने रखे और उसके लिए उसकी जवाबदेही रहे। हर साल जनता के बीच सभी टी. वी. चैनलों के माध्यम से और लिखित में भी उसका लेखा-जोखा लेना चाहिए।
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