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भारत का मार्ग

भारत का मार्ग

by प्रवीण पाराशर
in अप्रैल -२०१३, सामाजिक
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संस्कृति और धर्म के चिन्तन में मनुष्य उसका केन्द्र्र बिन्दु होता है। प्रश्न उठता है कि मनुष्य कौन है? कहां से आया है? मनुष्य को जीवन क्यों जीना है? वे कौन से आधार स्तम्भ हैं, जिन पर मनुष्य का अस्तित्व टिका हुआ है? मनुष्य का सुख क्या है? वह उसे कैसे प्राप्त होता है? इस सुख को प्राप्त करते समय हमारे सम्बन्ध परिवार से, समाज से, प्रकृति से क्या होंगे, इनमें प्राथमिकता किसकी होगी? प्रश्नों के उत्तर ही मनुष्य को उसके सुखी व परिपूर्ण जीवन का पथ प्रदर्शित कर सकते हैं? विश्व के दो दर्शन समुदाय-भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही मानव जाति के पथ प्रदर्शक हैं। पाश्चात्य दर्शन कहता है- ‘‘मैन इज बॉर्न आउट ऑफ सिन’’ ‘‘मनुष्य पाप की उपज है।’’ ऐसा कहने के परिप्रेक्ष्य में पाश्चात्य दर्शन आदम और हौवा का दृष्टान्त देता है। जब आदम और हौवा ने ईश्वर को दिये वचन की अवहेलना कर पेड़ पर लगे सेब को खाया तो उनसे पाप हो गया और तब ईश्वर ने उनसे कहा कि अब तुम दोनों नीचे पृथ्वी लोक पर जाओ और वहां पर प्रकृति का उपभोग करो। इस प्रकार आदम-हौवा से संसार का प्रारम्भ हुआ। सृष्टि का विकास हुआ। सृष्टि के विस्तार के साथ सभ्यता, संस्कृति व विचारों का भी विकास हुआ। विकास पर शोध करने वाले वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने एक सिद्धांत ‘विकासवाद’ प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत के मूल में संघर्ष था। विकासवाद कहता है- प्रकृति का उपभोग करो। जब सभी प्रकृति का उपभोग करेंगे तो एक समय पर संघर्ष शुरू होगा और जीतेगा वही जो ताकतवर होगा उसी का अस्तित्व शेष रहेगा। विकासवाद की विचारधारा जिस समय फल-फूल रही थी, उस समय पाश्चात्य जगत कैथोलिक धर्म द्वारा संचालित हो रहा था। विकासवाद को मार्गदर्शन चर्च से प्राप्त हो रहा था। विकासवाद के कारण पाश्चात्य जगत का सुख ताकतवर हाथों में चला गया। कुछ विद्वान व विचाराधीन लोगों ने विकासवाद के इस सिद्धांत का व कैथोलिक व्यवस्था का विरोध किया। तब एक नयी धारा का सूत्रपात हुआ। यह नयी धारा प्रोटेस्टेन्ट के नाम से विख्यात हुई। यह ईसाई धर्म की ही शाखा है। प्रोटेस्टेन्ट ने लोगों के सांसारिक सुखों को महत्व दिया, उनका कहना था कि पूंजी एकत्र करो, सुख को महत्व दो। तब 16वीं शताब्दी में पूंजीवाद का प्रारम्भ हुआ। विश्व में उसने अपनी जड़ें मजबूत कीं, धन एकत्रित किया और स्वयं को सुखी बनाने में जुट गया। इसी तारतम्य में पूंजीवादी विचारधारा ने भारत के खजानों को भी लूटा। उनका कहना था कि पूंजी से पूंजी बनेगी और बाजार महत्वपूर्ण हो जायेगा। विश्व के कई देशों में व्यापारिक कम्पनियों के माध्यम से धन लूटा गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत में स्थापित किया गया। सन 1757-1765तक भारत से इग्लैण्ड का पूरा धन लूटकर ले गये, उसी दौरान 1780 में इग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति आयी। भारत की पूंजी से इग्लैण्ड समृद्धशाली हुआ। पूंजीवाद ने मनुष्य के सारे सुख पूंजी से पूरे करने पर जोर दिया और मनुष्य को आर्थिक इकाई माना, उसने कहा-जो पूंजी लगायेगा, वो पायेगा।
पूंजीवाद अपने सिद्धांतों पर विस्तार करता हुआ उद्योगों एवं उत्पादन की ओर अग्रसर हुआ। अधिक उत्पादन और धन की लालसा ने मजदूरों का जीना दूभर कर दिया। मजदूर रात-दिन फैक्ट्रियों में कैद होकर पूंजीपतियों के लिए उत्पादन में अपना जीवन न्यौछावर कर यातनाएं झेल रहे थे, तभी एक नयी क्रान्ति का उदय हुआ। इसी का नाम था- साम्यवाद, इसके प्रणेता कार्ल मार्क्स थे। यह सिद्धान्त पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों पर हो रहे अत्याचार व शोषण के विरुद्ध नयी दिशा प्रदान करने के लिए प्रतिपादित किया। उन्होंने कहा कि जो ‘‘कमायेगा, वही खायेगा।’’ यहीं पर एक वाद संघर्ष और शुरू हुआ। एक पूंजीवाद और दूसरा साम्यवाद, दोनों का संघर्ष आर्थिक संसाधनों को लेकर प्रारम्भ हुआ।

दोनों वादों में समानता थी। दोनों का मत था कि-
– संघर्ष अश्वयंभावी है।
– दोनों ही मनुष्य को आर्थिक सुखों से जोड़ते हैं।

– दोनों मानते हैं कि शक्तिशाली ही जीवित बचेगा।

पाश्चात्य जगत ने मनुष्य के दैहिक सुख की कामना हेतु अनेक सिद्धान्तों विकासवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद इत्यादि को जन्म दिया। परन्तु मनुष्य को सुख देने में आज भी ये सिद्धान्त असमर्थ हैं। पैसे की चकाचौंध में चमचमाती हुई पश्चिम की दुनिया आज आर्थिक रूप से कमजोर है। वहां का व्यक्ति कर्ज में डूबा है। आर्थिक तंगी के कारण व्यक्ति लूट-पाट, हत्या, आत्महत्या जैसी असामाजिक घटनाओं का शिकार है। वह यह विस्मृत कर चुका है कि ‘‘आनन्द’’ क्या है। आनन्द तो पारलौकिक सत्य है, जो हमारे अन्दर रहता है। सभ्यता की अंधाधुंध दौड़ हमें सुख तो दे सकती है पर आत्मसुख एवं आनन्द नहीं।

‘‘सांख्य’’ का कहना है- ‘‘गुणानां साम्यावस्था प्रकृति:’’ गुणों के साम्य की अवस्था प्रकृति है।
प्राचीन भारतीय चिन्तन में सृष्टि प्रक्रिया को लेकर अभिनव प्रयोग किये गए हैं। आधुनिक चिन्तन विज्ञान का युग है। वैज्ञानिक शोधों के आधार पर ही किसी तथ्य की स्वीकारोक्ति मिल सकती है।

भारतीय दर्शन के आधुनिक विचारक पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्मक मानववाद ने यह प्रश्न उपस्थित किया है कि-भारत का रास्ता कौन सा होगा? पूंजीवाद या साम्यवाद।

उनका विचार था कि- जब तक मनुष्य एवं प्रकृति का समग्रता से अध्ययन नहीं होगा तब तक कोई भी दर्शन उसके सम्पूर्ण सुख की व्याख्या नहीं कर पायेगा। मनुष्य केवल देह नहीं है। तो क्या है? उन्होंने गीता के तीसरे अध्याय का 42 वां श्लोक इस सम्बन्ध में उद्वरित किया है-

‘‘इन्द्रियाणि पराण्या हुरिन्द्रियेम्य: परंमन:।

मनसस्तु पराबुद्धियो बुद्धे: परतस्तु स:॥’’

अर्थात इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है, वह आत्मा है। अब हमें शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा इन चारों के सुख की कल्पना करनी पड़ेगी। पूंजीवाद और साम्यवाद ने केवल शरीर की चिन्ता की है। किन्तु भारतीय मनीषा शरीर सुख नहीं बल्कि आत्म आनन्द की पक्षधर है।

पाश्चात्य कहता है कि मुझे किसी भी कीमत पर सुख पाने का अधिकार है और वह व्यक्तिगत अधिकारों की बात करता है, जिससे परिवार के दूसरे सदस्यों के अधिकार खतरे में पड़ जाते हैं। एक विधवा की 10 वर्ष की बेटी है, वह विधवा अपने व्यक्तिगत सुख के अधिकार के कारण दूसरा विवाह करती है। तब उस 10 वर्ष की बेटी के अधिकार की रक्षा कैसे होगी? भारतीय दर्शन कहता है कि मैं अपने सुख के लिए काम करूंगा, यदि मेरा सुख परिवार के सुख के सामने आएगा तो मैं अपना सुख त्याग कर परिवार के सुख के लिए कार्य करना पसंद करूंगा। यदि समाज के सुख के सामने परिवार का सुख आएगा तो मैं परिवार का सुख त्याग कर समाज के लिए काम करना चाहूंगा। यदि देश के सुख के सामने समाज का सुख आड़े आएगा तो मैं पहले देश के सुख के लिए काम करूंगा। यही मेरा धर्म है। भारतीय चिन्तन और दर्शन से ने इस उदार मनोवृत्ति तथा समर्पण की शाश्वत शिक्षा दी है। भारतीय दर्शन ‘‘सर्वेभवन्तु सुखिन:’’ सबके सुख की कामना करता है। जो निर्बल है, उसको न सताने के लिए सावधान करता है। भारतीय दर्शन कहता है- अन्तिम पंक्ति के व्यक्ति की चिन्ता करना है, जो दरिद्री है पर नारायण स्वरूप है। जो विवेकानंद का दरिद्रनारायण है। वे कहते हैं कि ‘‘मैं उस प्रभु की सेवा करता हूं, जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं’’। एकात्म मानववाद ‘अन्त्योदय’ की बात कहता है। अन्तिम व्यक्ति का उदय और उत्थान कैसे हो- यह विचार एकात्म मानववाद की रीढ़ है। इस विचार के अनुसार- भूखे को भोजन दो, बीमार को दवा दो, दरिद्रनारायण की सेवा करो। पाश्चात्य कहता है- ‘सर्वायवल ऑफ द फिटेस्ट’ जीवन के संघर्ष में वही बचेगा जो शक्तिशाली होगा। लेकिन भारतीय दर्शन कहता है- ‘सर्वायवल ऑफ द वीकेस्ट’ (जो कमजोर है, वह निश्चिन्त होकर जीयेगा)। भारतीय दर्शन सभी को जीने का अधिकार देता है। तुलसी का पौधा पूजा के लिए है तो बरगद का पेड़ भी उतना ही पूजनीय है। नवगृहों की पूजा और अन्तरिक्ष शान्ति की याचना भी यहां की जाती है। गांवों का अशिक्षित बच्चा भी प्रतिदिन की प्रार्थना का समापन प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो के उद्घोष के साथ करता है।

भारतीय दर्शन हमेशा से नये विचारों का स्वागत करता आया है। यहां विचारों को फलने-फूलने के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराया गया। विचारों को सूली पर चढ़ाना व विष देना कुसंस्कार है, जो हमारे यहां त्याज्य है। इस प्रकार भारतीय दर्शन विभिन्न मतों-पंथों का सम्मान करता है। भारत की माटी पर अनेक मत, पंथों का जन्म व विकास हुआ है। भगवान गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, चार्वाक दर्शन इसी माटी के लाल हैं।

भारतीय दर्शन कहता है कि प्रकृति पर किसी एक का अधिकार नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति ईश्वरीय सत्ता है। प्रकृति जैव विविधता को मानती है और पश्चिम एकाधिकार को बढ़ावा देता है, उनका दर्शन वस्तुओं का पेटेन्ट कर महंगा बेचने पर जोर देता है।

भारतीय दर्शन में आत्म ज्ञान हेतु दैहिक सुखों को त्याग कर मनुष्य गुफा, कंदराओं में तपस्या करता है। वह वहां से मनुष्य के सुखी होने का ज्ञान एकत्र करता है और सर्व कल्याणार्थ सम्पूर्ण जन-मानस को नि:शुल्क वितरित करने का संकल्प करता है। भारत भूमि धरा पर जन्म लेना ही गौरव की बात है। कितने ऋषि, सन्त, महात्मा एवं बलिदानी पुरुषों ने अपने ज्ञान के उत्सर्ग से इस धरा को बलिष्ठ किया है। उन्होंने व्यक्तिगत सुख को त्याग कर सर्वभौमिक सुख की कामना की है, तभी तो सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की भावना चरितार्थ होती है। भारतीय चिन्तकों ने मूल्यों की प्रतिष्ठा करने का सारस्वत प्रयास किया है। इसीलिए भारत की धरती मूल्यों की धरा है, आदर्शो की धरा है, उत्सर्ग की धरा है, चिन्तन की धरा है, विचारों की धरा है एवं धर्म एवं दर्शन की धरा है। जबकि पश्चिम की धरती आवरण की धरा है, सुख की धरा है, भौतिकता की धरा है, वस्तुओं की धरा है।

आइए हम मनुष्य को मनुष्य समझे। सभी आत्माओं को एक मानें, भेदभाव से दूर हो और सबके सुख की कामना करें। सबको सबका अधिकार मिले ओर हम कर्तव्यपरायण होते हुए सन्मार्ग पर रमण करें। यही भारत का मार्ग है।

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