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शौर्य और पराक्रम की परम्परा

शौर्य और पराक्रम की परम्परा

by अनुराग चतुर्वेदी
in मई २०१३, सामाजिक
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राजस्थान में शौर्य और पराक्रम की परम्परा प्राचीन काल से है। स्वतंत्रता के बाद भी जो चार युद्ध हुए उनमें राजस्थान के श्ाूरमा शौर्य और पराक्रम में सबसे आगे रहे। स्वतंत्रता के बाद अब तक इस वीर-भूमि के दो सप्ाूतों को पराक्रम का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र मिला है। दूसरा सर्वोच्च सम्मान महावीर चक्र भी राजस्थान के नौ रणबांकुरों को मिला है। कारगिल के संग्रम में भी यहां के जवानों ने अद्भुत शौर्य का परिचय दिया। 22 अक्टूबर 1647 को पाक सेना ने कबाइलियों के वेश में कश्मीर पर आक्रमण किया। उस समय तक कश्मीर का विलय भारत में नहीं हुआ था। 26 अक्टूबर 1647 को कश्मीर के महाराजा हरी सिंह ने विलय का प्रस्ताव भारत सरकार को भेज दिया। अब कश्मीर भारत का अंग बन गया था, इसलिए भारतीय सेना कश्मीर की रक्षा के लिए सिद्ध हो गयी। इस बीच शत्र्ाु श्रीनगर तक बढ़ आया था। घुसपैठियों की गोलबारी से श्रीनगर का हवाई अड्डा क्षतिग्रत हो गया। कश्मीर को भारत से जोड़ने वाले एक मात्र मार्ग पर पाकिस्तानियों का अधिकार था, अत: भारतीय सेना को हवाई मार्ग से ही कश्मीर में उतारा जा सकता था। श्रीनगर विमान तल की स्थिति ऐसी थी नहीं कि वहां कोई विमान उतर सके। विकट समस्या उत्पन्न हो गयी । ऐसी स्थिति में श्रीनगर के संघ के कार्यकर्ताओं से सम्पर्क किया गया। श्रीनगर के स्वयंसेवकों ने हवाई अड्डे पर दिन-रात कार्य करके उसे दुरुस्त कर दिया। अब भारतीय सेना के विमान सैनिकों को लेकर यहां उतरने लगे । तीन-चार माह में ही भारतीय रणबांकुरों ने पाक घुसपैठियों को काफी पीछे धकेल दिया। इस युद्ध में राजस्थान के पीरु सिंह शेखावत को ‘परमवीर चक्र’ मिला ।

हवलदार मेजर पीरु सिंह शेखावत-

पीरु पंचाल पर्वत शृंखला के पश्चिम में जब हमारी फौज नौशहरा व झंगड़ क्षेत्रों पर वापस अपना प्रभुत्व जमाने में व्यस्त थी, फरवरी-मार्च – 48 के आसपास, पीर पंचाल के प्ाूर्व में रिथवाल-छिंदवाड़ा की ओर से श्रीनगर में फिर खतरा होने लगा। दुश्मन पहाड़ी इलाकों से बारामूला और श्रीनगर में घुसपैठिए भेजने की फिराक में था। घुसपैठ रोकने के लिए सेना ने कादिर खान पर्वत शृंखला पर अपना प्रभुत्व करने की ठानी। इन्ही मोर्चों से होते हुए गढ़वाल पलटन को आगे बढ़कर दुश्मन को नेस्तनाबूद करना था। इस कार्रवाई में राजप्ाूताना राइफल्स की बी कम्पनी ने उनकी सहायता की। डी. कम्पनी पर दुश्मन ने प्रात: 4 बजे हमला कर दिया परन्तु इसे असफल कर दिया गया। इसके बाद राजप्ाूताना राइफल्स ने आगे बढ़ने का निर्णय लिया। सामने के दो पहाड़ों पर घुसपैठिये फैले हुए थे। राजप्ाूताना राइफल्स ने 18 जुलाई को रात डेढ़ बजे पहली पहाड़ी पर आक्रमण कर दिया। इस पहाड़ी पर जाने वाला रास्ता अत्यंत संकरा और दुर्गम था। मात्र एक मीटर चौड़े इस रास्ते के दोनों ओर गहरी खाइयां थीं। इस मार्ग पर नाकाबंदी करने के लिए दुश्मन ने पहाड़ी के ऊ पर 5 बंकर बना रखे थे। इस कारण इस रास्ते को पार करना लगभग असम्भव था। डी कम्पनी जैसे ही आगे बढ़ी वैसी ही उस पर दुश्मन ने हमला कर दिया। इससे कम्पनी को वहीं रुकना पड़ा । इन्हीं बंकरों में दुश्मनों की एक ऐसी चौकी थी जो सजग रहकर, रात के अंधेरे में भी किसी भी प्रकार की हलचल की टोह ले सकती थी। बढ़त रुकने के आधे घण्टे के भीतर ही डी कम्पनी के 51 जवान हताहत हो गये।

रणभूमि के ऐसे क्लिष्ट मोड़ पर नैया पार करने के लिए किसी रणबांकुरे के असाधारण शौर्य की आवश्यकता थी। यह कारनामा कर दिखाया डी कम्पनी के हवलदार मेजर पीरु सिंह शेखावत ने। उन्होंने तेज गति से दौड़ते हुए दुश्मन के पहले बंकर पर धावा बोल दिया। उनके ऐसा करते ही दुश्मन के ग्रेनेड उनके ऊपर फट पड़े । ग्रेनेड के टुकड़े उनके शरीर में जगह-जगह धंस गये, पर ये गहरे घाव भी उनको आगे बढ़ने से नहीं रोक पाये। बंकर के अन्दर घुसते ही अपनी संगीन से उन्होंने मशीन-गन चलाने वाले घुसपैठियों को ढेर कर दिया और स्वयं उनके मोर्चे में ही रहे। उन्होंने पाया कि वे अकेले हैं, उनके सेक्शन के सारे साथी तब तक शहीद हो चुके थे। पीरु सिंह के शरीर से बहुत खून बह रहा था। उन्होंने सोचा यदि वे अभी आगे नहीं बढ़े तो उनकी सफलता पर पानी फिर जाएगा। इसके बाद धीरे-धीरे आगे सरकते हुए उन्होंने प्ाूरा जोर लगाते हुए दुश्मन के दूसरे बंकर पर जोरदार हमला किया। इसी समय उनके ठीक सामने एक ग्रेनेड फटा, जिसके विस्फोट से उनका प्ाूरा चेहरा लहूलुहान हो गया। सिर व माथे से रिसते रक्त के कारण उन्हें दिखायी देना कठिन हो गया। उनकी स्टेन-गन की सारी गोलियां भी खत्म हो गयी थीं, फिर भी पीरु सिंह रेंगते हुए धीरे-धीरे बाहर की ओर सरके और उन्होंने अगले बंकर पर ग्रेनेड फेंके। ग्रेनेडों के फटने के साथ ही वे प्ाूरे वेग से दुश्मन के बंकर में कूद पड़े और अपनी संगीन से दोनों दुश्मनों को परलोक भेज दिया। उसके बाद उन्होंने बाहर सरक कर अगले मोर्चे में कूदने का प्रयास किया। इसी समय दुश्मन की एक गोली उनके सिर में जा धंसी पर तब तक उन्होंने उस बंकर में भी ग्रेनेड फेंक दिया।

20 मई 1618 में झुंझुनूं जिले के ग्रम बेरी-रामप्ाुर में जन्मे राजस्थान के इस सप्ाूत पीरु सिंह शेखावत ने कश्मीर की रणभूमि में ही वीरगति को गले लगाया। भारत सरकार ने मरणोपरांत उन्हें ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया। परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले वे भारतीय सेना के दूसरे जांबाज थे।

परमवीर मेजर शैतान सिंह

1662 के भारत-चीन युद्ध में भारतीय सैनिकों ने अदम्य साहस, शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया। 18 नवम्बर 1662 पौ फटने से प्ाूर्व चीनी सेना ने ग्ाुप-चुप तरीके से भारत पर हमला कर दिया। इस समय भारतीय सेना के मात्र 123 जवान मोर्चे पर तैनात थे। सुबह पांच बजे तक चीनी सैनिक आधी पहाड़ी तक चढ़ आये थे। उन्हें देखते ही कम्पनी कमांडर मेजर शैतान सिंह ने हमला करने का हुक्म दे दिया। अचानक हुए हमले से दुश्मन के सैनिक ढेर होकर नीचे गिरने लगे। जीवित बचे दुश्मनों ने चट्टानों की ओट लेकर हमला जारी रखा।
मेजर शैतान सिंह ने सैनिकों से कुछ देर हमला रोकने को कहा। हमला रुकते ही लगभग चार सौ चीनी सिपाही फिर ऊ पर की ओर चढ़ने लगे। जब दुश्मन मात्र 60 मीटर की दूरी पर रह गया तो उस पर भारतीय सेना ने हमला कर दिया। एक बार फिर अनेक दुश्मन परलोक सिधार गये। कुछ समय बाद दुश्मन ने नये सैनिकों के साथ भारतीय जवानों को चारों ओर से घेर लिया।

इस लड़ाई में क म्पनी कमांडर मेजर शैतान सिंह ने असाधारण वीरता का परिचय दिया। जिस-जिस स्थान पर शत्र्ाु ने हमला किया, उन्होंने वहां जाकर सैनिकों का मनोबल बढ़ाया। दुश्मन की गोलियों से बुरी तरह घायल हो जाने के बावजूद वे अपने रणबांकुरों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते रहे। अत्यधिक रक्त स्राव के कारण उनका खड़ा होना भी दूभर हो गया। तब दो सैनिक उन्हें उपचार के लिए ले जाने लगे उसी समय दुश्मन ने उन पर गोलियां बरसा दीं। अपने दोनों सैनिकों की जान बचाने के लिए उन्होंने दोनों सैनिकों को सुरक्षित जगह जाने का आदेश दिया। आदेशानुसार उन सैनिकों ने अपने बहादुर कमांडर को चट्टान की ओट में लिटा दिया और स्वयं दुश्मन से टकराने निकल गये।

अत्यधिक खून बह जाने के कारण राजस्थान के इस सप्ाूत मेजर शैतान सिंह ने इसी चट्टान के किनारे ही वीरगति को गले लगाया। 18 नवम्बर को शहीद हुए इस जाबांज सिपाही को भारत सरकार ने मरणोपरांत ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया। 1 दिसम्बर 1624 को जोधप्ाुर में जन्मे इस रणबांकुरे का अन्तिम संस्कार जोधप्ाुर में ही हुआ।

इनके अलावा राजस्थान के तीन सप्ाूत अशोक चक्र, 20 सप्ाूत कीर्ति चक्र व 62 सप्ाूत वीर चक्र से सम्मानित किये गए हैं।

: प्ाूर्वी पाकिस्तान की विजय के नायक ले. जनरल सगत सिंह

1671 के भारत-पाक युद्ध में ले. जनरल नियाजी के 60 हजार सैनिकों को आत्म समर्पण के लिए मजबूर करने वाले भारतीय सेना के कुशल सेनापति थे ले. जनरल सगत सिंह। ऐसे कुशल सेना नायक ने राजस्थान की धरती पर जन्म लिया। राजस्थान तो वैसे भी वीरों की भूमि है, विराट राज, बप्पा रावल, राणा सांगा, महाराणा प्रताप और वीर दुर्गादास राठौड़ जैसे महान सप्ाूत इसी धरा की देन हैं। 14 जुलाई 1616 में बीकानेर में जनलर सगत सिंह का जन्म हुआ।

वे द्वितीय विश्व युद्ध के समय पश्चिम एशिया के मोर्चे पर फासिस्ट ताकतों से लड़े। गोवा को प्ाुर्तगालियों से मुक्त कराने में भी बिगेडियर सगत सिंह की महत्वप्ाूर्ण भूमिका रही। मात्र 45 घण्टे में उन्होंने प्ाुर्तगालियों को भारत से खदेड़ दिया। उनके सैनिक जीवन का एक और महत्वप्ाूर्ण मोड़ 1665 के भारत-पाक युद्ध में आया। इस युद्ध में पाकिस्तान की सहायता के लिए चीन ने भारत पर हमला कर दिया। मेजर जनरल सगत सिंह ने चीन पर ऐसा पलटवार किया कि उसके बाद चीन की भारतीय सीमा पर छेड़छाड़ करने की हिम्मत नहीं हुई।
1671 के भारत-पाक युद्ध में 10 दिसम्बर को उनके जीवन का सर्वाधिक रोमांचक समय आया। ले. जनरल सगत सिंह के नेतृत्व में सेना को ढाका विजय का कार्य सौंपा गया। ढाका पहुंचने के लिए भारतीय सेना को चार किमी. लम्बी मेघना नदी पार करनी थी, परन्तु दूसरे किनारे पर पाक सेना डेरा जमाये बैठी थी। इस विकट परिस्थिति में गजब की सूझबूझ दिखाते हुए जनरल सगत सिंह ने हेलीकॉप्टरों से भारतीय सैनिकों को पाक रक्षा पंक्ति के पीछे उतार कर दुश्मन पर सामने और पीछे से हमला बोल दिया । ऐसे में पाक सेना ने समर्पण करना ही उचित समझा। सन 1671 में उन्हें परम विशिष्ट सेवा मेडल प्रदान किया गया। इसके बाद 26 जनवरी 1672 को उन्हें पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया।

 

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