अभिनेता से ‘नेता’ बने कलाकार

क्या फिल्मी कलाकारों का सत्ता की राजनीति में आना चाहिए?
क्या उन्हें ग्राम पंचायत, महापालिका, विधान सभा, विधान परिषद, लोकसभा या राज्यसभा का चुनाव लड़ना चाहिए?
क्या वे जनप्रतिनिधि बने?

क्या वह परदे से बाहर आकर प्रत्यक्ष में जनसेवा करें?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर ‘हां’ ही देने होंगे।

क्योंकि, सत्ता की राजनीति में डॉक्टर, वकील, साहित्यिक, पत्रकार, इंजीनियर आदि विविध व्यवसाय के लोग अथवा अन्य क्षेत्रों में प्रसिद्ध लोग यदि राजनीति में शामिल होते हैं तो ‘फिल्मी कलाकार’ क्यों नहीं? ‘अभिनय का मुखौटा’ हटाने के बाद फिल्म कलाकार भी सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं के बारे में उनकी अपनी ‘राय’ अथवा विचार रखने वाला एक व्यक्ति ही तो होता है। दूसरों के लिखे ‘संवाद’ बोलने वाला कलाकर अपनी राय प्रकट नहीं कर सकता अथवा रख नहीं सकता ऐसा कहना उसकी सद्सद्विवेक बुद्धि के प्रति अविश्वास दिखाने जैसा ही होगा।

दक्षिण भारत में तो कलाकार कब से राजनीति में भाग ले रहे हैं और कुछेक तो सफल होकर अपने राज्य के मुख्यमंत्री तक बन चुके हैं। एम. जी. रामचंद्रन, जयललिता, एन. टी. रामाराव जैसे लोगों की सूची बढ़ती जाती है। चिरंजीवी के राजनीतिक दल ने भी सत्ता की राजनीति में सफलता प्राप्त की है।

लेकिन हिंदी (अथवा मराठी) फिल्मों के कलाकारों का ‘प्रगति पुस्तक’ कितने अंक दिखाता है? उनकी भागीदारी कितनी सफल हुई?

कलाकारों की प्रत्यक्ष राजनीति में सहभागिता दो-तीन स्तरों पर होती है और उन सभी स्तरों को हमें स्वीकार करना चाहिए। ‘जितने व्यक्ति उतने स्वभाव’ होते हैं इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता।

कुछ कलाकारों के अपने राजनीतिक विचार होते हैं। अभिनय के अलावा उनकी यह प्रतिबद्धता होती है।
फिल्मी कहानीकार के. ए. अब्बास, बलराज साहनी की किसी समय कम्यूनिस्ट विचारधारा से प्रतिबद्धता थी। बलराज साहनी ने उस जमाने में कुछ आंदोलनों में भी भाग लिया था और कुछ समय उन्हें जेल भी जाना पड़ा था।

नीलू फुले, सदाशिव अमरापुरकर अपने राजनीतिक विचारों के लिए जाने जाते हैं। नीलू फुले ने राष्ट्र सेवा दल के माध्यम से अपनी सामाजिक निष्ठा को बरकरार रखा। सदाशिव अमरापुरकर वर्तमान राजनीतिक- सामाजिक घटनाओं पर सदा अपने विचार प्रकट करते रहते हैं। इससे उनका बदलती राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था का अध्ययन स्पष्ट होता है।
कलाकारों के राजनीति में सहभाग का दूसरा मार्ग उनकी राज्यसभा पर नियुक्ति है। लगभग चालीस वर्ष पूर्व यह प्रथा आरंभ हुई। पृथ्वीराज कपूर, नरगिस दत्त की कांग्रेस की ओर से राज्यसभा पर नियुक्ति हुई। आज की ई कॉमर्स पीढ़ी को पृथ्वीराज कपूर की ‘पहचान’ बतानी हो तो कहना होगा कि वे रणबीर कपूर के पितामह थे। नरगिस दत्त की राज्यसभा की सदस्यता अलग कारणों से प्रसिद्ध हुई। उन्होंने कहा था कि सत्यजित रे की फिल्मों से भारत में गरीबी व दरिद्रता का दुनिया को दर्शन होता है। इस बयान से काफी खलबली मची थी।

इसके बाद कई कलाकारों को विभिन्न राजनीतिक दलों ने राज्यसभा पर भेजा। इंदिरा कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टी जैसे कई दलों ने कलाकारों को राज्यसभा पर भेजा। उनमें लता मंगेशकर, दारासिंग, जयाप्रदा, जया बच्चन, रेखा जैसे कई कलाकार थे। राज्यसभा के एक ही सदन में जया व रेखा कैसी एकत्र बैठेंगी और कैसी दिखेंगी इस पर भरपूर चर्चा हुई। गॉसिप की भी भरपूर जुगाली हुई। वैसे रेखा राज्यसभा में कौनसी साड़ी पहनकर जाएगी व उस पर जया की प्रतिक्रिया क्या होगी इसकी वास्तव में कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन चर्चा तो होती ही थी। इससे स्पष्ट है कि उनकी सदस्यता को किसी ने बहुत गंभीरता से नहीं लिया। ‘सितारों’ की छवि से बाहर रेखा, जया एक व्यक्ति है इस रूप में उन्हें देखना चाहिए। वास्तव में फिल्म कलाकारों ने जनसाधारण के प्रश्नों पर कोई धाकड़ भाषण किया अथवा प्रश्न उठाए ऐसा हुआ नहीं है, फिर भी हम आशा क्यों त्यागें?

लोकसभा के लिए फिल्मी कलाकारों को उम्मीदवारी देने की काफी चर्चा होती रही है। इस बारे में तीन उदाहरण देने ही होंगे।
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद निर्वाचन क्षेत्र से समाजवादी दल के नेता हेमवती नंदन बहुगुणा के विरोध में 1984 में इंदिरा कांग्रेस की ओर से सुपर स्टार अमिताभ बच्चन को उम्मीदवारी दी गई व पूरे देश का उस ओर ध्यान गया। परदे का ‘ही मैन’ राजनीति में भी डैशिंग होगा ऐसी उस समय अपेक्षा थी। अपने मित्र राजीव गांधी के ‘हाथ’ मजबूत करने के लिए अमिताभ ने उस समय राजनीति में ‘ऊंची’ छलांग लगाई। वे जीत गए और बहुगुणा जैसा एक परिपक्व राजनीतिज्ञ सत्ता से बाहर फेंका गया। लेकिन अमिताभ सफल नहीं हो सके और ‘मौनी सांसद’ के रूप में उनकी छवि बनी रही। उन्हें लोकसभा के सदन में एक भी ‘संवाद’ बोलना संंभव नहीं हुआ। इसका कारण यह कि वे वहां की कार्य पद्धति ही समझ नहीं पाए। इसलिए शाल में लपेट कर सदन में आने वाले सांसद के रूप में ही उसकी चर्चा हुई। अमिताभ ने इस असफलता को स्वीकार कर दो ही वर्षों में अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।

इसी चुनाव में उत्तर-पश्चिम मुंबई से सुनील दत्त व दक्षिण चेन्नई से वैजयंतीमाला नामक कलाकार सफल रहे। सुनील दत्त इसके बाद कई बार चुनाव जीतने में सफल रहे।

नई दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के विरोध में इंदिरा कांग्रेस ने राजेश खन्ना को उम्मीदवारी दी व इस चुनाव की काफी चर्चा हुई। वह चुनाव जीत गए, लेकिन उसी समय वे गांधीनगर (गुजरात) से भी चुनाव जीते थे। उन्होंने गांधीनगर सीट बरकरार रखी और नई दिल्ली सीट से इस्तीफा दे दिया। इसलिए वहां उपचुनाव हुआ और भाजपा ने शत्रुघ्न सिन्हा को उम्मीदवारी दी। इस तरह राजेश खन्ना विरुद्ध शत्रृघ्न सिन्हा का यह मुकाबला काफी चर्चित रहा और राजेश खन्ना को जीत हासिल हुई। लेकिन सांसद के रूप में उसका प्रभाव भी शून्य ही रहा। भाजपा ने शत्रुघ्न सिन्हा को राज्यसभा में ले लिया और राजनीति में कार्यरत रखा।

कुछ वर्ष पूर्व उत्तर मुंबई निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा के राम नाईक को पराजित करने के लिए इंदिरा कांग्रेस ने गोविंदा को उम्मीदवारी दी। गोविंदा राम नाईक के मुकाबले हर तरह से बौना उम्मीदवार ही था। यह सब अलग किस्म की राजनीति थी। गोविंदा जीत गया। गोविंदा भी पांच वर्ष में लोकसभा में कोई प्रभाव नहीं दिखा सका और अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए भी कुछ नहीं कर सका। वैसी उससे अपेक्षा भी नहीं थी।

लोकसभा में फिल्मी कलाकारों के चुने जाने की परम्परा में विनोद खन्ना, धर्मेन्द्र, नितीश भारद्वाज (उसकी महाभारत धारावाहिक में कृष्ण की लोकप्रिय भूमिका उपयोगी रही), दीपिका चिखलिया (रामायण में सीता की भूमिका काम आई) को भाजपा ने विजयी बनाया। राज बब्बर उत्तर प्रदेश से दो बार सांसद बने, लेकिन इसके लिए उसने दलबदल किया। अब समाजवादी पार्टी में है।

इस लोकसभा चुनाव में ‘हरिश्चंद्राची फैक्टरी’ नामक बहुचर्चित फिल्म से चर्चा में रहा नंदू माधव बीड़ निर्वाचन क्षेत्र से केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से भाजपा के नेता गोपीनाथ मुंडे से मुकाबला करने वाला है।
इस तरह एक के बाद एक फिल्मी कलाकार लोकसभा के चुनाव में उतरने का इतिहास बनता रहा है। लेकिन ऐसा होते समय इन कलाकारों में राजनीतिक परिपक्वता भी दिखाई दे यह अपेक्षा भी है।
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