एक और अभिमन्य्ाु

उसे लगा कि थो़डी देर में उसके सारे शरीर का खून खुद-ब-खुद निच्ाु़ड जाएगा और वह हड्डियों का कंकाल मात्र रह जाएगा। कैसे दिखाएगा वह समाज में अब मुंह और क्या बताएगा लोगों को? सब थू-थू नहीं करेंगे क्या? यही सोच-सोचकर उसके चेहरे का रंग पतझ़ड के पत्तों-सा पीला प़डता जा रहा है। वह सोच-सोचकर हैरान है कि समय कितना बदल गया है।

प्ाुत्री ने जैसे ही सोलह बसंत पार किए, उसके लिए सुयोग्य वर की तलाश शुरू कर दी थी उसने। सुराही-सी गर्दन, तोते-सी पतली नाक और चंचल हिरनी-सी आंखों वाली गोरी-चिट्टी अपनी प्ाुत्री की ओर एक नजर उठाकर जब वह देखता तो उसे लगता- भला इतनी सुंदर प्ाुत्री के विवाह में क्या अ़डचन आएगी। जिसे भी च्ाुनकर एक बार लाएगा, वही उसकी प्ाुत्री को देख खुश हो जाएगा। और बस, प्ाुत्री का विवाह कर वह दायित्व से मुक्त हो जाएगा।

नारी-उत्थान एवं दहेज-विरोधी संस्था का सचिव होने के कारण, वह अब तक जाने कितने सामाजिक उत्थान के कार्य करा च्ाुका था और कितनी ही गरीब, बेसहारा य्ाुवतियों के विवाह भी बिना किसी दान-दहेज के करा च्ाुका था। अत: उसे गर्व था कि वह अब तक इतना नाम कमा च्ाुका है कि कोई उसकी बात नहीं टाल सकेगा।

दहेज प्रथा के विरोध में जाने कितने भाषण वह अब तक दे च्ाुका था तो नारी-उत्थान के कितने ही कार्यक्रमों का संचालन भी कर च्ाुका था। जहां भी जाता, लोग जिंदाबाद के नारे लगाना शुरू कर देते। ऐसे में उसे लगता कि वह बहुत ही महत्वप्ाूर्ण व्यक्ति है। वह प्रसन्न हो उठता और मन में फूला न समाता।

पर उसकी यह प्रसन्नता अधिक दिन न टिक सकी, हवा-भरे गुब्बारे में पिन च्ाुभो दी हो जैसे। प्ाुत्री के सोलह बसंत प्ाूरे होते-होते उसने सुयोग्य वर की तलाश शुरू की थी। बहुत सारे परिचित हैं, उन्हीं में किसी के योग्य प्ाुत्र को च्ाुन वह हाथ पीले कर देगा। सोचकर सबसे पहले वह गंगा प्रसाद जी के घर पहुंचा। गंगा प्रसाद जी उसके घनिष्ठ मित्र और सहकर्मियों में से थे तथा समाज-सुधारक कार्यक्रमों में अग्रणी रहा करते थे।

गंगा प्रसाद जी उसके घर बहुत बार आ च्ाुके थे। उनसे घर का कोई राज छिपा न था। जब उसने अपनी प्ाुत्री सीमा से उनके बटे राहुल के संबंध में बात की तो गंगा प्रसाद जी एकदम से पैंतरा बदल गए, ”वह तो सब ठीक है, रामनाथ। सीमा बिटिया को मैंने अच्छी तरह देखा है और कोई कमी नजर नहीं आई उसमें मुझे। पर…।
”पर की गुंजाइश फिर कहां पैदा होती है, गंगा प्रसाद जी?“

”दरअसल, आप गलत समझ गए, रामनाथ जी। मेरा आशय था कि मैं आपसे ’हां‘ कहूं, उससे पहले राहुल की राय भी जान ली जाए तो क्या हानि है?“

”ओ हो, मैं तो डर ही गया था, जाने क्या सोचकर ’पर‘ कहा है आपने। लेकिन इसमें क्या बुराई है? प्ाूछकर देखो राहुल से। कहते हैं न कि जब पिता के जूते में बेटे का पैर आने लगे तो बेटे के साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए। और फिर हम लोग ठहरे समाज-सेवक। बच्चों पर भी अपनी बात थोपना उचित नहीं समझते। क्यों गंगा प्रसाद जी?“

”हां, यही तो मैं भी कह रहा था।“ मुस्कराते हुए उन्होंने राहुल को आवाज दी।
”पिताजी, राहुल भैया घर पर नहीं हैं। कॉलेज से नहीं आए अभी।“ नन्हीं अंकिता ने अंदर से ही आवाज दी।
”कोई बात नहीं, आप विचार कर लीजिएगा। मैं फिर आकर प्ाूूछ लूंगा।“ उठते हुए उसने कहा तो गंगा प्रसाद जी उसे दरवाजे तक आकर विदा कर गए।

तीसरे दिन ही उनका उत्तर आ गया था-”राहुल ने कहा है कि वह तो सीमा को शुरू से ही बहन मानता है, अत: वहां शादी नहीं कर सकता।“
उसके बाद वह दूसरे मित्र सहदेव के यहां गया था। वहां भी कुछ-कुछ उसी तरह का मिलता-जुलता-सा उत्तर मिला था तो उसे आश्चर्य सा हुआ। उसके बाद तो दहेज-विरोधी एवं नारी-उत्थान संस्था से जु़डे लगभग सभी मित्रों-परिचितों से उसे लगभग एक-जैसा ही उत्तर मिलता; जैसे हर जगह एक ही आवाज का कैसेट पहुंचा दिया हो किसी ने। या कि प्ाुराने रिकार्ड प्लेयर की सुई, रिकार्ड के एक ही स्थान पर अटक-अटक कर एक ही वाक्य दुहरा रही हो बार-बार।

कुंठित मन लिए उसने सभी परिचितों, मित्रों और संस्था से जु़डे लोगों को भा़ड में झोंक, अन्य जगहों पर तलाश शुरू की। पर ये क्या! जो लोग सीमा को देखने आते वे देखकर पसंद भी कर लेते, पर उसे कुछ दिन बाद ही अपने यहां से किसी-न-किसी माध्यम से मना करवा देते तो उसे लगता ये सारा ब्रह्मांड तेजी के साथ घूमने लगा है जिसके घूर्णन से उसका सिर चकरा रहा है।

ऐसी सुंदर बेटी, जिसके रूप-गुणों पर उसे नाज था, आज बाईस बसंत पार कर च्ाुकी है। यानी प्ाूरे छह वर्ष के अथक प्रयास और भाग-दौ़ड के बावजूद वह जहां से चला था वहीं लौटकर आ गया है आज। यानी उसके द्वारा किया गया कार्य शून्य हुआ। शून्य।

इतना ब़डा समाज-सेवक, जिसके नाम की चारों ओर तूती बोलती थी, जिसने जाने कितने ही असहाय, गरीबों के ल़डके-ल़डकियों के विवाह बिना दहेज के कराए थे; आज वही व्यक्ति गत छह वर्षों से जूते चटकाते-चटकाते हताश हो चला है, पर इकलौती प्ाुत्री के लिए योग्य वर न खोज सका।

उसे लगने लगा कि इसमें कुछ राज है। शायद उसके परिचित ही मिलकर उसके साथ षड्यंत्र रच रहे हैं। उसे कदम-कदम पर अब कुछ-न-कुछ राज छिपा लगता। क्यों, आखिर क्यों नहीं हो पा रही उसकी बेटी की शादी?

उसे लगा कि बेटी की शादी न हो पाने और उसके दहेज-विरोधी संस्था का सचिव होने के बीच कुछ सामंजस्य है शायद। जहां-जहां भी वह गया, लोगों ने ब़डे आदर-भाव के साथ उसे बिठाया। उसका स्वागत किया। हाल-चाल प्ाूछे। संस्था की प्रगति के बारे में जानकारी हासिल की। पर जब वह अपनी प्ाुत्री के विवाह की बात करता तो लोग कन्नी-सी काटने लगे।

”मुझे आपकी प्ाुत्री पसंद है। मैं उससे शादी करने को तैयार हूं।“ आगंतुक य्ाुवक के मुंह से यह वाक्य सुन उसे लगा कि तेज लू की दोपहरी में किसी ने मीठे शर्बत का गिलास थमा दिया हो उसे और नीम की शीतल छाया में बैठाकर कह रहा हो कि इसे पी लो।
वह अपनी प्रसन्नता को संभाल भी न पाया था कि आगंतुक के अगले वाक्य ने आसमान में उछलने के बाद क्षणभर में उसे जमीन पर ला पटका-

”आपका एस्टीमेट क्या रहेगा? यानी आप कितना दहेज देंगे?“
सुनकर उसका खून खौल उठा और क्रोध से उसकी आंखें लाल हो उठीं। इसकी यह मजाल कि एक समाज-सेवक से ऐसी बातें करे, जिनका वह प्ाूरी उम्र विरोध करता रहा है! अपनी प्ाुत्री के लिए अब तक की आदर्शवादिता को ढोंग सिद्ध कर दे! यानि कि ’पर उपदेश कुशल बहुतेरे‘ की कहावत को चरितार्थ करे।

लाल-लाल आंखों से उसने आगंतुक य्ाुवक को घूरा तो वह सहमा नहीं, डरा भी नहीं; बल्कि उसकी लाल-लाल आंखों में, उसी द़ॄढता से घूरते हुए उसने जो कहा उसे सुनकर लगा कि क़डवा सच बोलने वाले आगंतुक य्ाुवक के आगे वह अभी दूध-पीता नादान बच्चा है और वह य्ाुवक बहुत ब़डा बुजुर्ग।

”ठीक है, मत बताइए, पर इतना याद रखिए-अभी तो बाईस वर्ष ही बीते हैं सीमा के। ऐसा न हो कि आपके आदर्शों की बलि उसकी सारी उम्र ही च़ढ जाए।“ वापस जाने के लिए मु़डते हुए उसने प्ाूछा-

”इतने वर्षों में आज तक आप जहां-जहां गए, क्या सभी ल़डके सीमा को बहन ही मानते थे? या कुछ कमी थी सीमा में, जो अभी तक शादी नहीं हो पाई? जानते हैं क्यों, क्योंकि लोग आपके समाज-सेवक के चोले से डरते हैं। वे जानते हैं कि आप उनके ल़डकों को मुफ्त में छान लेंगे। खुलकर आपसे मांग सकें, इतनी हिम्मत जुटाकर समाज में बदनाम क्यों होने लगे वे।“

आंखों में आंखें डालकर य्ाुवक ने एक-बार फिर से उसे घूरा और फिर पीछे मु़डकर जाने लगा।
उसे लगा कि अभी-अभी किसी ने सीसा गर्म करके उसके कानों में उ़डेल दिया हो। सच है, सत्य कितना क़डवा होता है। परत-दर-परत, एक-एक बात उसकी समझ में आने लगी- छह वर्ष की भाग-दौ़ड के बावजूद सीमा की शादी न हो पाने का कारण भी, लोगों द्वारा दिया जाने वाला आदर और उसके बाद कन्नी काट जाने का कारण भी।

चक्रव्य्ाूह में घुस जाना तो मां के पेट से ही सीख गया था अभिमन्य्ाु पर उससे निकल पाना?
उसे लगा कि आज फिर से एक अभिमन्य्ाु चक्रव्य्ाूह में फंस गया है, जहां से निकल पाना आज भी उसके लिए उतना ही असंभव लग रहा है, जितना उस समय लगा था।

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