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दस साल की अधोगति

दस साल की अधोगति

by गंगाधर ढोबले
in आर्थिक, दिसंबर -२०१३, सामाजिक
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वर्ष 2013 के विदा लेते समय देश की कुल स्थिति पर गौर करना लाजिमी है, क्योंकि अगले वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव आने वाले हैं और देश को अपनी सरकार चुननी है। पिछले दस वर्षों में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए ने राजकाज चलाया है। यह मौका है कि मतदाता यूपीए के खाते का अवलोकन करें। हर क्षेत्र के पन्ने पलटिए तो खाते कोरे के कोरे ही दिखाई देंगे। यही नहीं, कई क्षेत्रों में तो बदइंतजामी इतनी है कि देश उसके नकारात्मक पहलू झेलने को मजबूर है। देश गति नहीं अधोगति पा रहा है। मंगल अभियान जैसी एकाध कोई खुशखबरी छोड़ दी जाए तो अन्य उल्लेख करने वाली कोई चीज नहीं मिलेगी।

आर्थिक, शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति, सामाजिक सुरक्षा, विदेश नीति, रक्षा प्रबंध, मानव संसाधन, रेल्वे, पेट्रोलियम आदि सभी क्षेत्रों में देश दब्बू व पंगु बना दिखाई देता है। सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार, भाईभतीजावाद, झीनाझपटी, सिरफुटव्वल का माहौल है। विकास का अर्थ ही शायद हम भूल गए हैं। सम्यक विकास की बात तो दूर ही है। विकास का सरल अर्थ है ऐसा माहौल बने कि आम आदमी का कचूमर न निकले, उसे सुरक्षा और न्याय मिले। महंगाई चक्की के दानों से भी ज्यादा आम आदमी की पिसाई कर रही है, सुरक्षा का कोई भरोसा नहीं रहा है और जल्दी और उचित न्याय दिवास्वप्न बनता जा रहा है। आइये, पिछले दस सालों में हम कहां थे और अब कहां है इस पर गौर करें।

आर्थिक स्थिति

अर्थव्यवस्था की हालत कैसी बदतर हो रही है इसका संकेत एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन से मिल जाता है। लंदन की लेगातम इंस्टीट्यूट का यह अध्ययन है। इस अध्ययन में विश्व के 142 देशों को विकास के क्रम में रखा गया है। इस विकास क्रम को वे ‘प्रास्परिटी इंडेक्स’ कहते हैं। समझने के लिए इसे हम विकास सूचकांक कह सकते हैं। इससे यह संकेत मिल जाता है कि अर्थव्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा आदि श्रेणियों में देश किसी सीढ़ी पर है। इस अध्ययन का चौंकाने वाला तथ्य यह है कि हम इस मामले में श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश से भी पिछड़ गए हैं। इस क्रम में भारत इस वर्ष 106वें क्रमांक पर खिसक गया है, जबकि पिछले वर्ष वह 101वें स्थान पर था। हमारे पड़ोसियों में चीन 51वें, श्रीलंका 60वें, नेपाल 102वें और बांग्लादेश 103वें स्थान पर है। ये आंकड़ें बहुत कुछ बोलते हैं। चीनी अर्थव्यवस्था से भले हम तुलना न करें, लेकिन श्रीलंका, नेपाल व बांग्लादेश से भी हम पिछड़ जाय यह गंभीरता से सोचने वाली बात है। यह खतरे की घंटी है। यूपीए के (कु) शासन का यह फल है! इसे समझने के लिए यूपीए के हाथ की रेखाएं पढ़ने के लिए किसी ज्योतिषी को बुलाने की आवश्यकता भी नहीं है। महज विदेशी अध्ययन मानकर इसे नकारा नहीं जा सकता; क्योंकि रिजर्व बैंक के सर्वेक्षण के आंकड़ें भी इसे कमोबेश में स्वीकार करते हैं।

आर्थिक विकास के इन आंकड़ों को देखिए- सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जीडीपी की दर ही अर्थव्यवस्था की विकास दर मानी जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि अर्थव्यवस्था किस दर से बढ़ रही है। दस साल पहले 2004 में यह दर 6.2 प्रतिशत थी, जो इस वर्ष 4.4 प्रतिशत के आसपास रहने की उम्मीद है। बीच के तीन वर्ष वह 9 से 10 प्रतिशत के बीच रही। दस साल में इस दर में इतने तेजी से चढ़ाव-उतार यूपीए की आर्थिक नीतियों की अदूरदर्शिता और निर्णय पंगुता को स्पष्ट उजागर करती है। मार्के की एक और बात यह है कि इस वर्ष कृषि की वृद्धि दर का लगभग दुगुना योगदान है। इसे घटा दिया जाए तो जीडीपी दर और कहो जाएगी। उद्योग अर्थात विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर दस साल पहले 3.5 प्रतिशत थी, जो इस वर्ष1.2 प्रतिशत के आसपास रहने की संभावना है। मतलब उद्योग क्षेत्र में दस वर्षों में निराशा ही रही। सेवा क्षेत्र में भी वृद्धि दर घटकर इस वर्ष 6.2 प्रतिशत रहने की संभावना है। बेरोजगारों की संख्या वार्षिक 2.5 प्रतिशत वृद्धि दर दर्ज करती थी। सितम्बर 2002 में यह दर 5.7 प्रतिशत थी, जो मई 2013 में 7.2 प्रतिशत हो गई। अर्थात बेरोजगारी बढ़ गई, लेकिन कोई उसका वाली नहीं है। राजनीतिक दल भी इस मुद्दे पर कुछ बोलते नहीं हैं। भारत पर जो कुल कर्ज है उसे हर व्यक्ति पर बांटा जाए तो वह प्रति व्यक्ति कर्ज 33 हजार रु. होगा। यह 2012 का आंकड़ा है, उससे एक साल पहले ही वह 26 हजार 600 रु. था। यह इस बात का संकेत है कि यूपीए के जमाने में हर नागरिक किस तरह कर्ज के बोझ तले दबता जा रहा है। महंगाई की दर को ही ले लीजिए। सन 2005 में वह औसत 5.5 प्रतिशत थी, जो 2011-12 में 8.95 प्रतिशत हो गई और आज तो वह 10 फीसदी के ऊपर हो गई है। थोक मूल्यों के आधार पर यह संख्या निकाली जाती है, जबकि आप-हमारा जिस फुटकर बाजार से सम्बंध आता है वहां वह इससे भी अधिक रही। पेट्रोल-डीजल आदि में वह 11.9 प्रतिशत से उछल कर 14 प्रतिशत तक हो गई और हमारी अर्थव्यवस्था तेल आधारित होने से फुटकर बाजार में कीमतों में और उछाल आया और आम नागरिकों का जीना दूभर हो गया। सब्जियों का तो कहना ही क्या! वह दिन-दूनी रात चौगुनी कुलांचे मार रही है।

इसी तरह वित्तीय घाटा 5 प्रतिशत या उससे अधिक रहने का अंदाजा है। वित्तीय घाटे का माने यह है कि जितना करों के रूप में हमारे पास आता है उससे अधिक खर्च करना पड़ता है। इस तरह आवक और जावक के अंतर को पाटने के लिए नोट छापने पड़ते हैं। इस तरह प्रचलन में अधिक नोट आने से मुद्रा का मूल्य घट जाता है, चीजों के दाम बढ़ते हैं। अधिक मुद्रा प्रसार और उसके मुकाबले उत्पादन में कमी आना या उसका स्थिर रहना महंगाई को जन्म देता है। इसकी आग में हम सभी झुलस रहे हैं। यूपीए की इस सौगात ने हम सभी को परेशान कर दिया है।

क्रूड तेल के आयात पर बढ़ते खर्च को रोकने के लिए पेट्रोल, डीजल, गैस के मूल्यों को खुला कर दिया है। कहते हैं कि तेल पर सब्सिडी घटाने के लिए ऐसा किया गया है। मतलब यह कि सरकारी खर्चे से जो रियायत मिलती थी, वह अब नहीं मिलती और सीधे हमारी जेब कुतरी जाती है। तेल कम्पनियां जब तब दाम बढ़ा देती हैं। कब मूल्य बढ़ेंगे इसका कोई अंदाजा नहीं होता। ‘मुक्त तेल मूल्य’ का मजाक देखिए कि दो-तीन रुपये भाव बढ़ते हैं कई बार और एकाध बार 25-50 पैसे उतर जाते हैं, फिर दो-तीन रुपए बढ़ा दिए जाते हैं! क्या ‘खूब बढ़ाना और कभीकभार नगण्य उतारना’ ही ‘मुक्त मूल्य नीति’ है? शेयर बाजार में आने वाले विदेशी धन पर निर्भरता से बाजार छुईमुई हो जाते हैं। बाजार की इस अनिश्चितता से नया निवेश संकट में पड़ गया है और कई छोटे निवेशक अपने हाथ जला चुके हैं। बैंकों का धन महज भवन निर्माण और आटो उद्योग में ग्राहकों को ॠण देने में जा रहा है। वह उत्पादक कार्यों की ओर कम मुड़ रहा है। इससे कभी भी भट्टा बैठ सकता है, और अमेरिका में जिस तरह ‘सब प्राइम संकट’ आया था उस स्थिति की संभावना बनती है। मनमोहन सिंह, चिदम्बरम जैसे अर्थवेत्ता होने के बावजूद अर्थव्यवस्था दिशा नहीं पा रही है यह सरकार और कांग्रेस की सब से बड़ी विफलता है।

घोटाले

पिछले दस वर्षों में आर्थिक घोटालों की बाढ़ आ गई है। 2जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल, कोयला, रेल्वे बोर्ड में उच्च स्थान पाने के लिए भ्रष्टाचार जैसे कई घोटाले हैं। कई दिग्गज मंत्री, नेता इसकी चपेट में हैं। ये मामले वर्षों चलने वाले हैं। हमारी न्यायिक प्रक्रिया बहुत लम्बी है। तारीख पर तारीख और बाद में कोर्ट के बाद कोर्ट के कारण मामले बहुत लम्बे चलते हैं। अव्वल तो बहुत छूट जाते हैं, फिर भी अंत में कुछ लोगों को सजा हो जाती है यह एक सकारात्मक पक्ष है। स्पेक्ट्रम घोटाले में ए. राजा के पूर्व तत्कालीन संचार मंत्री सुखराम भी फंसे थे और उन्हें वृद्धावस्था के बावजूद जेल जाना पड़ा। चारा घोटाले में लालू उलझे और पंद्रह साल की मुकदमेबाजी के बाद अंत में उन्हें सजा हो गई। देर ही सही परंतु कानून ने अपना काम किया। लेकिन मायावती के ताज कारिडोर मामले में वह बरी हो गई। आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में भी वह पकड़ में नहीं आईं और बच गईं। अब आयकर विभाग ने उनके भाई के 400 करोड़ रु. के सील खातों को खोल देने की तैयारी शुरू कर दी है। मायावती को कांग्रेस और यूपीए के समर्थन का यह पुरस्कार है। सपा के मुलायम सिंह के खिलाफ भी ऐसे ही मुकदमें हैं। मजबूरन उन्हें कांग्रेस का समर्थन करना पड़ रहा है। कई विरोधियों के खिलाफ सीबीआई को लगा दिया गया है, यह बात छिपी नहीं है। सत्ता के लिए सत्ता का दुरुपयोग करने की यह ‘कांग्रेस संस्कृति’ पिछले दस सालों में और पनपी है।

राजनीतिक स्थिति

देश में राजनीतिक स्थिति अराजकता की कगार पर है। सत्ता में बने रहने की कसरत के कारण कांग्रेस किसी भी तरह के समझौते कराने से नहीं कतराती। कल तक जो उसके संगीसाथी थे वे भी एक-एक कर बिखर रहे हैं। माकपा ने उसका साथ छोड़ दिया। तृणमूल कांग्रेस भी हट गई है। सपा व बसपा अपनी मजबूरियों के कारण बाहर से सरकार का समर्थन कर रही है। द्रमुक के साथ रिश्ते खराब हो गए हैं और अन्ना-द्रमुक से पटरी बैठायी जा रही है। अन्ना-द्रमुक की जयललिता को खुश करने के लिए और तमिल समर्थन का चित्र उपस्थ्ति करने के लिए श्रीलंका में आयोजित राष्ट्रमंडल की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जाने से इनकार कर दिया। उधर, भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में बिखराव आ गया। पहले बिजू पटनायक ने नन्नी की, अब नीतिश कुमार ने भी अलग राग अलापा है। मुख्य मुद्दा था भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी का नामांकन। इसे लेकर दलगत स्तर पर भी विरोध उभरे, लेकिन अंत में नेतृत्व के निर्णय को सभी ने स्वीकार कर लिया। अब भाजपा व कांग्रेस दोनों के विरोध में तीसरा मोर्चा गठित करने की माकपा व नीतिश कुमार अगुवाई कर रहे हैं। बसपा भी संभावना की तलाश में है। शरद पवार की पार्टी राकांपा का प्रतिनिधि भी इस बैठक में पहुंचा। लेकिन पवार जिस तरह हमेशा मेड़ पर बैठकर खेल करते हैं उसे जानने वालों को इससे कोई आश्चर्य नहीं लगा। क्षेत्रीय दल अपने क्षेत्र तक ही सीमित हैं। उन्हें किसी न किसी राष्ट्रीय दल के साथ जाना ही होगा। इस बिखराव की राजनीति से भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है। कांग्रेस में और कथित तीसरे मोर्चे के दलों में आंतरिक बिखराव को देखें तो भाजपा ही ऐसा राष्ट्रीय दल है जो सुगठित है और अपने देशहित के कार्यक्रमों के बल पर खड़ा है।

सामाजिक सुरक्षा

सामाजिक सुरक्षा चिंता का विषय बन गया है। इसका ताजा उदाहरण दिल्ली का निर्भया और मुंबई का शक्ति मिल कम्पाउंड सामूहिक बलात्कार काण्ड है। हाल में केरल में एक कांग्रेसी सांसद ने एक फिल्म अभिनेत्री से छेड़छाड़ की। मामला पुलिस तक पहुंचा, लेकिन मुख्यमंत्री ओमन चंडी के हस्तक्षेप के बाद अभिनेत्री ने मामला वापस ले लिया। ये केवल मिसालें हैं कि महिलाएं किस तरह असुरक्षित बन गई हैं। प्रचार में न आए या दर्ज न हुए ऐसे असंख्य मामले हैं। असल में, नागरिकों की सुरक्षा यह सरकार का प्रथम दायित्व है। पिछले दस वर्षों की बात करें तो सामाजिक सुरक्षा में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। कई सामाजिक संस्थानों के अध्ययनों में इस बात का जिक्र है। संकट आने तक सरकार सोती रहती है और बाद में आनन-फानन में कदम उठाती है। सामूहिक बलात्कार को रोकने के लिए द्रुत गति न्यायालय बनाने और कानून कड़ा कर देने भर से यह काम नहीं होने वाला है। उसकी सीमाएं हैं। यह इस बात से स्पष्ट है कि महिला उत्पीड़न और बलात्कार से सम्बंधित 24 हजार से अधिक मामले आज भी न्यायालयों के पड़े हैं। जिन मामलों में होहल्ला ज्यादा हो जाता है वहां कुछ कदम अवश्य उठाए जाते हैं, लेकिन ग्रामीण इलाकों में हालत बदतर है। निसंदेह यह यूपीए के दस साल के शासन की विफलता है, लेकिन इससे यह संकेत भी मिलता है कि आने वाली सरकार को इस दिशा में एक समन्वित न्याय नीति का अवलम्ब करना होगा।
न्यायपालिका के क्षेत्र में एक और उल्लेखनीय बात यह है कि अदालतों में मामलों के अम्बार लगे हैं। देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में सवा 3 करोड़ से अधिक और उच्चतम न्यायालय में 50 हजार से अधिक मामले पड़े हैं। जितने मामले निपटाए जाते हैं उसके मुकाबले अधिक नए मामले आ जाते हैं। निजली अदालतों में पड़े मामलों पर गौर करें तो यह संख्या बहुत बड़ी हो जाएगी। यह बड़ी समस्या है। पिछले दस वर्षों में इसके लिए किए गए प्रयास बेहद अधूरे रहे हैं। न्याय न मिलना और देरी से मिलना दोनों खतरनाक बातें हैं।

विदेश नीति

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानो हमारा कोई मित्र ही नहीं रहा। आसपड़ोस में भी स्थिति ठीक नहीं है। पाकिस्तान और चीन के तेवर वैसे ही बने हुए हैं और बातचीत की जुगाली चलती रहती है। अफगानिस्तान से अगले वर्ष अमेरिकी फौज हटने के बाद पाकिस्तान समर्थक तालिबान की ताकत और बढ़ जाएगी और कश्मीर में घुसपैठ अधिक होगी। भूटान पर चीनी नजर है और श्रीलंका में भी चीनी परियोजनाएं चलाने की कोशिश हो रही है। बांग्लादेश भी हमारे अनुकूल नहीं दिखाई दे रहा है। अमेरिका इस समय दुनिया में इकलौती ताकत है। उसके अपने हित हैं। इसलिए वह पाकिस्तान को धमकाने का एक ओर दिखावा करता है तो दूसरी और उसे भारी आर्थिक सहायता देता है। आतंकवादियों का संकट हो, 26/11 का मुंबई हमला हो, ब्रह्मपुत्र पर चीन के बांध हो, पाकिस्तान की घुसपैठ हो या बांग्लादेश का हमारे सैनिकों को धमकाना हो कहीं पर भी हमारी सरकार की ठोस नीति परिलक्षित नहीं होती।

ये केवल उदाहरण हैं। देश किस ओर जा रहा है इसका संकेत भर है। हर क्षेत्र की हालत का विवेचन करना भी इस संक्षिप्त लेख में संभव नहीं है। उसके लिए तो कई ग्रंथ कम पड़ जाएंगे।

संकट का समय

देश की इस गंभीर स्थिति में परिवर्तन करना भी हमारे ही हाथ में है और 2014 के चुनाव के रूप में हमारी राह देख रहा है। लोग कांग्रेस का 65 साल तक शासन देख चुके हैं और इसलिए भाजपा को भी मौका देना चाहते हैं। इसीलिए इस समय चारों ओर भाजपा और नरेंद्र मोदी की हवा दिख रही है। नरेंद्र मोदी के कारण चुनाव के नगाड़े इस बार बहुत पहले से बज रहे हैं। चुनाव तक यह हवा बनी रहे यह जरूरी है। इसलिए कार्यकर्ताओं को मुगालते में नहीं रहना चाहिए। यह सदा ध्यान रहना चाहिए कि घड़ी संकट की है और सोते रहने से नहीं चलेगा। राजनीति में धर्म-अधर्म जैसी कोई बात नहीं होती, बात होती है केवल जीतना।
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