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उसकी आवाज

उसकी आवाज

by सुशीलकुमार फुल्ल
in कहानी, नवंबर -२०१३
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फिन्टू रिरिया रहा था। उसकी आवाज में दर्द था। उसे लगा उसका बापू भी उसकी फरियाद को अनसुना कर रहा था, परन्तु वह थोड़े-थोड़े अन्तराल के बाद कराह उठता… बापू, मुझे किसी बड़े अस्पताल में ले चलो… दिल्ली न सही, चण्डीगढ़ ही ले चलो। यहां तो मैं मर जाऊंगा। यहां न कोई ढंग का अस्पताल है और न ही डॉक्टर… हाय वो परमात्मा ने क्यों मुझे पहाड़ों में फैंक दिया।
मेथरी राम के कानों में आज भी बेटे का आन्तर्नांद गूंज रहा है। वह सोचता है क्यों इंसान कभी-कभी इतना स्वार्थी हो जाता है कि सही आवाज को भी अनसुनी कर देता है… और फिर यह गिड़गिड़ाहट तो उसकी अपनी सन्तान की ही थी। एक बार जो गलत हो गया, फिर जीवन पर्यंत हम उसे सही सिद्ध करने के लिए बहाने ढूंढ़ते हैं… छलावे में सन्तोष खोजते हैं।

फिन्टू ठीक ही कहता था… मैं ही नहीं रहूंगा, तो जमीन का भी क्या करोगे? क्या छाती पर उठा कर ले जाओगे।
संध्या की बेला में जी रहे बाप को लगा- बड़ा अनर्थ हो गया। कभी-कभी हम तात्कालिक स्वार्थों में ही जीने लगते हैं और जब कोई बड़ा नुकसान हो जाता है, तो आत्म-ग्लानि में मरते हैं।
शायद वह ठीक था… और मैं…?
***
उसने आंखें मिचमिचाते, लगभग लड़खड़ाते हुए अस्पताल के बरामदे में प्रवेश किया। कुर्सियां खचाखच भरी थीं। उसे हैरानी हुई। इतने लोग बीमार हैं? जहां भी देखो भीड़ ही भीड़। वह बहुत साल पहले अपने किसी रिश्तेदार के साथ बम्बई गया था। लोकल-ट्रेन की भीड़ को देख कर घबरा गया था… मानों पेड़ों पर लंगूर लटके हुए हों। वह गाड़ी में नहीं चढ़ पाया था। कुछ वैसा ही उसे आज पहाड़ के इस छोटे शहर में लग रहा था। कालर पर छाता फंसाए, कंधे पर थैला लटकाये, वह सोठी के सहारे दीवार से सटकर खड़ा हो गया।
जवानी में उसे अपनी गिद्ध दृष्टि पर गुमान रहा था परन्तु, अब सामने की दीवार पर लिखे नामों को पढ़ने में उसे दिक्कत हो रही थी। लकीरें गड्डमड्ड हो रही थीं। शायद डॉक्टरों के नाम लिखे थे, शायद दानवीरों के नामों की फेहरिस्त थी। वह सोचने लगा… लोग दान भी देते हैं और अपना डंका भी बजवाना चाहते हैं। मन्दिरों में भी पंखे दान करते हैं तो उन पर नाम लिखवा देते हैं। पंखों के साथ नाम भी लगातार घूमते रहते हैं।

फिर उसके मन के किसी कोने से आवाज आयी मैंने कभी दान नहीं दिया… शायद इसीलिए मुझे ईर्ष्या हो रही है… कमाई में से कुछ न कुछ निकाल देना तो भारतीय जीवन-पद्धति का स्वभाव रहा है।
उसे अपने आप पर कोफ्त हुई।

तभी किसी ने आवाज दी… बाबा, आ जाओ, बैठ जाओ… कोई कुर्सी खाली हुई थी। वह पहराने से गद्दी जान पड़ता था।
वह बैठ गया था… एकदम चुप चुप। वह आस-पास की गतिविधियों को देख रहा था… कोई इधर से उधर जा रहा था… और किसी-किसी ने आंखों पर काले चश्मे पहन रखे थे।
थोड़ी-थोड़ी देर बाद डॉक्टर के कक्ष से एक महिला पर्चियां लेकर बाहर निकलती और पुकारने लगती… सन्तो देवी, बन्ता सिंह, रलू राम, हरनामो, इन्दरो, बाबू राम… अपना-अपना नाम सुनकर लोग डॉक्टर के कक्ष में पंक्तिबद्ध होकर जाने लगे।
और दरवाजा बन्द हो जाता।
***
वह सुबह तीन बजे ही उठ गया था। उसका घर सड़क से तीन किलोमीटर दूर पहाड़ी पर था… घटासनी से बरोट को सड़क जाती थी… आठ हजार फुट की ऊंचाई। सदा ठण्डी-ठण्डी धुंध छायी रहती है और अंग्रेजों की हिम्मत देखो – जोगिन्द नगर से बरोट तक रेल की पटरी बिछा दी… एकदम स्टीप स्लोप पर… पर न बाबा न… मेथरी को तो उस पर डर लगता था। पैदल वह घोड़े की तरह चल सकता था।
वह तेज-तेज चल रहा था परन्तु आज उसे धुंधला-धुंधला लग रहा था। शायद ठण्ड की वजह से धुंध छायी हुई है। उसने पहले कभी ऐसा महसूस नहीं किया था। उसकी आम धारणा थी कि आंखों का क्या है? जब तक दिखायी देता है, इनकी परवाह करने की जरूरत नहीं… लेकिन आजकल उसे देखने-पहचानने में दिक्कत होने लगी थी।

गांव में कोई डॉक्टर नहीं था। छोटी-मोटी बीमारी के लिए देसी इलाज चल जाता था। लोग पण्डित घनश्याम को ही हकीम मानते थे।
उन्हें जड़ी-बूटियों का अच्छा ज्ञान था… परन्तु आंख के लिए ज्यादा दवाइयां नहीं थीं… आंवला खाओ… और आंख की रोशनी बढ़ाओ… यह आम कहावत थी।

शरीर में थोड़ी भी गड़बड़ हो जाये, तो उपचार की अपेक्षा होती है। बिना आंख के भी जिन्दगी क्या है? गांव में दीनू अन्धा था… उसे सब इसी नाम से पुकारते थे। उसकी दोनों आंखों में रोशनी नहीं थी, परन्तु वह आवाज से सबको पहचान लेता था… गांव के बच्चे उस पर हंसते थे… मेथरी भी हंसता था… उसकी सोठी उठाकर इधर-उधर रख देते। अब मेथरी को लगता है कि थोड़े ही दिनों में गांव के बच्चे उसे भी अंधा मेथरी कहकर छेड़ेंगे। सोचकर वह पगला उठा… और तेज-तेज चलने लगा।

बस अड्डे तक पहुंचने में उसे दो घण्टे लग गये। वह बिना खाये-पिये आ गया था। बरोट से मारण्डा-पालमपुर पहुंचने में दो घण्टे और लग गये।
सुबह के नौ ही बज गये थे, जब वह अस्पताल में पहुंचा। इतनी भीड़… कितना समय लगेगा… लेकिन वह खुश था कि आंखों का इतना बड़ा अस्पताल पहाड़ में खुल गया था… भला हो उस दानवीर का जिसने अस्पताल के लिए पांच कनाल जमीन मुफ्त दे दी… वह बड़े गुर्दे वाला होगा, उसने सोचा, नहीं तो आज कोई एक इंच जमीन भी छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता। कितने लोग यहां बैठे स्वास्थ्य सुख-लाभ कर रहे हैं, वह दानवीर के प्रति मन ही मन नतमस्तक हो गया।

फिन्टू गिड़गिड़ाता रहा था… बापू, मुझे चण्डीगढ़ ले चलो। यहां तो मैं ऐसे ही मर जाऊंगा।
मेथरी को लगा… उसकी आवाज कानों को फाड़ देगी। सोचकर ही उसके शरीर में करंट दौड़ गया। वह अपने ही बच्चे के लिए कसाई बन गया था… मेमने का आंतर्नाद … और कसाई का वार। बाप ही बूचर बन गया था।

अरे, यह क्या हो गया? वह चलता है, तो उसे जमीन की ऊंच-नीच का पता ही नहीं चलता। पांव ऊपर-नीचे हो जाते हैं और वह लड़खड़ा जाता है। उसे अजीब-सा लगता। सो पिछली रात उसने निश्चय कर लिया था कि वह अपनी आंखों की जांच करवा के आएगा।
गांव में कोई कह रहा था… बड़ा डॉक्टर नब्बे हजार रुपये महीना तनखाह लेता है। अमेरिका से पढ़कर आया है। देखते ही रोग पहचान लेता है। साथ ही कुर्सी पर बैठे एक बुजुर्ग ने पूछा- कहां से आये हो? झझेड़ी से। यह बरोट से ऊपर है। एक दिन ही खराब हो जाता है। अब ठीक जगह आ गये हो। डॉक्टर के हाथ में कुछ खास है। अन्धे भी देखने लगते हैं।

आपकी आंख में क्या गड़बड़ है? मेथरी ने पूछा
आंख की नस सूख गयी है।
नस भी सूख जाती है मथरी डर गया। उसने आंखें बन्द कीं और देखने का प्रयत्न किया। अन्धकार में डुबकी कितनी भयावह होती है। कोई ओर-छोर न दिखायी दे… किश्ती भटक जाये और किनारा न मिले… छप… छप… सागर में डूबता हुआ जीव… जिजीविषा में भीगा प्राणी… छप… छप… छपाक्।

‘पता ही नहीं चलता… नस कब सूख जाती है… खून का संचार बन्द हो जाता है, तो दिखायी देना बन्द हो जाता है… अन्धकार ही अन्धकार!… कोई इलाज नहीं होता… लाइलाज?’
‘दुनिया इतनी बदल गयी है। वे तो कहते हैं बड़ी तरक्की हुई है। फिर इलाज क्यों नहीं होता?’
‘अगर कोई समय पर परख ही न करवाये… तो मृत शरीर में प्राण कैसे फूंके जा सकते हैं। नस ही सूख जाये… वृक्ष की डाली सूख जाये… उसमें पुन: रक्त-संचार कैसे हो सकता है।’

‘ओह मैंने तो कभी चैक-अप करवाया ही नहीं’, झेपते हुए मेथरी ने कहा।
‘जरूरत नहीं पड़ी होगी।’
‘मैंने कौन से पोथे बांचने थे। भेड़-बकरियों को हुश-हुश ही तो करना होता है। ‘…परन्तु अब परेशानी होती है। शकलें पहचानना मुश्किल है।’ वह बुझा बुझा सा बोला।
सुबह से कुछ खाया नहीं था। पेट में ज्वाला फफक रही थी। दो ग्रास ही मिल जाते। आसपास बैठे कुछ लोग बीच-बीच में कुछ खा रहे थे। वह यदि खा रहा होता, तो कम से कम पास वाले को तो पूछता ही। वैसे जो टूरिस्ट उसके गांव में घूमने आते, वे तो अपना-अपना खाते रहते थे। शायद यह अपनी-अपनी संस्कृतियों का अन्तर है।

मेथरी की भूख भड़क रही थी परन्तु वह जीभ लपलपा कर रह गया।
कोई कह रहा था… मैंने कभी आंखों की ओर ध्यान ही नहीं दिया। अब याद आता है रेल में, सड़क पर भीख मांगने वाले किस प्रकार आंख की महिमा का बखान करते थे… आंख है, तो जहान है, पहचानोे आंख अनमोल है… और अब आंख की पोटली में दर्द हुआ तो पता चला… आंख क्या होती है… और चसचस पड़ती चीस क्या होती है।
‘क्यों भाई? इतने परेशान क्यों हो?’ मेथरी से रहा नहीं गया।
‘कभी आंख में परेशानी हो, तो दादी-नानी या बड़े-बूढ़े कहते थे गुलाब जल डाल लो, शहद की बूंद डाल लो… अब तो… अब तो… छोटी-छोटी बात के लिए आप्रेशन… और इतना महंगा।’ कहकर वह चुप हो गया था।
क्षणभर के लिए सन्नाटा पसर गया।

‘अरे सस्ते-महंगे की बात तो छोड़ दो। तुम नहीं जानते यदि एक बार आप्रेशन खराब हो जाये, तो बस भटकते रहो। यहां कहते हैं बहुत अच्छे डॉक्टर हैं। मैं उत्तराखण्ड से आया हूं। चौथी बार आप्रेशन होगा… शायद थोड़ी-बहुत बिनाई लौट आये।’ एक बुजुर्ग कह रहा था।
अस्पताल की प्रशंसा से मेथरी चमक उठा।
पोटली के दर्द से परेशान पहला व्यक्ति फिर बोला- सब डॉक्टर एक जैसे नहीं होते। कोई-कोई तो सेवा में ही मेवा ढूंढ़ते हैं और कोई-कोई खाल उधे़डने को तत्पर रहते हैं। मैं सबसे पहले जिस डॉक्टर के पास गया, उसने जांच करने के तुरन्त बाद कहा- दस हजार रुपया जमा करवा दो, आज ही आप्रेशन कर दूंगा।… मैं तो वहां से चुपचाप खिसक आया।

यहां अस्पताल में हर रोज चार-पांच सौ मरीज आते हैं… तो चैक-अप में समय लगता है। जांच चाहे छोटी हो या बड़ी नम्बर से ही बारी आती है। सो सुस्ता रहे मरीज अपने-अपने किस्से सुनाते रहते हैं। उनका समय भी बीत जाता है और सूचनाएं भी प्रसारित हो जाती हैं।
एक अन्य व्यक्ति कह रहा था… मुझे किसी ने सुझाया आंख का मामला है, एक ही जांच पर निर्भर नहीं करना चाहिए। दूसरे अस्पताल में भी दिखा लेना चाहिए। मैं डर गया। दिल्ली के एक नामी अस्पताल में चला गया… लिखा तो नि: शुल्क जांच था परन्तु, पर्ची ही पांच सौ की बनी… मुझे लगा कहीं कुछ मुफ्त नहीं होता… कान इधर से न पकड़ा, उधर से पकड़ लिया… मैं पर्ची लेकर ही लौट आया।
मैं तो किसान हूंंंंं यह तो सरकारी पेंशनर्स को ही सुविधा है। पेंशन भी मिलती रहेगी… और चिकित्सा भी नि:शुल्क। किसान तो कभी आसमान को देखता है और कभी बाजार को। जो कमाये जा, वही खाये जा… दिहाड़ीदार मजदूर… मेथरी ने सोचा। उसके दिमाग में अंगारे सुलग रहे थे। समानता की बात करते हैं ससुरे।

मेथरी को लगा फिन्टू सही कहता था… मैं ही नहीं रहूंगा तो जमीन किस काम की। संतान तो संतान ही होती है। लेकिन मैं इतना निष्ठुर कैसे हो गया… यहां बैठे ज्यादातर लोग भी तो उसी वर्ग से आते हैं… सुबह कमाओ तो शाम को खाओ… इन्हें कोई भी बीमारी मौत की तरह आती है।

उसे लगा दुनिया भर के रोगी उसी अस्पताल में आ गये थे। ऐंगे… भैंगे… अजीब-अजीब शक्लों वाले लोग… उफनती हुई आंखें… बाहर लटकी हुई आंखें… मानो किसी आगे से लटकायी गयी हों।

भीड़ छंटने लगी थी। धीरे-धीरे इक्का-दुक्का लोग ही वहां रह गये। मेथरी राम अभी वहीं बैठा था। एक… दो… तीन बज गये। किसी ने उसका नाम नहीं पुकारा। फिर वह उठकर डॉक्टर के कक्ष की ओर गया। उसने डरते-डरते दरवाजा खोला… अन्दर कोई नहीं था। उसने दरवाजा बन्द कर दिया।

फिर वह दूसरे कमरे में गया। वहां टेबल लैम्प जल रहा था, लेकिन अन्दर कोई नहीं था। उसे वापिस गांव पहुंचना था। यह उसके लिए अजनबी शहर था… प्राय: गांव के लोग दिन में आकर काम करके सायं वापिस लौट जाते हैं। वह कहां ठहरेगा… होटल तो बड़े महंगे होंगे। उसकी जेब में तो बीस-पचास रुपये ही होंगे… क्या वह अपनी जमीन को जेब में लेकर चल सकता है? यह प्रश्न फिन्टू ने भी किया था।
इतनी जमीन-जायदाद… बड़े-बड़े खेत… परन्तु वह सुबह से भूखा था… और यहां अस्पताल में भी उसकी बारी ही नहीं आयी। व्यर्थ हो गया दिन… उसे लगा वह राक्षस डॉक्टर ही बेहतर था… जो रोगियों का तुरन्त आप्रेशन करके घर भेज देता है… राक्षस और देवता… आदमी आदमी में कितना अन्तर होता है… और फिर अपने लिए मानदण्ड कुछ और और दूसरे के लिए कुछ और… शायद स्वार्थ हावी हो जाता है।
फिन्टू अभी अठाईस का भी नहीं हुआ था। मेथरी सोच कर ही कांप उठा… कैसे गिड़गिड़ा रहा था… जैसे कोई मेमना कटने के अहसास से मिमिया उठा हो। फिन्टू रिरियाता रहा था… बापू मैं मर जाऊंगा… मुझे बचा लो…. बाद में कुछ नहीं हो सकेगा।

उसकी आंखों से पानी टप-टप गिरने लगा। कितना तड़प रहा था उसका बेटा… चैक-अप में पता चला था… उसके दोनों गुर्दे खराब हो गये थे। परिवार में कोई गुर्दा देने को तैयार नहीं था… सभी को अपनी अपनी जान प्यारी थी… गुर्दा खरीद कर लगवाया जा सकता था, परन्तु दो-तीन लाख का खर्च था… तीन बेटे… यदि एक को गुर्दा लगवा भी दिया… तो भी बचेगा क्या? बहुत से ऐसे केस हुए हैं कि गुर्दा ठीक नहीं बैठता… शरीर स्वीकार नहीं करता… फिर सब व्यर्थ हो जाता है।

मेथरी राम ने अपने बेटों से परामर्श किया था… एक ने कहा… जमीन आपने बेचनी है, यह निर्णय तो आपने ही करना है। दूसरे बेटे ने कहा… देसी इलाज करवा लो। गुर्दा बदलने की कवायद में तो सब कुछ बिक जाएगा। कभी सुना नहीं कि गांव में किसी ने गुर्दा लगवाया हो।
पिता का असमंजस स्पष्ट झलक रहा था। एक तरफ फिन्टू का दर्द था, उसकी जिजीविषा थी… दूसरी ओर सब कुछ बिक जाने का भय। इन्सान सही वक्त पर निर्णय न ले सके, तो भी सब गड़बड़ा जाता है। तभी एक महिला ने आकर कहा… भाई जी, आप क्यों बैठे हो?
मेथरी राम की तन्द्रा टूटी। बोला… मैंने आंखों का चैक-अप करवाना है।

‘दिखाओ पर्ची।’
‘कौन सी पर्ची।’
‘बाबा। सुबह से बैठे हो, पर्ची बनवायी नहीं। अब कल आना।’
‘कल?’
‘हां, कल… और आते ही पर्ची बनवा लेना।’

पर्ची… पांच की.. पचास की… पांच सौ की… उसकी आंखों में वह व्यक्ति घूम गया… जो दूसरे डॉक्टर की ओपिनियन के चक्कर में दिल्ली चला गया था। और बिना चैक-अप के ही भाग आया था।

‘जी।’ कहकर मेथरी राम उठ खड़ा हुआ। उसे लगा वह असहाय था, विवश था… और उसका मन फिन्टू की भांति चिल्लाने को हुआ… बापू… मैं नहीं बचूंगा… तो जमीन भी नहीं बचेगी… क्या इसे जेब में डालकर उस पार ले जाओगे… वह चिधियाता रहा था… उसे लगा… वह अपने बेटे फिन्टू को लेकर चण्डीगढ़ जा रहा था… जल्दी ही डॉक्टर उसे देखेगा और संजीवनी दे देगा… तभी उसे लगा… फिन्टू कह रहा था.. अलविदा, बापू… मैं जा रहा हूं… तुम जानते थे… मैंने जाना ही था।

अस्पताल के कारीडोर में मेथरी राम मेमने की तरह रिरिया उठा। फिन्टू की आवाज उसकी परेशानी में विलीन से गयी।

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