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बना रहे लोकतंत्र

बना रहे लोकतंत्र

by प्रमोद भार्गव
in जनवरी- २०२१, विशेष, सामाजिक
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संविधान में एक निश्चित संसदीय बहुमत से संशोधन का भी अधिकार दिया, जिससे परिवर्तित परिदृश्य में जनता को अधिकतम अधिकार दिए जा सकें। इसीलिए भारतीय संविधान लचीला होने के तत्पश्चात भी लोकतंत्र व संप्रभुता के लिए प्रासंगिक बना हुआ है।

किसी भी देश का संविधान राष्ट्र की सर्वोच्च शक्ति होती है। उसके अनुच्छेद और धाराओं की इबारत में उल्लेखित प्रावधान जनतांत्रिक लोकतंत्र को सशक्त बनाए रखने के साथ-साथ देश को संप्रभु व अखंड बनाए रखने की विधायी शक्ति भी रखते हैं। निर्वाचन के उपरांत सत्ता-हस्तांतरण का माध्यम भी संविधान की इबारत में दर्ज प्रावधान बनते हैं। इसीलिए इंदिरा गांधी ने 19 महीने आपातकाल लगाए रखने के बाद जब चुनाव कराए और पराजय का सामना किया तो चुपचाप सत्ता हस्तांतरित कर दी। इस नाते हमारा संविधान अमेरिका के संविधान से भी कहीं ज्यादा सशक्त और प्रवाहमान है। क्योंकि हम देख रहे हैं कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप हार के बाद भी आसानी से सत्ता का हस्तांतरण बाइडेन को नहीं कर रहे हैं। इसे संविधान में निर्धारित प्रावधानों की शिथिलता कहा जाए या राजनीतिक नैतिक मूल्यों का र्‍हास यह गंभीर विचारणीय पहलू है। दरअसल सत्ता में ऐसा हठ किसी भी लोकतंत्र के लिए कालांतर में चुनौती बन जाते हैं। जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के लिखित रूप में अस्तित्व में आने के बाद न केवल अमेरिका ने जनता और राष्ट्र को एक सूत्र में बांधा, बल्कि विश्व के समक्ष एक आदर्श भी प्रस्तुत किया। भारत ने भी इसी संविधान से राज्य के स्वरूप, नागरिकों के प्रजातांत्रिक अधिकार, विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और खबरपालिका की शक्तियों के भिन्न-भिन्न सिद्धांत निर्धारित किए। साथ ही इनके न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार भी उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों को दिया, जिससे संविधान की मूल-भावना से खिलवाड़ कोई अतिवादी शासक न कर सके। संविधान में एक निश्चित संसदीय बहुमत से संशोधन का भी अधिकार दिया, जिससे परिवर्तित परिदृश्य में जनता को अधिकतम अधिकार दिए जा सकें। इसीलिए भारतीय संविधान लचीला होने के तत्पश्चात भी लोकतंत्र व संप्रभुता के लिए प्रासंगिक बना हुआ है। लेकिन भारत ने निर्वाचन प्रणाली ब्रिटेन से ली, जो निरंतर उथल-पूथल बदलाव का कारण बनी रहती है। इस कारण देश को कभी-कभा अराजकता एवं अस्थिरता का सामना करना पड़ता है।

बावजूद कई बार ऐसा अनुभव होता है कि भारतीय संसद में असहमति के स्वर के बहाने विपक्ष की उद्दंडता बढ़ी है और विधायी शक्तियों के प्रति आदर घटा है। इसीलिए जब संसद कश्मीर के संदर्भ में लंबित समानता, अखंडता और संप्रभुता के दृष्टिगत, धारा 370 और 35-ए के प्रावधानों को खत्म करता है तो संसद में विपक्ष का संतुलित व्यवहार ऐसी उत्तेजना में बदलता नजर आया जैसे कोई असंवैधानिक अनर्थ हो गया हो ? जबकि इस बदलाव में समानता व अखंडता का संवैधानिक भाव अंतनिर्हित था। शायद ऐसी ही स्थिति का पूर्वाभास करते हुए डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था, ’संविधान का कार्य पूर्णतः संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करता है। संविधान सिर्फ राज्य के विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका जैसे अंगों को शक्ति देता है। परंतु राज्य के इन अंगों की क्रियात्मकता जिन राजनीतिक दलों पर है, उनकी आकांक्षाएं और राजनीति ही मुख्य निर्धारक घटक हैं। भारत की जनता और उसके राजनीतिक दलों के भावी व्यवहार के बारे में भला कौन भविष्यवाणी कर सकता है।’

जबकि 26 जनवरी 1950 की सुबह 10 बजकर 18 मिनट पर देश के अंतिम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती सी राजगोपालाचारी ने कहा था, ’इंडिया जो कि भारत है, अब संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक गणतंत्र होगा।’ यही गणतंत्र की औपचारिक घोषणा थी। इस घोषणा के मात्र छह मिनट बाद ही डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने देश के पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ ले ली थी। भारत के प्रधान न्यायाधीश हीरालाल कानिया ने उन्हें हिंदी में शपथ दिलाई। इसके बाद गांधी टोपी पहने राजेंद्र प्रसाद ने पहले हिंदी में और फिर अंग्रेंजी में भाषण दिया। इस यादगार उद्बोधन में उन्होंने कहा, ‘हमारे लंबे और घटनापूर्ण इतिहास में यह सर्वप्रथम अवसर है, जब कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और काठियावाड़ तथा कच्छ से लेकर काकिनाड़ा और कामरूप तक यह देश संविधान और एक संघ राज्य के रूप में छत्रासीन हुआ है।’ पानी स्वतंत्रता के साथ संविधान में अनुच्छेद 370 और 35-ए के प्रावधान नहीं जुड़े थे। कश्मीर को अलग विधान एवं झंडा का प्रावधान नहीं था। किंतु शेख अब्दुल्ला के अनैतिक दबाव और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कमजोर इच्छा-शक्ति के चलते जम्मू-कश्मीर को अधिकतम स्वायत्तता देने वाला यह अनुच्छेद 14 मई 1954 को जोड़ा गया। इसके अनुसार संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश और संचार से जुड़े मामलों में ही कानून लागू करने का अधिकार शेष रह गया कोई अन्य कानून यदि लागू करना है तो केंद्र सरकार को राज्य की अनुमती लेना अनिवार्य थी। साफ है, आंबेडकर ने संविधान के संदर्भ में जो तथ्य 25 नवंबर 1949 को प्रस्तुत किया था, उस तथ्य की पुष्टि मात्र पांच साल के भीतर ही हो गई। किसी दूरदृष्टा की यही दूरदृष्टि होती है। अब यदि दो विधान और दो निशान वाली अलगाव की स्थिति को एक विधान और एक झंडे के नीचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ले आए हैं तो उनकी आलोचना नहीं, प्रशंसा होनी चाहिए।

दरअसल संविधान में संशोधन के अधिकार में दोनों ही तरह के पहलू अंतनिर्हित हैं, एक जो देश की अखंडता और संप्रभुता जैसी मूल भावनाओं को अक्षुण्ण रखते हैं, दूसरे वे संशोधन जो 370 जैसे प्रावधान को सृजित कर अलगाव का बीजारोपण करते हैं। संविधान में इंदिरा गांधी ने एक संशोधन ऐसा भी किया, जो केवल स्वयं की सत्ता बनाए रखने के लिए था। इसे एकतंत्री हुकूमत के लिए किया गया संशोधन भी कहा जाता है। इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान सबसे विवादास्पद 42 वां संविधान संशोधन किया था। इसमें उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों के कानूनों की वैधता ठहराने संबंधी संवैधानिक अधिकारों में कटौती की गई थी। संसद को संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने का अधिकार दे दिया गया। नतीजतन लोकतांत्रिक अधिकारों में अधिकतम कटौती कर प्रधानमंत्री कार्यालय को अधिक अधिकार मिल गए। यही नहीं देश की संघीय संरचना में हस्तक्षेप कर संविधान की प्रस्तावना में संप्रभु, समाजवादी लोकतांत्रिक गणराज्य में ’धर्मनिरपेक्ष’ शब्द भी ठूंस दिया गया। 1977 में हुए आमचुनाव के बाद जनता दल सरकार ने 43 वें और 44 वें संशोधनों के द्वारा उन अधिकांश संशोधनों को समाप्त कर दिया, जो 42 वें संशोधन में लाए गए थे। इससे साफ होता है कि संविधान की इबारत में जो प्रकृति अंतनिर्हित है, उसका क्रियान्वयन सत्ताधारी राजनीतिक दल की प्रकृति, प्रवृत्ति और इच्छा-शक्ति पर निर्भर है।

भारतीय संवैधानिक लोकतंत्र यूरोपीय देशों के लोकतांत्रिक संविधानों से तो प्रभावित है, लेकिन इस्लामिक देशों की राज-व्यवस्था की इस पर कतई छाया नहीं है। क्योंकि इन देशों में अव्वल तो संवैधानिक व्यवस्था है ही नहीं, पाकिस्तान जैसे देशों में है भी तो उसकी गर्दन सेना के पांव तले दबी है और मुल्ले-मौलवी संविधान को दरकिनार रखते हुए शरीयत के कानून लागू किए हुए हैंं। ईशनिंदा जैसे कानूनों के जरिए अल्पसंख्यकों का दमन निरंतर जारी हैं। अराजकता व आतंकवाद के सरंक्षण के चलते दुनिया भर में आतंकी हमले किए जा रहे हैं। यह इस्लामिक आतंकवाद अरब देशों की तेल उत्पादकता से बड़ी आर्थिक संपन्नता का सह-उत्पाद भी है। इसीलिए आर्थिक विकास के साथ-साथ भारत व यूरोपीय देश सांस्कृतिक व समावेशी विकास की बात करने के साथ सुविचारिक दृष्टिकोण की बात करते हैं, किंतु इस्लामिक देश केवल धर्म आधारित सत्ता के विस्तार की बात करते हैं। शायद इसीलिए फ्रायड ने कहा है कि ‘विचार से हिंसा मानवीय प्रवृत्ति है। कानून उसे दबाए रखता है, उसे संयमित या समाप्त नहीं कर सकता। आधुनिक मानवीय ज्ञान एवं कला-साहित्य का सौंदर्य-बोध प्राप्त करने पर ही आम आदमी धर्म, भाषा और प्रजातीय सत्ता का वास्तविक मूल्य-बोध ग्रहण करने में समर्थ हो सकता है। दुर्भाग्य से हमारे राष्ट्रीय जीवन में एकाकी जीवन की सुरक्षा, कैरियर आधारित शिक्षा और आर्थिक महत्ता ने ऐसे उपाय कर दिए हैं कि जनतंत्र, जनवाद में बदलता जा रहा है। अर्थात ‘जनता द्वारा शासन’ के स्थान पर ‘जनता के नाम पर एक दल के शासन या सत्ता के लिए बहुदलीय गठजोड़ का शासन, सामने आ रहे हैं। महाराष्ट्र में जो दो साल पहले देखने में आया, उसी का रूपांतरण पश्चिम बंगाल में दिखाई दे रहा है।

हमारे संसदीय लोकतंत्र में दल या व्यक्तिगत प्रभुत्व की महत्वाकांक्षा का दोष ब्रिटेन की निर्वाचन प्रणाली को माना जाता है इसे हमने वहीं से यथावत रूप में लिया हुआ है। इस प्रणाली की यह कमजोरी है कि एक बार सांसद या विधायक बनने के बाद यह महत्वाकांक्षा बनी ही रहती है कि विधायिका का प्रतिनिधित्व बना ही रहे। इसका एक कारण अकूत धन और सुविधाएं तो हैं ही, सार्वजानिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार भी है। हमारी अर्थ-व्यवस्था और प्रशासनिक ढांचा ऐसे अधिनायकवाद का शिकार होता चला जा रहा है, जो भ्रष्टाचार को जन्म देने के साथ उसका संरक्षण भी करता है। इसके जिम्मेबार राजनीतिक दल और उनके जन-प्रतिनिधि ही नहीं, संवैधानिक संस्थाओं पर बैठे अधिकार संपन्न लोग भी हैं। इसीलिए डॉ. आंबेडकर ने संविधान के क्रियात्मक अंगों की प्रकृति को महत्वपूर्ण माना है। दरअसल संवैधानिक व्यवस्था कोई भी हो, अंततः उसका संचालन व्यक्ति ही करता है। गोया, व्यक्ति का राष्ट्र और संविधान के प्रति ईमानदार होना जरूरी है।

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