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झूठ के नगाड़े

झूठ के नगाड़े

by pallavi anwekar
in मार्च-२०१४, राजनीति
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पिछले दस सालों में कांग्रेस के कुशासन की मार झेल रही भारत की जनता को आगामी लोकसभा चुनावों में फिर से अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए कांग्रेस अलग-अलग पैंतरे अपना रही है। चाहे वह राहुल गांधी का रटा रटाया जोशपूर्ण भाषण हो या फिर बैनर, पोस्टर, प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से दिखाए जाने वाले विज्ञापन। ‘भारत निर्माण’, ‘कट्टर सोच नहीं, युवा जोश’ और ‘हर हाथ शक्ति, हर हाथ तरक्की’ जैसे लोक लुभावने विज्ञापनों को देखकर ऐसा लगता है कि कांग्रेस खुद तो भ्रमित है ही, जनता को भी भ्रमित बनाए रखना चाहती है। कांग्रेस झूठ के इन नगाड़ों को चाहे जितनी ताकत लगाकर पीट ले परंतु इनकी गूंज से देश की जनता को भ्रमित नहीं होना चाहिये।
आइए; जरा इन दिनों विज्ञापनों में दिखाए जा रहे कांग्रेस के दस सालों के तथाकथित विकास कार्यों के दावे पर एक नजर डालते हैं। कांग्रेस का विज्ञापन कहता है कि हमने एटीएम मशीन लगवाए जिससे आम नागरिक को अपना पैसा निकालने में आसानी हो। यहां सवाल यह है कि क्या मौजूदा आर्थिक नीतियों की वजह से आम आदमी की जेब में इतना पैसा बचा भी है कि वह उसे बैंक में जमा करे और एटीएम से निकाले? उच्च-मध्यम वर्ग को छोड़कर किसी के भी खाते में इतना पैसा नहीं बचता कि उसे कभी एटीएम की आवश्यकता महसूस हुई हो। सामान्य आदमी की जेब पर महंगाई की मार इस तरह पड़ी है कि उसके पास पैसा आने के पहले ही उसके खर्च का हिसाब ख़डा रहता है।
भारत में अगर बैंकों के इतिहास को देखा जाए तो पहला बैंक सन 1770 में खुला। तब भारत गुलाम था। स्वतंत्रता के बाद से अभी तक तो देश के हर गांव में एक सार्वजनिक क्षेत्र का बैंक होना चाहिए था। परंतु निजी बैंकों और विदेशी बैंकों की भरमार के कारण ऐसा नहीं हो पाया। अगर ऐसा हो भी जाता तो भी बात घूम फिरकर वहीं आ जाती कि एक सामान्य नागरिक के लिए इसकी क्या आवश्यकता होती? जहां तक एटीएम मशीनों की बात है भारत में पहली एटीएम मशीन एचएसबीसी बैंक ने सन 1987 में लगाई थी। उस समय देश में कांग्रेस की सरकार थी। एटीएम मशीन लगाने की अनुमति देने के अलावा सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसके लिए उसकी प्रशंसा की जाए। 1987 के बाद लगभग तीन दशक पूरा होते-होते केवल एटीएम मशीन का देश भर में फैलना विकास का पैमाना नहीं हो सकता। विकास उसे कहा जा सकता है जब समाज का निम्न वर्ग भी इसका नियमित उपयोग करने लगे।

भारत में मोबाइल लाने का श्रेय भी कांग्रेस स्वयं लेती है। भारत का पहला मोबाइल मोटोरोला कंपनी का था और उसकी सेवा प्रदाता कंपनी थी मोदी ग्रुप्स। सन 1994-95 में कोलकाता में इसे पहली बार शुरू किया गया। यह कार्य तब शुरू जरूर हुआ, जब कांग्रेस सत्ता में थी, परंतु उसका विकास भाजपा के कार्यकाल में हुआ। कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में कॉल रिसीव करने के लिए भी शुल्क लगता था। सन 1999 में जब भाजपा की सरकार आई तब नई दूरसंचार नीति बनाई गई और मोबाइल से इनकमिंग कॉल शुल्क हटा दिया गया। इसके बाद भारत में मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या में बेतहासा वृद्धि हुई। सोचिए; अगर आज भी इनकमिंग शुल्क लगता तो क्या लोग मोबाइल का इतना ही उपयोग करते? इसके प्रत्युत दूरसंचार के क्षेत्र में कांग्रेस को 2जी घोटाले का श्रेय जरूर लेना चाहिए जिसके कारण देश की अर्थ व्यवस्था को करारा झटका लगा। फलस्वरूप 3जी जैसी आधुनिक संचार तकनीकों को भारत में आने में इतना समय लग गया।

अब बात करें मेट्रो रेल की। भारत में सन 1853 में पहली रेल शुरू हुई। सन 1947 में भारत की आजादी तक 42 रेल सिस्टम बनाए जा चुके थे। उस समय जब किसी भी प्रकार की उन्नत तकनीकी नहीं थी, अंग्रेजों ने पूरे भारत में रेल का जाल बिछा दिया था। परंतु आजादी के 37 साल बाद पहली मेट्रो रेल कोलकाता में चलाई गई। दिल्ली आते-आते इसे 55 साल लग गए। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में तो हाल ही में इसे शुरू किया गया है, वह भी प्रायोगिक तौर पर। आज हमारे पास उन्नत तकनीकी है, कुशल इंजीनियर हैं, काम करने वाले मजदूर हैं, फिर भी मुंबई मेट्रो के परिचालन की तिथियों को कई बार ब़ढाया गया। क्या कांग्रेस इस विलंब का श्रेय लेना चाहती है? जब महानगरों में मेट्रो के परिचालन में इतने साल गुजर गए तो छोटे-छोटे नगरों को जोड़ने में कितना समय लगेगा, यह समझा जा सकता है। अगर इसी गति से विकास कार्य किए जाएंगे तो हो चुका भारत निर्माण।

इस विज्ञापन में जब ट्रैफिक में आदमी फंस जाता है तो वह अपने बेटे को ‘फ्लाय ओवर’ से चलने की सलाह देता है। फ्लाय ओवर वहां बनाए जाते हैं, जहां जनसंख्या अधिक हो और रास्तों पर चलने की जगह कम। यह हाल मुख्यत: महानगरों का है। मुंबई महानगर पालिका में भाजपा-शिवसेना गठबंधन प्रशासन चला रही है। इस प्रशासनिक अवधि में 57 फ्लाय ओवर और ऐतिहासिक मुंबई-पुणे एक्सप्रेस हाइवे बनाया गया। कांग्रेस की सरकार के कार्यकाल के दौरान हाथ में लिए गए प्रकल्पों को बनाने मे विलंब ही हो रहा है। बांद्रा-वरली सी लिंक को बनाने में 13 साल लग गए।

जनता की दूसरी परेशानी है इन पर लगने वाले टोल टैक्स। कुछ दिन पहले मनसे प्रमुख राज ठाकरे और उनके कार्यकर्ताओं ने टोल नाकों को जलाया और वहां तोड़फोड़ की। दो दिनों तक यह घटना अखबारों और चैनलों का मुख्य समाचार रहा। इस मुद्दे पर उनके विरोध का तरीका भले ही गलत हो, परंतु उद्देश्य गलत नहीं था। इन फ्लाय ओवर्स को बने हुए कई साल हो गए हैं, इसके बाद भी लोगों से टोल टैक्स लिया जा रहा है। निर्माण की लागत तो पूरी भी हो चुकी है लेकिन अब मरम्मत और रख-रखाव के नाम पर लोगों से कर लिया जा रहा है। जब इसका हिसाब मांगा जाता है तो कोई भी हिसाब देने के लिए तैयार नहीं होता। कहीं-कहीं तो 100 किमी की दूरी तय करने के लिए 2-3 टोल नाकों से गुजरना पड़ता है और लगभग 100 रुपए खर्च होते हैं। इन सभी बातों पर गौर करें तो पता लगता है कि जनता को सुविधा देने के नाम पर श्रेय तो स्वयं ले रहे हैं, परंतु सरकारी खाते से एक धेला खर्च नहीं हो रहा है। जो खर्च हुआ भी तो टोल टैक्स के नाम पर वापस मिल रहा है। और तो और ये टोल नाके निजी ठेकेदारों को दे दिए गए हैं जो मनमाने तरीके से पैसे वसूलते हैं। इन पर भी सरकार का नियंत्रण नहीं रहा। यह तो साफ है कि आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर इन सभी विज्ञापनों को दिखाया जा रहा है, परंतु इन चुनावों में अपनी जीत के प्रति कांगे्रस स्वयं आश्वस्त नहीं लगती। शायद वह जान चुकी है कि मोदी लहर के सामने राहुल गांधी टिक नहीं पाएंगे। अत: उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने का निर्णय ऐन मौके पर वापस ले लिया गया। हालांकि राहुल गांधी के चाटुकारों को यह बात अच्छी नहीं लगी।

कांग्रेस राहुल गांधी को हार के कलंक से बचाने के लिए कोई भी तिक़डम करे, पर अघोषित ही सही, परंतु राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार तो हैं ही। कम से कम कांग्रेस की इस पहेली को देश की जनता समझ ही रही है। इसलिए कांग्रेस के विभिन्न विज्ञापन उन्हें ही केंद्रित करके बनाए गए हैं। विज्ञापनों में आजकल उनकी युवावस्था को भुनाने काम किया जा रहा है। कांग्रेस की एक युवा कार्यकर्ता हसीबा अमीन आजकल टीवी पर दिखाई देती हैं। वह कहती हैं कि देश के 50 प्रतिशत से अधिक लोग 30 साल से कम उम्र के हैं। उनकी सोच, धारणाएं, उम्मीदें एक युवा ही समझ सकता है। वह युवा हैं राहुल गांधी। वे ‘लिबरल’ हैं और ‘ओपन माइंडेड’ हैं। अगर सचमुच ऐसा ही है, तो आज देश का युवा अच्छी शिक्षा, नौकरी और सुरक्षा चाहता है क्या राहुल गांधी ने युवा होने के नाते इस दिशा में कोई कदम उठाए? क्या कांग्रेस सरकार ने इन दस सालों में कोई भी ऐसा कदम उठाया जिससे देश के युवाओं को विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी के अवसर प्राप्त हों? देश का युवा उच्च शिक्षा के लिए या नौकरी के लिए विदेशों की ओर रुख कर रहा है। क्या राहुल गांधी ने ऐसा कोई प्रयास किया जिससे युवाओं को अपने ही देश में सभी सुविधाएं उपलब्ध हों। जिससे आगे जाकर वे अपनी प्रतिभा का उपयोग अपने साथ-साथ देश का विकास करने में करें। देश का युवा धर्म, जाति-पात से ऊपर उठकर सभी का विकास चाहता है। क्या राहुल गांधी की सोच भी ऐसी है? अगर हां, तो उन्होंने गुजरात दंगों का मुद्दा क्यों उठाया? क्यों वे किसी जाति विशेष के लिए आरक्षण की बात करते हैं? युवा होने के नाते युवाओं के लिए काम करने की बात में तो कोई दम नहीं लगता। अब देखते हैं उनके ‘ओपन माइंडेड’ होने की क्या परिभाषा है? ‘ओपन माइंडेड’ का अर्थ है खुले विचारों वाला। जो दूसरों की बातें, विचार सुनने-समझने का माद्दा रखता हो। सभी घटनाओं पर उसकी पैनी नजर हो तथा जो भूतकाल की गलतियों को सुधारते हुए आने वाले भविष्य को उज्ज्वल करने का प्रयत्न करे। क्या ऐसा ‘ओपन माइंडेड’ व्यक्ति हमेशा अपने पिता और दादी के नाम का सहारा लेगा? क्या उसे देश की समस्याओं को देखने के लिए उनके नाम का चश्मा लगाना पड़ेगा? पुरानी बातों को भूलकर क्या वह आगे होने वाले विकास के बारे में नहीं सोचेगा? जरूर सोचेगा, अगर उसमें परिपक्वता हो। परंतु राहुल गांधी तो आए दिन अपनी अपरिपक्वता का उदाहरणदेते रहते हैं। हाल ही में एक न्यूज चैनल को दिए साक्षात्कार में भी उन्होंने ऐसी ही कुछ मिसाल पेश की। उनसे सवाल कुछ पूछे जा रहे थे और वे जवाब कुछ और दे रहे थे।

2002 के गुजरात दंगों पर जब उन्होंने निशाना साधा तो उन पर भी सन 1984 के दंगों का पलटवार हुआ परंतु वे इसे झेल नहीं सके। जाने-अनजाने उन्हें कबूल करना पड़ा कि कुछ कांग्रेसी नेता 1984 के दंगों के लिए जिम्मेदार थे। अपनी ही पार्टी को कठघरे में खड़ा करने वाला ऐसा युवा जोश किस काम का?

विभिन्न घोटालों पर लीपापोती करने के लिए कांग्रेस भले ही बड़े-बड़े विज्ञापन प्रसारित करे, पर अब जनता को इस भ्रम में नहीं आना चाहिए। पिछले दस सालों में प्रत्येक वस्तु की बढ़ी हुई कीमत, कम होती आय और असुरक्षा आदि सभी मुद्दों को ध्यान में रखते हुए ही आने वाले चुनावों की ओर देखना होगा। देश को केवल जोश से भरा युवा नेतृत्व नहीं चाहिए। नेतृत्व ऐसा हो जिसमें वैचारिक परिपक्वता हो, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को समझने का दृष्टिकोण हो और उन्हें हल करने की समझ हो। अगर अगले चुनाव के बाद भारत को ऐसा नेतृत्व मिलता है तो ही वास्तविक रूप से ‘भारत निर्माण’ होगा।
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