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दूसरी चिता

मनहूस दिन

by डॉ. किरण चतुर्वेदी
in कहानी, मार्च-२०१४
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गीता के जीवन का संगीत मधुर-मधुर धीमी गति से चल रहा था। पिता कारपेन्टर का काम करते थे, थोड़ी बहुत आय खेती-बाड़ी से हो जाती। घर की गाड़ी ठीक-ठाक चल जाती। किशोरावस्था के सपने गीता भी देखती, उच्च शिक्षा प्राप्त कर टीचर बनने की। कक्षा में पढ़ना, छात्रों का मन्त्रमुग्ध होकर टीचर की बात सुनना उसे एक अजीब पुलक से भर देता, उसके गुरुजन उसे बहुत प्रभावित करते, गुरुजनों का छात्रों में रुतबा एक अजीब आकर्षण पैदा करता, शिक्षा-दान किसी स्वर्गीय पुण्य कार्य से कम न लगता। अपने छोटे-छोटे सपनों के साथ गीता का प्रतिवर्ष अच्छी छात्रा के रूप में नाम था। पढ़ाई में अच्छी, खेल-कूद में हमेशा पूरे उत्साह के साथ भाग लेती और प्रथम, द्वितीय स्थान प्राप्त भी करती। कभी-कभी मन के भावों को शब्दों का जामा पहनाकर कविता या कहानी लिखती। जब उससे पूछते- क्या लिखा, बहुत भोलेपन से कहती- पता नहीं मैं तो अपनी मन की बात को कागज पर उतार देती हूं। हां अक्सर सोचती हूं मैं क्या लिखती हूं और क्यों? साहित्यक किताबें पढ़ने का शौक था। स्कूल में लाइब्रेरी नाम का कुछ नहीं था, बस इधर-उधर से मांग कर कभी-कभी कोई साहित्यक पुस्तक पढ़ लेती, फिर चाहे गीता या रामायण पर ही कुछ क्यों न लिखा हो। पढ़ने का अपना शौक जैसे-तैसे थोड़ा बहुत पूरा कर लेती। गांव का वातावरण लड़कियों के ज्यादा पढ़ाने के पक्ष में नहीं था। इस बेचारी को क्या मालूम लड़कियों के सबसे बड़े दुश्मन उनके अपने ही हैं, जो उन्हें ऊंचे सपने नहीं देखने देते, सपने देखना मानो घोर अपराध हो।

गीता 9वीं की परीक्षा में व्यस्त थी, घर में क्या हो रहा है यह जानने का ना समय, ना ध्यान था। वह तो बस एक धुन में थी किसी तरह कक्षा में अव्वल आ जाऊं। बस इतनी ही तो इच्छा थी- कोई कुबेर का धन ऊपर वाले से नहीं मांगा था। यह इच्छा किसी के लिए हानिकारक नहीं थी, फिर भी इसकी हत्या करने के लिए उसके अपने जन्मदाता जी-जान से लगे थे। जिस दिन खुशी-खुशी परीक्षा देकर घर लौटी चचेरी बहन की शादी में जाने की तैयारी हो रही थी। चचेरी बहन गीता की मात्र बहन ही नहीं थी अन्तरिम सहेली थी, हमउम्र होने के कारण बहुत प्रेम था। अपने-अपने मन को एक-दूसरे के सामने रख देती। बहन से गीता ने भावी जीजा के बारे में जाना-दूल्हे राजा सातवीं पास हैं, घर की खेती में हाथ बंटाते हैं, छोटा-मोटा दूध बेचने का धंधा है, गांव के बजाय कस्बे के निवासी हैं, घर के सभी लोग दूल्हे राजा से रौब खा रहे थे, जबकि बहन दुल्हन आठवीं पास थी। उससे कोई रौब नहीं खा रहा था। उसका ससुराल वालों की नजर में कोई स्थान न था। राजी-खुशी बारात बिदा हो गयी, गीता दूसरे दिन अपने घर आ गयी।

तीन दिन बाद आंगन में चारपाई पर शादी के कार्ड गीता ने देखे। उत्सुकतावश खोल कर पढ़े। ज्ञात हुआ उसकी शादी के कार्ड हैं। भागी-भागी मां के पास गयी। अम्मा यह क्या मेरी शादी कर रही हो? 10वीं तो पास कर लेने दो। क्यों मेरे भविष्य को आग लगा रही हो? अम्मा ने दृढ़तापूर्वक अपना निर्णय सुना दिया- परसो तुम्हारी हल्दी है, उसके चौथे दिन शादी- जो पढ़ना-लिखना हो अपने ससुराल जाकर करना। गीता भड़क गयी। मां-बाप होकर आप नहीं पढ़ा रहे तो वे पराये क्यों पढ़ाएंगे मुझे। मुझसे एक बार भी पूछना किसी ने उचित नहीं समझा कि मैं क्या चाहती हूं। अम्मा गुस्से में चिल्लाने लगी- हां हां अब तुमसे पूछकर ही तेरी शादी करूंगी, मां-बाप तो दुश्मन हैं तेरे! बापू ठीक कह रहे थे, अभी ब्याह नहीं किया तो पढ़-लिखकर मुसीबत बनेगी और अपनी इच्छा से हम सबको नचाएगी। हम वो मां-बाप नहीं जो औलादों के इशारों पर नाचें, तुझे जो करना हो अपने पति के घर करना, वह भी छठीं पास हैं। यह सुनकर गीता अवाक रह गयी। होने वाला पति छठीं पास स्वयं नौवीं की परीक्षा देकर आयी है। गीता की शादी उसके भावी सपनों की कब्र बन गयी। जिसके ऊपर परिवार बच्चों की जिम्मेदारियां ओढ़ा दी गयी। कैसा मनहूस दिन था। उसकी टीचर बनने की कल्पना की हत्या कर शादी के हवन-कुण्ड में अन्तिम संस्कार किया गया। ससुराल और पति को लेकर उसने सपने देखे ही नहीं। पति से मिलने पर रही सही कसर भी पूरी हो गयी। वह समझ चुकी थी पति उससे कम पढ़ा है। यह कुण्ठा उसके मन में है। किन्तु गीता के रूप रंग ने उसे पराजित कर अपने से ज्यादा पढ़ी लड़की को लेने के लिए विवश किया। गीता ने यह जानने की कोशिश ही नहीं की कि पति ने उसे कब कहां देखा। गीता गांव से मुंबई आ गयी, धीरे-धीरे परिस्थितियों से समझौता कर लिया। कारपेन्टर पति को रोज काम न मिलने के कारण रोज का खर्च चलाना मुश्किल हो गया।

समय बीतता गया। गीता तीन बच्चों की मां बन गयी। अब बच्चों का पालन-पोषण भारी पड़ने लगा। गीता घर-घर जाकर झा़डू-बर्तन का काम करने पर विवश हो गयी। बस, एक ही धुन लग गयी, बच्चों को पढ़ाना। पति का नियमित काम न होने के कारण वह बच्चों को सम्भालता।

पति और ससुराल वालों के खिलाफ जाकर गीता ने अपना ऑपरेशन करवाया ताकि और बच्चे न हों। सास ने हजार गलियां दीं, छ: महीने तक बात न की, उसने किसी पर ध्यान नहीं दिया, बस अपने काम में जुटी रहती। परिवार की उपेक्षा, तानों को सहती। रात में बच्चों के साथ बैठकर उनके स्कूल की बातें सुनती। हर बार यही कहती सिर्फ पढ़ो और कुछ नहीं। अब उसके जीवन का एक लक्ष्य हो गया था बच्चों को शिक्षित कर उनकी जीवनशैली परिवर्तित करना। जो जीवन वह जी रही है उसके बच्चों को न जीना पड़े।

गीता जिनके घर काम करती उन सभी से उसने रिश्ते जोड़ लिए थे – दीदी, भाभी, मम्मी, दादी, अम्मा बनाकर। सदैव हंसने वाला चेहरा, मीठा बोलने वाली जबान, चेहरे पर एक आत्मविश्वास और आत्मनिर्भर की चमक लिए सदैव सब की सहायता के लिए खड़ी रहती। घरों में झाडू-बर्तन के अतिरिक्त छोटे-मोटे काम करके कुछ ऊपरी कमायी हो जाती। पति की समस्त जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर रख चुपचाप जीने लगी। न किसी से शिकायत न शिकवा। भाग्य के आगे किसी की नहीं चलती यह सोच मन को दिलासा दे दिया। पुरुष के समान घर- परिवार पालना भाग्य में लिखा है, ऊपर वाले ने गलती से पुरुष की जगह स्त्री बना दिया।

कभी-कभी सोचती मेरे घर वाले मुझे शाबाशी क्यों नहीं देते, उनके बेटे के परिवार को पाल रही हूं, इन लोगों के दो शब्द मुझे खुशी देते, पर वह भी अपनी किस्मत में नहीं है।

आज गीता बहुत दु:खी थी। पूछने पर पता चला उसने पति से कहा वह कम्प्यूटर का कोर्स करना चाहती है। चाल में ही आकर सिखाएंगे। दो सौ रुपये फीस के जमा कर दिये हैं। बहुत उत्साह के साथ कहा- कम्प्यूटर सीख लेने पर जिन्दगी बदल जाएगी। लोगों की जूठन नहीं साफ करनी पड़ेगी। चार पैसे ज्यादा मिलेंगे। साथ ही सम्मान भी मिलेगा। फिर मैं घरों में जूठन साफ करने वाली नौकरानी नहीं रहूंगी, किसी ऑफिस में नौकरी करने वाली कुर्सी पर बैठकर काम करने वाली के रूप में परिचय होगा। सोचो! क्या सम्मान से भरा जीवन होगा। उसकी इस बात से पति को झटका लगा, वह सोचने लगा बीवी कम्प्यूटर सीख कर साहबगीरी करेगी और मैं- कारपेन्टरी। पति ने अपना अन्तिम निर्णय पूरे अधिकार के साथ सुना दिया- तुम यह कोर्स नहीं करोगी। गीता रोने लगी। पति के एक वाक्य ने एक बार पुन: उसके सपनों को चूर-चूर कर दिया। रात भर पड़ी-पड़ी रोती रही और सोचती रही कि पति के रूप में किस जन्म का दुश्मन मिला है जिसकी वजह से मेरी पढ़ाई छूट गयी और मेरा परिचय एक अध्यापिका के बजाय घरों में काम करने वाली नौकरानी का हो गया। आज जब एक मौका मुझे अपना परिचय बदलने का मिला, पुन: रोक दिया। जब देखो मुझमें दोष निकालता रहता है। ईश्वर व अपने भाग्य को कोसती हुई गीता पुन: अपने कार्यों में जुट गयी। भूल गयी अपने दो सौ रुपये कम्प्यूटर सीखने के लिए जमा किये थे।

आज बड़ा बेटा बहुत खुश था। उसका जन्मदिन था। उसे साथ लेकर बाजार में जाकर नयी ड्रेस और केक लाना था। मैंने कहा, मैं जाकर ले आऊंगी, वह नहीं माना उसे सब कुछ अपनी पसन्द का लाना था। गीता ने पति से रुपये मांगे। उसने टके सा जवाब दे दिया-तुम्हारी औलादों की फिजूलखर्ची के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं। गीता का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया, जली-भुनी पहले से ही बैठी थी, पति के इस वाक्य ने आग में घी का काम किया। मैंने गर्भपात करवाने को कहा था तब भगवान की दुहाई देते रहे। आज उसी भगवान की देन बच्चों को नंगा-भूखा रख रहे हो- ऊपर वाला बहुत खुश होगा? तुम पाप के भागीदार बनोगे, पाप के। गीता के इस वाक्य से पति तिलमिला गया और दो थप्पड़ जड़ दिये। शेरनी की तरह दहाड़ते हुए बोली, तुम्हारे थप्पड़ का जवाब नहीं दे रही इसका अर्थ यह न समझना कमजोर हूं। मात्र तुम्हारी मां के बुढ़ापे का लिहाज कर रही हूं। इस उम्र में बेटे को बहू से पिटता देखकर उनके लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसा होगा। भविष्य में शायद यह लिहाज भी टूट जाये। गीता ने उधार रुपये लेकर बेटे का जन्मदिन मनाया। बेटा मां को हजार धन्यवाद देने लगा।

कुछ दिन बाद सबेरे-सबेरे पति ने कहा आज मेरा जन्मदिन है क्या उपहार दोगी? गीता चिढ़ गयी। कुछ बोली नहीं। चुपचाप काम पर चली गयी। दिनभर दिमाग में एक बात घूमती रही- बेटे का जन्म फिजूलखर्ची है, स्वयं का जन्मदिन विशेष दिन है। कमाये न धमाये शौक दुनिया के पाल रखे हैं। रात में मन मारकर एक परफ्यूम सस्ता वाला उपहार में दिया।

19 मई जीवन की वह तारीख है जिसे गीता चाह कर भी भूल नहीं पाती। अपनी शादी का दिन! शादी क्या हुई पूरे जीवन का रूप ही बदल गया। धूल भरी यादों में कहीं घायल भविष्य अपाहिज हो दबा है। आज भी जब तब यह याद दिलाता है – मैं कभी था तुम्हारे सपनों में… आज भावी अध्यापिका घरों में काम करने वाली नौकरानी बन गयी थी। पति को भी यह दिन हमेशा याद रहता। इसी दिन उसे परिवार चलाने वाली कमाऊ सुन्दर पत्नी मिली जिसे पहनने-ओढ़ने का सलीका था, बात करने का सलीका था जो हमेशा हंसती रहती बेफिक्र होकर जीती। पति ने सबेरे-सबेरे बहुत प्यार से पुछा- आज शादी की सालगिरह है, मुझे क्या दोगी? गीता हंसने लगी-पहले तुम बताओ मुझे क्या दोगे? तुम मेरे पति परमेश्वर हो। पहले तुम कहो- कुछ न दे सको तो दो रुपये का गजरा भी मुझे स्वीकार है। बस चार फूल ही मेरे मन को खुश कर देंगे। वह हंसती हुई अपने काम पर चली गयी। सारा दिन काम में निकल गया। दोस्तों के साथ शादी की सालगिरह मनाने के लिए पति ने रात में रुपये मांगे। वह भी शराब पीने के लिए। गीता ने देने से मना कर दिया। बात बढ़ने लगी। मारपीट पर आ गयी। पड़ोसियों व बच्चों का ख्याल कर उसने पति को रुपये दे दिये। वह चला गया। उसका पासा सही जगह पड़ा था- गीता के भाग्य में पराजय के आंसू ही लिखे थे। वह चुपचाप एक कोने में बैठकर रोती रही। बड़ा बेटा उसके पास आया जो उम्र से पहले समझदार हो गया था, पढ़ता तो छठीं क्लास में था पर घर के माहौल ने उसकी सोच को परिपक्व कर दिया था। बेटे ने मां के आंसू पोछते हुए कहा- पापा शादी की सालगिरह शराब पीकर दोस्तों के साथ मना रहे हैं, तुम क्यों नहीं कुछ करती- मैं गजरा लेकर आता हूं। मां तुम्हें बहुत अच्छा लगता है। तुझे चॉकलेट पसन्द है, वह भी पांच रुपये की ले आता हूं। मेरे पास तेरे दिये 8-10 रुपये हैं। हम भाई-बहन मिलकर तेरी शादी की सालगिरह मनाएंगे। रो-रोकर अपना मन छोटा क्यों करती हो? बेटे की इस बात पर वह फूट-फूटकर रोने लगी। बोली खुशी का दिन होता जरूर मनाती; पर यह मेरी जिन्दगी का मनहूस दिन है। इस दिन खुशी नहीं, मातम करते हैैं।
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