सौ करोड़ की फिल्मी कमाई

भारतीय फिल्मों के कल और आज दोनों को अगर एक साथ देखें तो यह ज्ञात होगा कि फिल्मी दर्शकों की सोच मे बदलाव आया है। पहले फिल्में दमदार पटकथा पर चला करती थीं पर अब कमाई महत्वपूर्ण हो गयी है। पहले दिन करोड़ों की कमाई करने वाली फिल्में हाउसफुल होने की गारंटी बन गयी हैं, जबकि अच्छी पटकथा वाली फिल्मों को दर्शक ही नहीं मिल रहे। अगर हालात ऐसे ही रहे तो आने वाले समय में अच्छी कथानक वाली फिल्में आनी ही बन्द हो जायेंगी।

मेहबूूब खान की मदर इण्डिया की याद आते ही एक अत्यन्त कर्तव्यशील मां अपने बेटे पर बन्दूक चलाते हुए दिखायी देती है। इस दृश्य से उसके उत्कृष्ट अभिनय की याद आ जाती है। के. आसिफ की मुगल-ए आजम की याद आते ही सलीम (दिलीप कुमार) तथा अनारकली (मधुबाला) की प्रतिकूल अवस्था में भी उत्कृष्ट प्रेमकथा प्रधान फिल्म दर्शकों के सामने आयी। इस फिल्म में मधुबाला द्वारा ‘प्यार किया तो डरना क्या’ नामक गीत पर प्रस्तुत किया गया नृत्य आज भी लोगों के जेहन में ताजा है। नितिन बोस की गंगा-यमुना जब आंखों के सामने आती है, तो अलग-अलग प्रवृत्ति के दो भाइयों के संघर्ष तथा वैजयंती माला के जबर्दस्त नृत्य की याद ताजा हो जाती है।

विजय आनंद की गाइड की बात करें तो विवाहित लेकिन दुखी रोजी (वहिदा रहमान) अपने पति ( किशोर साहू) के साथ जब पर्यटन के लिए आती है, तब उसकी पहचान राजू गाइड से (देव आनंद) से होती है, वह राजू की बातचीत से प्रभावित होने के साथ-साथ उसके प्रति आकर्षित भी हो जाती है, ऐसे अत्यन्त खलबली मचा देने वाली प्रेम कहानी तथा सचिन देव वर्मन के जोरदार तथा सुरीले संगीत मन को आनंदित कर देते हैं। शक्ति सावंत की आराधना के कारण राजेश खन्ना सुपर स्टार बनकर सामने आये। इसी दौर में नायिका प्रधान फिल्मों का दौैर शुरू हुआ। मेरे सपनो की रानी तथा रूप तेरा मस्ताना जैसे सदाबहार गाने अपने-आप जेहन में आ जाते हैं।

प्रकाश मेहरा की जंजीर, सलीम जावेद के जोरदार संवाद तथा पटकथा और अमिताभ बच्चन का एंग्री यंग मैन जैसी सुपर हिट छवि सामने लाने वाली फिल्मों की याद आती है।

रमेश सिप्पी की शोले का नाम लेते ही सलीम जावेद के प्रखर संवाद से युक्त पटकथा भी याद आती है। शोले केवल फिल्म न होकर यह समाज की एक खौफनाक कहानी कही जा सकती है। अमजद खान द्वारा अभिनीत गब्बर सिंह के किरदार को याद भी किया गया तो डर लगता है। इससे यह सिद्ध होता है कि अमजद खान ने अपने किरदार में कितनी जान डाली थी। दक्षिण मुबई के मिनर्वा नामक छवि-गृह की इमारत ध्वस्त की गयी है, पर आज भी यहां से जाते समय यहां शोले फिल्म चल रही है…, कितने आदमी थे, जैसे संवाद सुनकर लोग तालियां बजा रहे हैं, ऐसा आभास होता है।

सूरज कुमार बड़जात्या का हम आपके हैैं कौन फिल्म की याद आते ही एक विशुद्ध भारतीय संस्कृति का दर्शन होता है। यह एक फिल्म न होकर छायागीत है, ऐसा समीक्षकों का कहना है। इस फिल्म को दर्शकों ने कितना पसंद किया, यह बताने की जरूरत नहीं है।
आदित्य चोपड़ा की यशराज फिल्म के बैनर तले बनी फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे के बारे में तो यही कहा जा सकता है कि यह विश्व भर के भारतीयों तक पहुंचने वाली प्रेम कहानी है। आज भी दक्षिण मुंबई के मराठा मन्दिर सिनेमा हॉल में मैटिनी शो में इस फिल्म का प्रदर्शन जारी है। 1995 में दीपावली के मौके पर प्रदर्शित हुई इस फिल्म को देखते समय शाहरुख खान तथा काजोल पर फिल्मायी गई प्रेम कहानी को कैसे भुलाया जा सकता है। देखा जाये तो फिल्मों की इस यात्रा में किस फिल्म ने कितनी कमाई की, इस बारे में किसी ने कभी विचार भी नहीं किया, क्योंकि ऐसी अनेक फिल्मों का आर्थिक निवेश तथा आय के बारे में कभी विचार नहीं किया, क्योंकि पैसों से ज्यादा फिल्म बड़ी है, ऐसी भावना से ही इस ओर देखा गया।

1982 में भारत में रंगीन टेलिविजन तथा विडियो का आगमन हुआ। इसके बाद दर्शकों तक फिल्में पहुंचना कुछ आसान हो गया। इसमें कुछ अलग मार्ग भी निकाले गये और उसे लेकर जो विवाद वह अलग ही था। इससे पहले से सिने दर्शकों को कई बार एडवांस बुकिंग के लिए घण्टों लाइन लगानी पड़ती थी। कुछ फिल्मी दीवाने पंसदीदा फिल्म की टिकटें सुरक्षित रखते थे, इसके पीछे का उद्देश्य यह था कि जब कभी इन फिल्मी दीवानों को किस फिल्म को किस परिस्थिति में और किस सिनेमा हॉल में कैसे मौज-मजा करके उस फिल्म को देखा, उसे याद करना था। फिल्म देखने में कितने पैसे खर्च किये, इस मुद्दे पर कभी विचार नहीं किया गया। जो फिल्म खूब पसंद आयी, उसकी प्रशंसा फिल्मी शौकीनों ने बड़े शौक से की।

राज कपूर, बिमल रॉय, बी.आर. चोपड़ा, वी. शांताराम, राज खोसला जैसे निर्देशकों की फिल्मों पर कितना खर्च किया गया, इन्होंने फिल्मों से कितनी कमाई की, इस ओर दर्शकों ने कभी ध्यान नहीं दिया। आर्थिक रिकॉर्ड तथा आकड़ों की तुलना में फिल्म ज्यादा महत्वपूर्ण है, यह आम फिल्मी दर्शक की भावना रही है, इसीलिए तो मेरा नाम जोकर फिल्म की असफलता में राज कपूर को कितना आर्थिक नुकसान सहन करना पड़ा, इसकी चर्चा के स्थान पर वह गुणवत्ता में क्यों नकारा गया, फिल्मी परदे पर मेरा नामक जोकर की सर्कस को दर्शकों ने क्यों स्वीकार नहीं किया। दो मध्यांतर वाली इस फिल्म को एक सप्ताह में कैची चलाकर एक मध्यांतर वाला क्यों किया गया, इस बारे में चर्चा ज्यादा होती थी। सर्वत्र यही चर्चा रही कि यह तो राज कपूर के निर्देशन की पराजय है। इस असफलता के बाद भी राज कपूर विचलित नहीं हुए और फिल्म बॉबी में राज कपूर ने फिल्मी परदे पर प्रेम कहानी को कैसे प्रदर्शित की जाये, यह दर्शकों को अच्छी तरह से समझा दिया। बॉबी फिल्म ने युवाओं के दिलों की धड़कन बढ़ा दी। बॉबी फिल्म ने राज कपूर को एक सफल निर्देशक के रूप में ला खड़ा कर दिया। वो भी क्या थे, ऐसी बात आपके मन में आती होगी। दर्शकों की कम से कम दो पीढ़ियां तो फ्लैशबैक में चली गयी होंगी। ओ.पी. राहन जब तराश फिल्म लेकर आये तब यह एक करोड़ की फिल्म है, ऐसा विज्ञापन दिया गया। 1972 में एक करोड़ की फिल्म प्रदर्शित होने की बात ने खलबली मचा दी, पर दर्शंक इस खर्च से विचलित नहीं हुए। उन्होंने फिल्म के निर्माण में खर्च से ज्यादा उसकी गुणवत्ता को महत्वपूर्ण माना। करोड़ रुपये खर्च करके बनाई गई फिल्म दर्शकों की कसौटी पर खरी साबित नहीं हो सकी। दर्शकों ने इसे पूरी तरह से नकार दिया। फिल्म पर कितना खर्च किया गया, इससे ज्यादा फिल्म कैसी है, इस पर ज्यादा महत्व उस दौर में दिया जाता था। उस समय हिंदी फिल्म के दर्शकों की दृष्टि परदे पर टिकी रहती थी, इसीलिए उस समय फिल्म का स्तर ऊंचा था। शोले को मिली भारी सफलता के बाद निर्देशक रमेश सिप्पी ने शान फिल्म का निर्माण किया। शान फिल्म की पटकथा दर्शकों को बताने से पहले उसके निर्माण में 6 करोड़ रुपये खर्च किये गए इसका विज्ञापन करना सचमुच आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा। 1980 में छह करोड़ की धनराशि बहुत बड़ी मानी जाती थी। महंगी फिल्म का जोर-शोर प्रचार करने से दर्शकों का उसकी ओर ध्यान जाना स्वाभाविक था। फिल्म के प्रदर्शित होने से पहले ही उसका जोर-शोर से प्रचार करने के पीछे की मूल धारणा दर्शकों कोे अपनी फिल्म की तरफ आकर्षित करना था। दर्शकों की मानसिकता पैसा वसूल करने वाली रही है, इसलिए वह फिल्म देखने से पहले इस बात के लिए आश्वस्त हो जाता है कि फिल्म देखने लायक है या बेकार है। बदलाव के दौर में मनमोहन देसाई की नान्सेंस फिल्में भी धड़ल्ले से चलीं और इन फिल्मो ने भरपूर कमाई भी की। लेकिन, अब यह सब इतिहास का विषय बन चुका है। दबंग, गजनी, अग्निपथ, रावडी राठौर, दबंग-2, जब तक है जान, सन ऑफ सरदार जैसी एकदम आज की पीढ़ी की पसंद की फिल्में गुणवत्ता के मुकाबले उसने पहले दिन कितना व्यवसाय किया, पहले तीन दिनों में 100 करोड़ रुपये की कमाई फलां फिल्म ने की, इस तरह की खबरें सर्वत्र प्रसारित होती रहती हैं। इस भारी कमाई वाली फिल्म में क्या है, या भारी कमाई की बात कहकर उस फिल्म को देखने के लिए युवा पीढ़ी को प्रोत्साहित करने की बात सामने आती है। खान भाई को लेकर अगर कोई फिल्म बनायी तो उससे भारी कमाई होती है, ऐसी कुछ फिल्म निर्माताओं की समझ है। सिर्फ तीन दिनों में करोड़ों की कमाई अगर हो रही हो तो देश के कम से कम 50 प्रतिशत व्यापारी अपना मूल व्यवसाय छोड़कर फिल्म निर्माण की फैक्ट्री शुरू कर देते। भविष्य के खतरे और भी खतरनाक हैं। आप ने तीन दिन में सौ करोड़ रुपये कमाये हैं न; तो हमारा हिस्सा हमें दीजिए, ऐसी धमकी अंडरवर्ल्ड की ओर से फिल्म निर्माताओं को खुले आम दी जा सकती है।

फिल्म हाउसफुल है, ऐसा वातावरण तैयार करने पर ज्यादा से ज्यादा दर्शक फिल्म देखने आएंगे, इस आधार पर फिल्म को सफल बनाने का फंडा बन गया है। फिल्म देखने का वातावरण तैयार करने की तकनीक भी करोड़ की कमाई का एक जरिया बन गया है। फिल्म के प्रचार-प्रसार में मीडिया की सहभागिता भी काफी बढ़ गयी है। फिल्म के बारे में मीडिया जाने-अनजाने में प्रचार का मुख्य जरिया बन गयी हैं। फिल्म की गुणवत्ता की परख तथा विश्लेषण करने की क्षमता न होने के कारण इस सौ करोड़ की कमाई की बात करना आसान नहीं है। सफल फिल्में देश-विदेश को मिलाकर एक ही समय, एक दिन में सात-आठ सौ शो प्रदर्शित किये जाते हैैं। सभी शो तथा टिकट दर की धनराशि को जोड़ा जाये तो प्राप्त धनराशि करोड़ों के ऊपर जाती है, पर यह धनराशि बॉक्स ऑफिस की होती है। बॉक्स ऑफिस में आयी धनराशि पूरी की पूरी निर्माता को नहीं मिलती। इस धनराशि से सिनेमा हॉल का किराया, सजावट का खर्च, आयकर, मनोरंजन कर, अन्य कर समेत अन्य खर्च वहन किया जाता है।

एक बात ध्यान में रखने योग्य है कि फिल्म के निर्माण का कुल खर्च, प्रमोशन तथा उसकी मार्केटिंग का बढ़ता खर्च, प्रिन्ट का खर्च, यू.एफ ओ. का किराया इन सब की कुछ करोड़ की धनराशि का निवेश होता है। (फिल्म प्रदर्शित होने से पहले होने वाले खर्च का बढ़ता बजट तो अलग विषय है।)

कहने का तात्पर्य यह है कि करोड़ों का निवेश करने के बाद वसूली भी तो बढ़नी ही चाहिए। सौ करोड़ की कमाई में वास्तविक लाभ कुछ करोड़ रुपये का ही होता है। इस तरह भारी निवेश तथा अनेक तरह के खर्च की धनराशि को काटने के बाद सौ करोड़ की कमाई में दस करोड़ ही हाथ में आते हैैं। इस दस करोड़ की वास्तविक कमाई के लिए जो बौद्धिक, भावनात्मक तथा शारीरिक कष्ट होता है, वह अलग से है। अच्छी फिल्म के लिए अच्छा निवेश भी करना पड़ता है। दर्शक फिल्म के कथानक तथा उसके माध्यम से होने वाले मनोरंजन से जुड़ा होता है। अच्छे फिल्मी दर्शकों पर सौ करोड़ की कमाई का कोई असर नहीं पड़ता। अच्छी फिल्म देखने की उसकी इच्छा रहती है, उसकी इसी निष्ठा पर भारतीय फिल्म जगत का पाया मजबूत हुआ है और इसी के बूते पर भारतीय फिल्म ने सौ वर्ष की यात्रा पूरी की है। विविधता से
परिपूर्ण भारतीय सिनेमा ने दर्शकों के बीच ऐसी पैठ बनायी है कि वह आज भी उनके मनोरंजन का सबसे प्रमुख माध्यम बना हुआ है।

बरसात, दो आंखें, बारह हाथ, दो बीधा जमीन, कागज के फूल, काला पानी, दो रास्ते, त्रिशूल के साथ-साथ शक्ति, लगान, वेडनसडे जैसी उत्कृष्ट फिल्में दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ने में सफल रही हैं। अच्छी फिल्मों की जब बात की जाती है तो उसने कितनी कमाई की, इसकी चर्चा न करके उस फिल्म में क्या देखा? इस बारे में चर्चा होती है। दोस्ती, उपहार, उपकार, शोर, दुल्हन वही जो पिया बन भाये, रजनीगंधा, चितचोर, स्वामी जैसी फिल्मों से ग्रहण करने जैसा क्या है, इस विषय पर पारिवारिक चर्चाएं खूब हुई हैं।

सौ करोड़ की कमाई के बारे में वह रंग नहीं है। ज्यादा कमाई से सिनेमा का स्तर बढ़ता नहीं, सिनेमा का वक्त आगे नहीं बढ़ता। सिनेमा का क्षेत्र तथा उसके व्यवसाय दोनों का गम्भीरता से सकारात्मक विचार करने वालों को करोड़ों की कमाई के फेर में नहीं फंसना चाहिए।
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