मिहरे-नीम रोज़ मिर्ज़ा ग़ालिब

दिले-नादां तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है…

 

शायरी पसंद करनेवाला शायद ही कोई हो जिसे ग़ालिब का यह शेर पता न हो। हृदय में जागृत हुए प्रेम के दुख से व्याकुल कवि के ये उद्गार मन को ‘स्पर्श’ कर जाते है। प्रेम कवि के मन को इतनी पीड़ा देता है कि वह किसी भी तरह कम नहीं होती। मिलन से भी नहीं। मिलन के क्षणों में भी यही दुख सताता रहता है कि यह क्षण समाप्त हो जायेंगे। फिर से वियोग हो जायेगा। इस व्याकुल अवस्था में सुख के वे पल भी पूर्ण रूप से व्यतीत नहीं हो पाते। इस दुख का क्या कोई इलाज नहीं है? क्या इस पर कोई दवा नहीं है? और अगर ऐसी कोई दवा मिल भी गई तो भी-

दर्द मिन्नत कशे-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ।

प्रेम का यह रोग इस हालत तक पहुंच गया है कि इस पर किसी दवा का असर नहीं होता। मैं रोग से ठीक नहीं हुआ यह भी अच्छा ही हुआ क्योंकि ‘ठीक होना’ अर्थात प्रेम से बाहर निकलना मुझे मंजूर नहीं है। मिलन रुपी दवा भी अब काम नहीं करेगी इतना यह दुख बढ़ चुका है। तो फिर क्यों मै इस दवा का उपकार लूं?

इस शेर की गहराई में जब देखा जाता है तो पता चलता है कि क्यों ग़ालिब का नाम आज भी चमक रहा है। केवल दो और वह भी अत्यंत छोटी पंक्तियों में कवि कितना भाव संजोकर रखता है। इसके अलावा भाषा की सुंदरता तो है ही। मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ। इस पंक्ति में शब्द रचना का सौंदर्य अनोखा है।

ग़ालिब! मिर्ज़ा असदुल्लाखां ‘गालिब’! उर्दू भाषा के आकाश पर चमकने वाले (मिहरे-नीम रोज़) दोपहर के सूर्य के समान हैं जो कभी अस्त नहीं होगा। कविता की सुंदरता ऐसी है कि आज दो सौ वर्षों के बाद उसकी चमक कम नहीं हुई। सूर्य की किरणें जिस प्रकार संसार की प्रत्येक वस्तु को स्पर्श करती हैं उसी तरह गालिब का काव्य जीवन के प्रत्येक अंग को स्पर्श करता है और सूर्य की तरह अपने तेज को सार्थक करता है।

प्रेम के दुखद अनुभव के बाद कवि क्या महसूस करता है यह आगे शेर में प्रस्तुत किया गया है।

दहरमें ऩक्शे-वफ़ा वजह-तसल्ली न हुआ
है ये वो लफ़्ज़ जो शर्मिन्द-ए-मानी न हुआ

इस संसार में प्रेम कभी भी किसी के आनंद या संतोष का कारण नहीं बना। यह एक ऐसा खोखला शब्द है जिसे कोई अर्थ प्राप्त नहीं है और फिर भी वह अभी तक लज्जित नहीं हुआ।

अपनी जिंदगी में ग़ालिब ने केवल एक बार प्रेम किया। वह भी तब जब उसने अपनी आयु के केवल बीस वर्ष पूर्ण किये थे। तेहर वर्ष की उम्र में सभी परंपराओं के अनुसार किया गया विवाह भी उसके प्रेम के आडे नहीं आया। परंतु गालिब का यह प्रेम सफल नहीं हो पाया। उसकी प्रेमिका एक नर्तकी थी। उसके सान्निध्य में ग़ालिब का मन प्रफुल्लित हो उठता और उसकी कलम पर भी प्रेम की बहार आ जाती थी। दुर्भाग्य से इस प्रेम की अवधि बहुत छोटी थी। इस अनाम नर्तकी का जल्द ही निधन हो गया। ग़ालिब उसके लिये कहते हैं-

शर्मे-रुसवाई से जा छिपना निक़ाबे ख़ाक में
ख़त्म है उल्फ़त कि तुझ पर पर्दादारी हाय हाय

अर्थात, अपने प्रेम का रहस्य खुलने से बदनामी होगी इसलिये क्या तुमने इस मिट्टी के पर्दे के पीछे छिपना स्वीकार कर लिया? हाय! यह प्रेम किस काम का कि जिसके कारण तुम्हें ‘पर्दानशीन’ होना पडा।

गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ। जिस बाडे में उसका जन्म हुआ वहां अब एक विद्यालय है। ग़ालिब के पिता का नाम अब्दुल्ला बेग खान था। ग़ालिब जब पांच वर्ष काथा तभी उसके पिता का देहान्त हो गया था। कुछ समय उसका पालन पोषण करने के बाद 1806 में उसके चाचा का भी स्वर्गवास हो गया। उसके चाचा अंग्रेजों की नौकरी करते थे अत: उसे और उसके भाई को 1500 रुपये वार्षिक मिलते थे। आगरा में रहते हुए ही ग़ालिब को एक ईरानी शिक्षक से फारसी सीखने का अवसर मिला। आगे चलकर ग़ालिब फारसी का पंडित बन गया। उसने अनेक फारसी गझलें लिखीं। ‘दस्तंबो’ (अर्थात सुगंध) नामक एक फारसी ग्रंथ उसने लिखा जिसमें एक भी अरबी शब्द नहीं था। उसके द्वारा लिखे गये फारसी शेरों की संख्या 11300 है और उर्दू शेरोें की संख्या 1800 है। इससे उसके फारसी भाषा के प्रति लगाव को समझा जा सकता है।

गालिब के काव्य की कदर उसके जिंदा रहते नहीं की गई, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मोमिन, जौक़, सद्रुद्दिन आर्जुदा, शेफ़्ता आदि ग़ालिब के समकालीन थे। इनमें से मौमीन के अलावा किसी का भी कार्य उनके जीवित रहते प्रसिद्ध नहीं हुआ। ग़ालिब का ‘दीवान’ नामक काव्य संग्रह उनके जीवित रहते प्रकाशित हुआ और इतना ही नहीं, उसपर समीक्षा भी लिखी गई। वे ऐसे पहले उर्दू कवि थे, जिनके काव्य पर समीक्षा लिखी गई। इससे सिद्ध होता है कि उनके काव्य को काफी सराहा गया। एक और खास बात यह कि गालिब वे पहले उर्दू कवि थे जिनका फोटो निकाला गया था। फोटो उस जमाने में अनोखी और दुर्लभ वस्तु हुआ करती थी।

उन्हें अपने कवि होने के सामर्थ्य का अभिमान था। वे कहते थे-

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और

काव्य लिखने वाले और भी कई अच्छे कवि इस दुनिया में हैं, मैंने कब मना किया; परंतु ‘ग़ालिब’ की अभिव्यक्ति सबसे अलग है।
ऐसे कई उदाहरण हैं जहां ग़ालिब द्वारा एक ही शब्द का अलग-अलग अर्थ में प्रयोग किया गया है।

चाहिये अच्छों को जितना चाहिये
वो अगर चाहे, तो फिर क्या चाहिये?

आप अपने लिये चाहे जितनी अच्छी चीजों और लोगों की कामना करें और अगर इस कामनापूर्ति के लिये वो (ईश्वर) आप पर मेहरबान हो जाये तो और क्या चाहिये? खुद के काव्य का अभिमान करनेवाले ग़ालिब को जब यह पूछा जाता है कि उसमें काव्यगुण कैसे आये तो वह अत्यंत विनम्रता से यह श्रेय चौदहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो को देते हैं।

ग़ालिब तेरे क़लाम में क्यों कर मज़ा न हो?
पीता हूं धो के ख़ुस्रवे-शीरीं सुख़न के पांव।

ग़ालिब खुद से ही कहते हैं कि तेरे काव्य में गुण, मज़ा लुत्फ क्यों नहीं होगा? होगा ही क्योंकि अमीर खुसरो के काव्य के चरणामृत तूं सतत लेता रहता है।

सुंदर भाषाशैली के साथ ही अनेक गर्भितार्थवाले शेर ग़ालिब ने लिखे हैं।

कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देखकर घर याद आया।

यहां सभी ओर इतना वीरान और सूनसान जंगल फैला है कि उसे देखकर मुझे मेरा घर आ गया। यहां की वीरानी देखकर मुझे मेरे घर की याद आ गई कि जिस घर में मुझे सुख शांति मिलेगी। दूसरे अर्थ में यह वीरान जंगल देखकर मुझे मेरे घर की याद आ गई क्योंकि वो भी ऐसा ही उदास और भयानक जंगल की तरह है।

ग़ालिब ऐसे पहले कवि जिन्होंने अपने शेर में भगवान को प्रश्न किया है।

ना करदा गुनाहों की भी हसरत कि मिले दाद
या रब! अगर इन करदा गुनाहों की सज़ा है

हे भगवान! तूने मुझे मेरे गुनाहों की सज़ा दी है, जो मुझे स्वीकार हैं। इस बारे में मेरी कोई तकरार नहीं। परंतु जिन गुनाहों का केवल खयाल मेरे मन में आया पर मैंने वो किये नहीं, क्या उनके बारे में मुझे प्रशंसा या पुरस्कार नहीं मिलना चाहिये?
गालिब के काव्य में विषयों की विविधता दिखाई देती है। शराब, मदिरा, साकी से लेकर भगवान के स्मरण तक, इश्क से तसव्वुफ़ (सूफी तत्वज्ञान) तक सभी विषय गालिब के शेरों में आते हैं। परंतु केवल विविधता ही इसका सकारात्मक पहलू नहीं है। इस काव्य की उत्सुकता, हार्दिकता और अनुभूति की प्रभावी अभिव्यक्ति के कारण यह काव्य एक उत्तम दर्जे पर पहुंचता है। एक जगह वह अपने फारसी शेर में कहते हैं-

जख़्मावर तारे रगेजां मीज़नम्
कस चे दानद ता चे दस्तां मीज़नम्

मेरे जीवन की धमनीरुप तार पर मैं आघात कर रहा हूं। उससे मैं जो गीत गा रहा हूं उसे कौन समझेगा? केवल सहृदय मन वाला व्यक्ति ही उसे समझ सकता है।

प्रेमिका पर प्रेम करते समय भी ग़ालिब का स्वाभिमान जागृत था। इस बारे में उसे किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करना था। फिर भले ही भगवान की भक्ति भी क्यों न हो।

बंदगी में भी वह आज़ाद व खुदबीन हैं कि हम
उल्टे फिर आयें दरे काबा अगर वा न हुआ

ईश्वर की आराधना करने में भी हम स्वतंत्र और स्वाभिमानी हैं। हमारे पहुंचने पर अगर मस्जिद के द्वार खुले न मिले तो हम उल्टे पांव लौट आयेंगे। द्वार खुलने का रास्ता नहीं देखेंगे।
विचारों का विकास ग़ालिब की खासियत थी। वे कहते थे-

रगों में दौडते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जो आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?

इंसान के अंदर के खून का काम क्या केवल रगों में दौडना है? नहीं, इससे मैं सहमत नहीं हूं। दूसरों के दुख से, त्याग से, और दूसरे के लिये अगर वह आंखों से नहीं बहा तो क्या उसे खून कहना चाहिये? किसी उदात्त ध्येय के लिये जीना ही सही मायनों में जीना है। केवल खून धमनियों में बह रहा है इसलिये जीवन को जीवन नहीं कहा जा सकता।

जीवन की नश्वरता जब समझ में आती है तो उसकी आसक्ति कम हो जाती है। तब शायर कहता है।

मुहब्बत थी चमन से लेकिन अब ये बेदिमाग़ी है
कि मौजे-बू-ए गुल से नाक में आता है दम मेरा

इस बागीचे को मैं बहुत चाहता था परंतु अब मेरे मन में नाराजगी है। अब यहां घूमते समय फूलों की सुगंध आने से मैं परेशान हो जाता हूं।

गालिब चिंतनशील कवि थे। जीवन की नश्वरता पहचानने के कारण आनेवाली उदासीनता से वे कभी-कभी ग्रसितहो जाते थे। इसी वजह से कभी-कभी शौक के लिये मद्यपान कर लेते थे।

मयसे ग़रज निशान है किस रु-सियाह को?
इक गूना बेखुदी मुझे दिन-रात चाहिये?

यहां किस कलमुंहे को मद्यपान से आनंद पाना है पर अब मुझे ऐसी बेहोशी दिन रात चाहिये जिससे मैं खुद को भूल जाऊं।
वे अपने मद्यपान के संबंध में जागरुक थे क्योंकि मद्यपान के बाद कभी भी उनका बर्ताव बेताल नहीं रहा। मद्यपान अच्छी आदत नहीं है यह भी उन्हे स्वीकार था। एक बार उन्हें किसी ने पूछा क्या तुम मुसलमान हो? उन्होंने उत्तर दिया- “हां मैं आधा मुसलमान हूं! शराब पीता हूं पर सूअर नहीं खाता।”

शायरी के हर पहलू, हर आयाम को छूने वाले इस महान शायर का निधन 15 फरवरी 1869 को हुआ। मृत्यू के बाद सज्जनों को स्वर्ग मिलता है ऐसी धारणा है। वे सज्जन ही नहीं महामानव थे। उनकी स्वर्ग की कल्पना पर विश्वास नहीं था। उन्हें स्वर्ग नहीं चाहिये था।

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल को खुश रखने के लिये ग़ालिब खयाल अच्छा है।

ग़ालिब ने ये खुद ही लिख रखा है। ग़ालिब का काव्य आज 200 सालों के बाद भी पुराना नहीं लगता। वह न तो मुरझाया न ही उसकी सुगंध कम हुई। इसलिये ग़ालिब को उद्यान का पुष्प कहने की बजाय काव्यक्षितिज पर चमकनेवाला सूर्य कहना अधिक योग्य होगा। शतकों के बाद भी यह सूर्य बिना अस्त हुए ऐसे ही जगमगाता रहेगा।

This Post Has One Comment

  1. पल्लवी जी और संगीता जोशी जी को प्रणाम व् नमस्कार ,
    आपके भाषा रूपांतरण : “आकाश पर चमकने वाले (मिहरे-नीम रोज़) दोपहर के सूर्य के समान” ने हमारे सर पर पड़ने वाले वज़न को काफी कम कर दिया है , इस के लिये अनेक धन्यवाद.
    कानपूर से डॉ विनम्र

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