हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
अध्यात्म की विरासत से भारत विश्वगुरू बनेगा- भागवताचार्य भाईश्री भूपेंद्र पंड्या

अध्यात्म की विरासत से भारत विश्वगुरू बनेगा- भागवताचार्य भाईश्री भूपेंद्र पंड्या

by pallavi anwekar
in अध्यात्म, साक्षात्कार, सितंबर २०१९
0

नए भारत का निर्माण करते समय हम यह न भूलें कि आधुनिक विज्ञान को स्वीकार करते हम अपने जीवन मूल्यों को खो दें। हम उस प्रवाह में बह न जाए, जिसमें अपनी गरिमा, अपनी धरोहर से चूक जाए। इसके लिए अध्यात्म के अलावा और कोई रास्ता नहीं हो सकता। प्रस्तुत है नए भारत, हमारी संस्कृति और विरासत पर भागवताचार्य भूपेंद्र पंड्या से हुई विशेष बातचीत के महत्वपूर्ण अंशः-

नए भारत के संदर्भ में आपके क्या विचार हैं?

भारत को कभी भी ऐतिहासिक खंडों में बांटा नहीं जा सकता, कि ये पुराना भारत, ये मध्ययुगीन भारत, इतिहासकारों ने किया होगा। लेकिन भारत को कभी भी भौगोलिक सीमा रेखा में बांधा नहीं जा सकता। हमेशा हमने समग्र विश्व को अपना माना है, समझा है, सनातन वैदिक संस्कृति यही कहती है। भारत हजारों वर्षों से मानवता के इतिहास के साथ ही उत्क्रांत होता रहा है। इसलिए यह नहीं कह सकते हैं कि 2019 के बाद नया भारत और उसके पहले पुराना भारत था। भारत हमेशा खिलते फूल की तरह नित्य नूतन होता रहा है। हां, यह कह सकते हैं कि कभी उसकी उत्क्रांति की गति शिथिल हो गई थी। जिसको हमें फिर से ऊर्जा देनी है, गतिमान बनाना है। इस क्षेत्र में यदि मैं बात करूं तो हमें 4 क्षेत्रों में विशेष ध्यान देना होगा। सबसे पहले है शिक्षा- जब तक छोटे से छोटे बालक जो भविष्य का नागरिक होने जा रहा है, अपना कर्तव्य और स्वयं का गौरव निर्माण नहीं होगा, तब तक हम विकसित देश नहीं बन सकते। शिक्षा पर हमें सबसे अधिक बल देना होगा।

मैकाले पद्धति की शिक्षा प्रणाली ने बहुत नुकसान पहुंचाया है। हमने अंधानुकरण किया है। पाश्चात्यीकरण ही आधुनिकीकरण है इस सोच से हमने बहुत खोया भी है, गंवाया भी है और बहुत भोगा भी है। इससे हमें मुक्त होना पड़ेगा। जिस राष्ट्र में अपने इतिहास के प्रति गौरव की भावना नहीं है, ऐसा राष्ट्र विश्व में कहीं दिखाई नहीं पड़ता। जिन राष्ट्रों के पास अपना अतीत नहीं है वे अतीत निर्माण कर रहे हैं और अपनी संतानों को दे रहे हैं। 70-80 वर्षों की उपलब्धियों को वे इतिहास बताते हैं। इतिहास में 70-80 वर्ष होते क्या हैं? हमारे पास हजारों वर्षों का गौरवपूर्ण इतिहास है, और हम उसे भुलाए जा रहे हैं। शिक्षक के माध्यम से हमें यह हमारी नई पीढ़ी को देना होगा। दूसरी बात है नए भारत के निर्माण की अनुभूति के लिए हमें सभी को एकजुट, जागृत और उत्साहित करना पड़ेगा। यह चेतना पूरे समाज में दौड़नी चाहिए। सारे भेदभावों को भूलकर ‘मैं भारतीय हूं। मैं भारत का नागरिक हूं। मैं इस समाज का अभिन्न अंग हूं’ यह चेतना यदि समाज में आए तो नए भारत का अनुभव हमें शीघ्र हो जाएगा। तीसरी बात है टेक्नोलॉजी- तंत्र विज्ञान का हमारे पास बेहद सुंदर विभाग है। जब मैं नासा में गया तो मुझे पता चला कि वहां पर हर छठा वैज्ञानिक भारतीय है। यदि भारतीय वैज्ञानिक यहां होते तो भारत अब तक कहां पहुंचता। लिहाजा, उनके जाने के बाद भी हमारे पास बहुत कुछ है। पूरी दुनिया में जहां भी भारतीय बसे हैं वे उस देश के लिए अपना बौद्धिक योगदान दे रहे हैं। भारत में अभी भी बहुत क्षमता है। तंत्र-विज्ञान को सही दिशा देकर रचनात्मक, सकारात्मक रूप से देश के विकास में उसका उपयोग करना होगा। तथा उसने घातक परिणामों सेे भी बचना होगा। आज के बच्चे एवं युवा ब्यू व्हेल जैसे गेम खेलते-खेलते आत्महत्या करने जैसा कृत्य कर डालते हैं ऐसी मूर्खता से भी हमें बचना होगा और इस बारे में जागृत व सतर्क रहना होगा। टेक्नोलॉजी का दुरुपयोग नहीं बल्कि सदुपयोग करना हमारे लिए लाभदायक होगा। चौथी बात है अध्यात्म- कोई भी राष्ट्र आध्यात्मिक ऊर्जा के बिना खड़ा नहीं रह सकता। आध्यात्मिक ऊर्जा उसकी श्रद्धा को दृढ़ करती है। व्यक्ति के निजी जीवन में, सामाजिक व राष्ट्रीय जीवन में समस्याएं तो आती ही हैं। समस्या जीवन का एक अंग है, इससे आप बच नहीं सकते हैं। इन चुनौतियों को आप कैसे स्वीकार करते हैं, इसका शिकार न होते हुए उन पर कैसे विजय पाते हैं, यह आपकी आध्यात्मिक ऊर्जा पर निर्भर करता है। वह व्यक्ति के लिए भी परिवार, समाज व राष्ट्र के लिए भी महत्वपूर्ण संबल है। उस पर भी हमें चिंतन करना होगा। इन चारों के उर्ध्वगमन से नए भारत का अनुभव जन-जन तक पहुंच पाएगा।

भारत को आध्यात्मिक देश कहा जाता है, विदेशी भी आध्यात्मिकता के चलते भारत की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसा क्या है अध्यात्म में और क्यों है?

इसका मूल कारण यह है कि हमने और हमारे प्राचीन महर्षियों ने हजारों वर्ष पहले यह समझ लिया था कि जीवन का विकास केवल रोटी, कपड़ा, मकान से नहीं हो सकता। यदि मानव को भौतिक रूप से सब कुछ प्राप्त हो भी जाए तो भी वह शांति, स्वस्थता या सुख प्राप्त नही कर सकता। सुखी और प्रसन्न होने के कुछ और भी चाहिए। किसी और की तलाश हमें अध्यात्म की ओर ले गई, उस परमतत्व की ओर ले गई। अध्यात्म को कहा तो जाए दो दृष्टि से, लेकिन अंततोगत्वा तो एक ही है। प्रश्न ‘स्व’ को पहचानने या ‘परम’ को पहचानने का है। उनमें कोई भेद नहीं है। जो भी ‘परम’ को पहचानते हैं, जो बाहर की यात्रा करते हैं, वह ‘परम’ का अनुभव लेकर के ‘स्व’ से जुड़ जाते हैं। इस आध्यात्मिक अनुभव को ही ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ कहते हैं। यही व्यक्ति में पूर्णता का आनंद दे सकता है। चूंकि सम्पूर्ण विश्व में इस भारतीय उपमहाद्वीप में जन्मे महापुरुष, ऋषि इस धारणा को समझ सके और उन्होंने स्वयं इसका अनुभव किया एवं समय-समय पर समाज को यह ज्ञान देते रहे। इसलिए समग्र विश्व में भारत की पहचान आध्यात्मिक राष्ट्र के रूप में हुई। यह बिलकुल सत्य व सही है, यही हमारी धरोहर है। विश्व में यह पहचान कोई और नहीं बना पाया है। आज भी आप देखिए पश्चिम में ‘भौतिकवाद’, वहां केवल ‘भौतिकवाद’ के पीछे ही पड़े हुए लोग हैं। भौतिकवाद में विकसित होकर भी उनको पता चला है कि सब कुछ होते हुए भी जैसे कि एक बड़ा सा घर मिल गया, चमकती हुई गाड़ी मिल गई, सारी सुख-सुविधाएं मिल गईं, फिर भी उन्हें भीतर की शांति प्राप्त नहीं होती है, प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती है। परिवार टूट रहे हैं, व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार हो रहा है। तो ये सारे सुख होने के बाद भी ऐसा क्यों है? अतीत में सोचा था कि यदि इतनी – इतनी वस्तुएं मिल जाए तो लोग सुखी हो जाएंगे। ये सारी वस्तुएं पश्चिमी समाज में उपलब्ध हैं। फिर भी वे लोग सुखी नहीं हैं; बल्कि अतीत की तुलना में आज अधिक दुखी हैं। कारण उनके पास अध्यात्म आज भी नहीं है। कितने भाग्यशाली हैं हम कि यह दिव्य संपदा हजारों सालों पहले ऋषि-मुनियों ने हमें दे रखी है। इसलिए निस्संदेह भारत आध्यात्मिक राष्ट्र है।

भारतीयों के नित्यकर्मों में आध्यात्मिकता कैसे रची-बसी हुई है ?

मैं यह बात पहले स्पष्ट कर दूं कि आध्यात्मिकता यह कृति नहीं है, यह वृत्ति है। यह एक्शन नहीं है बल्कि एटीट्यूड है। इसलिए इसे कृति में ढालना पड़ता है। हमारे ऋषि वैज्ञानिक भी थे, मानसशास्त्री भी थे, वे सब कुछ थे। मानव मन को समझकर के उन्होंने कहा कि हर एक व्यक्ति को उसके भीतर के रहस्य को समझा नहीं सकते, तो दैनिक दिनचर्या में उसे जोड़ दिया, जो आज भी उस रहस्य को नहीं जानते। तिलक क्यों करें, शिखा क्यों रखें, तीर्थयात्रा पर क्यों जाए, संत वचनों व गुरुजनों की आज्ञाओं का पालन क्यों करें, माता – पिता के चरण स्पर्श क्यों करें, मंदिर क्यों जाए, घर की दहलीज की पूजा क्यों करनी चाहिए, घर में दीया क्यों जलाना चाहिए, धूप क्यों करनी चाहिए? ये बहुत ही छोटी – छोटी बाते हैं लेकिन बहुत ही प्रभावकारी हैं। लेकिन जो समझ नहीं पाते वे लोग कहते हैं कि ये सब क्रियाकांड है, इससे क्या फर्क पड़ेगा? कुछ लोग तो इतनी बेतुकी बात करते हैं कि दुनिया के अन्य देश तो ऐसा नहीं करते, उनका जीवन तो बेहतर चल रहा है तो हमारा जीवन क्यों नहीं चलेगा? ऐसे लोगों को मेरा कहना है कि जीवन तो चलेगा लेकिन पशु समान चलेगा। यदि मानव समान जीवन जीना चाहते हैं तो ये सारी बातें जीवन में लानी पड़ेगी और ये हमारे विकास के लिए है, बंधन के लिए नहीं। ऋषियों ने बड़ी ही सहजता से ये सारी बातें हमारी दिनचर्या में जोड़ दीं, ताकि हर व्यक्ति को जीवन जीने में आसानी रहे।

हमारे ऋषि-मुनि और आज के वैज्ञानिकों पर आपकी क्या राय है?

आज के 200 वर्ष पूर्व जब आधुनिक विज्ञान का विकास होने लगा तो पश्चिम का वैज्ञानिक उद्दंड होने लगा। उन्होंने सोचा कि हम विज्ञान के माध्यम से प्रकृति पर विजय पा लेंगे। जब उनसे पूछा जाता है कि क्या आप भावना पर विश्वास करते हैं? वे अंहकार से कहते थे- मैं नहीं मानता, मैं एक वैज्ञानिक हूं। लेकिन 200 वर्ष के दौरान जो कुछ भी अविष्कार हुए, वैज्ञानिक प्रगति हुई, धीरे-धीरे वैज्ञानिकों की उद्दंडता समाप्त होने लगी। क्योंकि एक अविष्कार होता है तो वैज्ञानिकों को पता चलता है कि इससे 10 बातें और जुड़ी हैं जिनके बारें में उन्हें 10 बातों का अज्ञान ज्ञात हो जाता है। इसलिए आज का वैज्ञानिक सौम्य हुआ है। और यदि उससे पूछा जाए तो वह कहता है- हां, बिल्कुल मैं भावना पर विश्वास करता हूं। मैं वैज्ञानिक हूं। 200 वर्षों में ये जो अंतर आया है वह बहुत बड़ी बात है। सारी बातें हमारे ॠषियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही जान ली थी। भगवद् गीता का सातवां अध्याय है, जिसेे नाम दिया है ज्ञान-विज्ञान योग- जहां ज्ञान-विज्ञान दोनों साथ खड़े हैं। समग्र विश्व में माना गया कि धर्म व विज्ञान ये दोनों हैं, अलग जाते हैं। यदि व्यक्ति धार्मिक है तो वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता और वैज्ञानिक है तो धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म ने हमेशा विज्ञान का विरोध किया। आज भी देखिए कुछ मजहब, संप्रदाय, धर्म ऐसे हैं जो विज्ञान का विरोध करते हैं। कुछ धर्मग्रंथों के शब्दों को आप बदल नहीं सकते वरना फतवा निकलेगा। पूर्व में वैज्ञानिकों को मृत्युदंड की सजा दी गई है। गैलेलियो का उदाहरण है। पृथ्वी गोल यह बाइबिल मे लिखा है। गैलेलियो ने कहा कि सूर्य के चारों ओर पृथ्वी घूम रही है। बाइबिल में लिखा है कि सूर्य पृथ्वी के आसपास घूम रहा है। संकल्पनाओं को चैलेंज नहीं कर सकते वरना पूरी धर्मसत्ता आप पर टूट पड़ेगी। केवल भारतीय भूमि में ऐसे ऋषि-मुनि हुए जिन्होंने कहा कि वेदनिष्ठ हैं हम। एक ओर उन्होंने वेदों को अत्यंत गौरव दिया तो दूसरी ओर उन्होंने यह भी कहा कि यदि वेद भी कहे कि अग्नि शीतल है तो मैं उसे नहीं मानूंगा। क्योंकि मेरा अनुभव ये कहता है कि अग्नि उष्ण ह। ज्ञान व विज्ञान मे जो अंतर है, उसे समझ लें। सत्य तो एक ही होता है और वही अंतिम होता है जो अनुभव सत्य है वही ज्ञान है। ज्ञान को भारत ने विश्व की सामने रखा। इसलिए भारत विश्वगुरू था, है और उसे फिर से विश्वगुरू पद पर प्रतिष्ठित करना है।

मूर्तिपूजा को आप किस रूप में देखते हैं और विरोधियों को क्या कहना चाहेंगे?

कुछ लोग मूर्तिपूजा को मानते हैं तो कुछ लोग नहीं मानते हैं। विश्व धर्म सम्मेलन के लिए मेरा विदेशों में जाना हुआ, उस दौरान मेरा उनसे बस इतना ही कहना था कि मूर्ति तोड़ने को आप धर्म कहते हैं? बुतपरस्ती का आप विरोध करते हैं? वे कहते हैं- हां। तब मेरा उनसे सवाल था कि क्या आप मानते व स्वीकार करते हैं कि परमात्मा सर्वव्यापी है और वह कण-कण में हैं? तब उन्होंने कहा- हां। परमात्मा सर्वव्यापी है, तब मेरा उनसे कहना हुआ कि परमात्मा सर्वव्यापी है तो मूर्ति में क्यों नहीं? उनके ही तर्क से उनको सच्चाई बताने के बाद वे चुप हो जाते हैं। मेरा कहना है कि परमात्मा यदि सर्वव्यापी है तो वह मूर्ति में भी है। हमने तो इसे स्वीकार किया है। उसी सर्वव्यापी परमात्मा को मूर्ति में धारण करके एकाग ्रचित्त से हम उनकी आराधना करते हैं। विज्ञान ने भी मूर्तिपूजा को सही माना है और उसे प्रमाणित किया है। जिस परमात्मा को सर्वव्यापी मानते हो उसे ही मूर्ति में न मानना अपनी ही संकल्पना को तोड़ना हुआ। आप अपने ही धर्म के खिलाफ जा रहे हैं। उनके पास मेरे तर्कों का कोई जवाब नहीं होता।

ईश्वरीय शक्ति क्या है और उसे कैसे परिभाषित/साबित करेंगे?

ईश्वरीय शक्ति यानि ईश्वर, चाहे किसी भी नाम से, किसी भी आकार से किसी भी पूजा पद्धति से हम आराधना करें। वह ईश्वर को ही प्राप्त होगा। ईश्वर एक परम ऊर्जा है। जिससे समस्त सृष्टि का आविर्भाव हुआ है। पंच महाभूतों से बना हमारा शरीर और चेतना परम तत्व से पा करके हम जीव सृष्टि में आए हैं। इतनी बड़ी सृष्टि कहां से आई, इस सवाल में ही जवाब समाया हुआ है। भारतीय ऋषियों का यह दिव्य विचार रहा कि हमने परम ऊर्जा को केवल स्वर्ग, मंदिर में नहीं रखा; बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर इस ऊर्जा को स्थापित किया है। ‘मैं सभी के हृदय में बैठा हूं‘ यह दिव्य विचार आपको दुनिया में कहीं नहीं मिलेंगे। …तो यह है ईश्वरी शक्ति।

आपने गैर-हिंदुओं, विदेशियों एवं नास्तिकों को बड़ी संख्या में नास्तिक से आस्तिक कैसे बनाया?

श्रीमद् भागवत के दूसरे स्कंद के 9 वें अध्ययन में चुर्तश्लोकी भागवत है, उसमें बड़ा सुंदर विश्लेषण महर्षि व्यास करते हैं। उस चुर्तश्लोकी भागवत की संकल्पना में ही मैंने कई विदेशी नास्तिकों को, केवल भारतीय नास्तिकों को ही नही बल्कि गैर भारतीय, गैर हिंदुओं को धार्मिक व आस्तिक बनाया है। भगवान कहते हैं कि आरंभ में जब कुछ नहीं था, असत नहीं था, सत नहीं था। सत – असत से परे कुछ नहीं था। तब ‘मैं ही था’।

भगवान के बारे में तर्क व श्रद्धा को आप किस रूप में देखते हैं?

इसके दो पहलू हैं- तर्क और श्रद्धा। दोनों की आवश्यकता है। कपड़ा जब सीया जाता है, तब सुई धागे की जरूरत पड़ती है। सुई पहले छेद करती है और उसके बाद पीछे से चलता धागा जोड़ते जाता है। तर्क जो है वह सुई की तरह है और पीछे चलता धागा श्रद्धा है। केवल सुई या धागे से आप कपड़ा सील नहीं पाओगे। इन दोनों का संयोग चाहिए। ठीक इसी तरह तर्क व श्रद्धा दोनों की आवश्यकता है। तर्क मनुष्य को अपनी निजता का अनुभव कराता है और श्रद्धा उसे नम्र बनाती है। श्रद्धा उसे समस्त सृष्टि के साथ जोड़ती है। (जब हम तर्क करते हैं, उसी क्षण हम दूसरे से अलग हो जाते हैं। तर्क मनुष्य के अहंकार को उत्तेजित करता है। श्रद्धा हमें एहसास कराती है। सत्य की अनुभूति कराती है। तर्क गलत हो सकते हैं।)

अधात्म में मंत्रों का विशेष स्थान है। वैज्ञानिक दृष्टि से मंत्रों का क्या प्रभाव है?

केवल मंत्र नहीं, उसमें तीन बाते आती हैं- मंत्र, तंत्र और यंत्र। मंत्र जेन्टीन है, तंत्र टेक्नीक है और यंत्र मशीन है। तंत्र को गलत अर्थों में लिया जाता है। उसे तांत्रिक विद्या व काला जादू आदि नामों से उल्लेखित किया जाता है। यंत्र का अर्थ है कम मेहनत में तेज गति से कार्य को सिद्ध करना। समग्र सृष्टि की जो ऊर्जाएं हैं वे सम्मिलित होकर आपके कार्य को सफलता प्रदान करें, यही मंत्र का आवाहन होता है। आपका प्रश्न मंत्रों तक सीमीत है इसलिए मैं मंत्र के विषय में बात करता हूं। मंत्रों को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर बहुत बार परखा गया गया है। कहा जाता है कि किसी मंत्र का उच्चारण किया जाता है तो उसके परिणाम जरूर आते हैं। शब्दों में बहुत शक्ति है। शब्द से ही हम किसी को प्रसन्न भी कर सकते हैं, किसी को तोड़ भी सकते हैं। किसी को निराश, हताश व उत्तेजित भी कर सकते हैं। एक ही व्यक्ति किसी दूसरे को अपने शब्दों के उचित अनुचित प्रयोग से उसके भाव परिवर्तित कर सकता है। यदि किसी की प्रसंशा की जाए तो वह खुश व आनंदित हो जाएगा और यदि गलत बात की जाए तो क्रोध भी आ जाए। ये सारी बातें शब्द से संभव है। हमारे ऋषियों ने सही शब्दों को, सही सूत्र के रूप में जोड़ कर, उसके और उसके सही उच्चारण से, वेदों की ऋचाओं का उच्चारण किया जाता है। भौतिकशास्त्र,
विज्ञान की भाषा में कहूं तो कोई भी ध्वनि जब प्रकट होती है तो वायु के कणों में कंपन व तरंगें निर्माण करती है। मंत्र में वैज्ञानिक रूप से (शब्दों को) ऐसे रखा गया है कि वे सही कंपन निर्माण करें, सही तरंगें निर्माण करें। ताकि केवल व्यक्ति से नहीं बल्कि समग्र सृष्टि से दिव्य स्पंदन, दिव्य ऊर्जा निर्माण करें। पूरा मंत्र विज्ञान इसी पर आधारित है। इसका सबसे प्रथम व सबसे अच्छा उदाहरण है ओमकार, अ,ऊ,मं, इसका उच्चारण करते हुए बेहद सुंदर परिणाम लाए जा सकते हैं।

धर्म व अध्यात्म में क्या अंतर है और दुनिया भारतीय अध्यात्म को धीरे-धीरे क्यों स्वीकार कर रही है?

पश्चिमी देश कितनी भी भौतिक सुख-सुविधाएं, संपन्नता से पूर्ण हो, फिर भी उनमें एक शून्यावकाश दिखाई देता है। और वह केवल आध्यात्मिकता से ही भरा जा सकता है। दूसरों के पास धर्म है, परंपराएं हैं, ईश्वर के अनेकों रूप है, पूजा पद्धतियां हैं लेकिन आध्यात्मिकता नहीं है। मैं फिर कहूंगा कि आध्यात्मिकता केवल भारत के पास है। हमें अध्यात्म व धर्म के अंतर को पहले समझना पड़ेगा। जैसे कि मैंने कहा कि आत्मा से जुड़ने की बात केवल भारत ने की है। आत्मा के समीप जाना, आत्म से, परम ऊर्जा से जुड़ना, और वह मेरा स्वरूप है मैं उसका स्वरूप हूं इस भाव से जुड़ना, दुनिया में जो भी ईश्वर के सामने खड़े हैं वे भिक्षापात्र लेकर खड़े हैं, उन्हें ईश्वर से कुछ चाहिए इसलिए वे भगवान के पास जा रहे हैं या फिर फरियाद करने जा रहे हैं, अपनी अल्पता को पूर्ण करने जाते हैं। भारत में भी ऐसा होता है। इसका हमने विरोध नहीं किया है। लेकिन अध्यात्म यह कहता है कि केवल अपनी शिकायत, अपनी अल्पता का शमन करने के लिए ईश्वर के पास जाना यह धर्म हो सकता है लेकिन यह अध्यात्म नहीं हो सकता। अध्यात्म तो परमेश्वर से जुड़ने की बात है। परमात्मा से एकाकार होने का अनुभव है और जब इसका अनुभव हो गया तो फिर क्या मांगे, जो मिल रहा है वही दे रहा है, जब हमें यह एहसास होता है कि ‘मैं उसका वह मेरा’ तब मांगने-मनाने का खेल खत्म हो जाता है। और फिर सिर्फ आनंद ही आनंद व परमानंद होता है। पश्चिमी देश, यूरोप, मध्य पूर्व आदि दुनिया भर के सभी देश भौतिक रूप से कितनी भी प्रगति, उन्नति कर लें, लेकिन जब बात आत्मिक सुख, अध्यात्म की आएगी तो उन्हें भारत की ही शरण में आना होगा। क्योंकि आध्यात्मिक क्षेत्र में भारत आज भी विश्वगुरू है। सत्य, ईश्वर, शांति, जप, तप, यज्ञ, तंत्र, मंत्र, त्याग, बलिदान, आदि आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति के लिए दुनिया भर के लोग भारत में आते रहते हैं। उसका विराट दर्शन कुंभ मेले के दौरान मिलता है। यही कारण है कि दुनिया भारतीय अध्यात्म को समझने लगी है और धीरे-धीरे ही सही स्वीकार करने लगी है।

भारत की प्राचीन योग विद्या को आज पूरे विश्व ने स्वीकार कर लिया है। इसे आप किस दृष्टि से देखते हैं?

योग को लोग स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। पतंजलि योग दर्शन को समझने से पता चलेगा कि योग इसलिए करना चाहिए कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन व स्वस्थ बुद्धि रह सकते हैं। यह तो प्रारंभ है। योग का अर्थ है जुड़ना, स्वयं से जुड़ो, आत्मा व परमात्मा से जु़ डो, परमतत्व से जुड़ो यही योग है। प्रक्रिया तो यही है, इसके लिए स्वस्थ शरीर चाहिए। अच्छी बात है, आज पूरा विश्व योग को योगा-योगा कह कर केवल फिजिकल फिटनेस एवं पीस ऑफ माइंड तक ही पहुंचा है। प्राणायाम के माध्यम से मन शांत होता है। श्वास ठीक से लोगे तो मन को स्वस्थ होना ही है। सीधी प्रक्रिया है, जो विश्व को पता नहीं थी, हमने दी सबको। जब दुनिया योग के माध्यम से अध्यात्म तक पहुंचेगी, तभी हमारा विश्वगुरू के रूप में दायित्व पूरा होगा। फिजिकल फिटनेस के रूप में हमने योग को दुनिया के सामने रखा, यह दुनिया ने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। अब ध्यान व योग के माध्यम से लोग आध्यात्मिक बने यही हमारा अगला पड़ाव होना चाहिए। सोशल मीडिया पर दुनिया से जुड़े हुए लोग स्वयं से बिछड़ते जा रहे हैं। परायों से जुड़ते हैं और अपनों से बिछड़ते जा रहे हैं। पति-पत्नी एक दूसरे को छू सकते हैं लेकिन एक-दूसरे के फोन को नहीं छू सकते। ये जो दूरी आ गई है यह टूटे, इसके लिए स्वयं से जुड़े, योग संपन्न हो तब परमात्मा हमसे दूर न होगा। सभी को आध्यात्मिक योग प्राप्त हो यह विश्वगुरू के रूप में भारत का अगला दायित्व है।

क्या कारण है कि हिंदुओं में इतनी विभिन्नता होने के बाद भी सभी एकजुट हैं, ऐसी क्या शक्ति है जो इन्हें एकसूत्र में बांधे हुए है?

हमारे भारतीय ऋषियों का उदार मन रहा है। उदात्त और ओपन मांइडेड रहा है। हमने सभी विचारों को स्वीकार किया। पश्चिम तो अभी ‘समन्वयवाद’ पर बोल रहा है। हमारे यहां तो पहले से समन्वयवाद लागू है। इसलिए विश्व के जितने भी लोग आए, हम अपने भीतर सभी को समाते गए। स्वीकार यह हमारा स्वभाव है। पूर्ण ईश्वर को मानने वाले महापुरूष से लेकर बिल्कुल निरिश्वरवादी जैसे चार्वाक हो या कर्णाद हो, उनको हमने ऋषि माना, क्योंकि सभी अभिप्रायों का हमने आदर किया, उन्हें स्वीकार किया, हमने कभी विवाद नहीं किया। हमने एक श्रद्धा रखी कि जो शाश्वत सत्य है। नदी अपने तेज प्रवाह से कचरे को किनारे लगा के बहती रहती है। विपरीत विरोधी विचारों से भी हमने संघर्ष नहीं किया और न ही हम भागे, न उन्हें अपने से दूर भगाया बल्कि उन्हें अपने पास बिठाकर कहा कि आप हमारा जीवन देखते रहो और तुम्हें प्रभु कृपा हो, सच्चाई पता चले तो अपने गलत विचारधारा को छोड़कर हमारे में आ जाओगे। यही हमारे ऋषियों की उदार परंपरा रही है। हजारों सालों से भिन्न-भिन्न विचार प्रवाह आने के बाद भी हमने आपत्ति नहीं जताई।

क्या विकास की तेज गति में हमें अध्यात्म को आधार बना कर चलना चाहिए?

यही भावना के साथ हम आधुनिक विज्ञान को स्वीकार करें लेकिन अपने जीवन मूल्यों के आधार पर। हम उस प्रवाह में बह न जाए, जिसमें अपनी गरिमा, अपनी धरोहर से चूक जाए। बहुत पुरानी बात नहीं कह रहा हूं- हमारे ही लोग 150-200 साल पहले यूपी-बिहार से ब्रिटिश राज में मजदूरी करने के लिए मॉरिशस, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका गए, तब उनकी गरीबी थी, परिस्थिति अच्छी नहीं थी। लेकिन आज मैं जब उनसे अमेरिका, कनाडा या दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मिलता हूं तो ध्यान में आता है कि उनकी चमड़ी भारतीय है, उनका नाम भारतीय है, उनके पुरखे भारतीय थे। लेकिन आज वे अपने गांव तक भूल चुके हैं। सब हिंदू हैं। दुनिया भर के लोग अमेरिका में जाकर बस जाते हैं वहां की संस्कृति में मिल जाते हैं। अब दुनिया के अन्य देशों में भी ऐसा ही हो रहा है। इस दौरान सब लोग अपनी संस्कृति को भूल रहे हैं। मुझे ऐसा लगता है कि यह बहुत बड़ा परिवर्तन हो रहा है। नेपाल में 20 वर्षों पहले जब हम कैलास मानसरोवर जाते थे, नेपाल जाते थे तो नेपाली रहन-सहन नेपाली संस्कृति-सभ्यता के दर्शन होते थे लेकिन आज वहां चीनी संस्कृति का बोलबाला दिखाई देने लगा है। यह एक ऐसा नुकसान है कि जिसका नुकसान हो रहा है उसे पता भी नहीं चलता। वह भ्रम में है कि उसे फायदा हो रहा है। अब उसे क्या कहा जाए? तो ये न हो भारत में। काफी कुछ हो चुका है भारत में, फिर भी जितना भी हम उसे बचाए रखे, अपनी धरोहर को सभाले रखें, यही हमारी उपलब्धि होगी। जहां से भी अच्छे विचार प्राप्त हो उसे स्वीकार करें, लेकिन उसे भारतीय आकार देकर राष्ट्र निर्माण करें, विश्व निर्माण करें।

आपके विचार से नया भारत आध्यात्मिक रूप से कैसा होना चाहिए?

मैंने इस बारे में पहले ही काफी कुछ बताया है लेकिन रूपक के रूप में मैं बताता हूं। यह एक ऐसा घना वृक्ष हो जिसकी जड़ें भारतीय मूल्य परंपरा, संस्कृति, सभ्यता, आध्यात्मिक चेतना में हो, जहां से वह ऊर्जा प्राप्त करें। उसकी टहनियां फैली हो पूरे विश्व में, पत्ते, आज के विज्ञान, आधुनिक तकलीफ से प्रकाश संस्लेषण करके वृक्ष को मजबूत रखे। उस पर जो फूल लगे, उसकी सुगंध पूरी सृष्टि को प्राप्त हो, महकाती रहे। उस पर जो फल आए वे फल समग्र विश्व को तृप्ति प्रदान करें। मेरी दृष्टि में ये 21वीं सदी का आध्यात्मिक नूतन भारत होगा, जिसका अनुभव हम सबको करना है।
———-

Tags: hindi vivekhindi vivek magazinehindu culturehindu faithhindu traditionreligiontradition

pallavi anwekar

Next Post
नए भारत का निर्माण और घर परिवार

नए भारत का निर्माण और घर परिवार

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

2