असमिया कथाओं में राम

असमी भाषा में माधव कन्दली समेत अनेकों ने रामायण लिखे। सब का आधार वाल्मिकि रामायण था। कथा के कुछ प्रसंग स्थानीय लोकाचार के अनुरूप रहे। इसी तरह मणिपुर, नगालैंड, सिक्किम की संस्कृति और लोक-परम्पराओं को भी यदि खंगाला जाए तो रामायण से जुड़े अन्य प्रसंग भी मिलना संभव हैं।

यह जानकर हमें सुखद आश्चर्य होगा कि    उत्तर भारतीय आर्य भाषाओं में सर्वप्रथम रामायण असमिया भाषा में लिखी गई थी। इतना ही नहीं असम की जनजाति कार्बी में साबिन आलुन रामायण की अति प्राचीन वाचिक परम्परा चली आई है। मिजो जनजाति में रामकथा लोककथा के रूप में प्रचलित है।

यहां हम असमिया रामायण की बात करेंगे। संस्कृत में लिखी गई विभिन्न रामायणों के बाद क्षेत्रीय भाषाओं में पहली रामायण नौवीं शताब्दी में तमिल के महाकवि कम्बर द्वारा ‘कम्ब रामायण’ लिखी  गई। इसके पश्चात कविवर गोनबुद्धराज ने सन् १३८० में तेलुगू में

‘रंगनाथरामायण’

लिखी। किन्तु उत्तर भारतीय आर्य भाषा की प्रथम रामायण सब से पहले चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में असम में हुए माधव कन्दली द्वारा असमिया में ‘सप्तकांड रामायण’ लिखी गई थी। उन्होंने अपनी रामायण का आधार वाल्मीकिरामायण को बनाया। इसके बाद बंगाल में कृत्तिवास ने सन् १४३३ में ‘कृत्तिवास रामायण’ और गोस्वामी तुलसीदास ने सन् १५७६ में ‘रामचरित मानस’ लिखा।

ब्रह्मपुत्र के दक्षिणी किनारे बराही राजा महामाणिक्य का कछारी राज्य था। महामाणिक्य महान विद्यानुरागी थे। उन्हीं की प्रेरणा और प्रोत्साहन पर माधव कन्दली ने वाल्मीकि रामायण का असमिया में पद्यानुवाद किया। अपनी रचना में माधव कन्दली ने स्थानीय लोक परम्पराओं का जहां ध्यान रखा, वहां रामकथा में अपने दृष्टिकोण से कुछ मौलिकता भी जोड़ी है।

एक बार ज्ञानपीठ पुरस्कृत असमिया लेखिका प्रो. इंदिरा गोस्वामी (मामोनी रायसम) से असमिया रामायण पर मेरी विशद चर्चा हुई। उन्होंने माधव कन्दली लिखित रामायण के बारे में अनेक बातें बताईं। कन्दली के राम को जब वनवास की सूचना मिली तो वे कैकेयी को यह कहे बिना नहीं चूकते कि मुझे दिए गए वनवास

से पिता को दु:ख पहुंचा कर, प्राप्त किए गए राज्य से तुम्हें कौन सा सुख मिलेगा। माधव कन्दली लिखते हैं-

 मोर बनवासत बापक दिया दुख।

 इनो राज्यभार कत बर हुइबे सुख॥

इसी प्रकार तुलसी कृत रामचरित मानस में राम के विवाह में जहां अवध के रीति रिवाजों का वर्णन है, वहां असमिया रामायण के विवाह संस्कार के समय असम के ‘बासाघर’ और ‘बासीबिया’ के लोकाचार हैं, साथ ही असमिया- बंगाली औरतों द्वारा की जाने वाली मंगलध्वनि ‘उरूलि-जोकार’ (उलुध्वनि) का उल्लेख भी है। और तो और कन्दली की रामायण में यहां के खाद्य पदार्थ भात और संदेस (छैने की मिठाई) का बार-बार नाम आता है। इतना ही नहीं, असमिया रामायण के चित्रकूट के पर्वत पर भी असम के पेड़ कटहल, नारियल आदि उपजते हैं। असमिया रामायण की कैकसी अपने पुत्र रावण के कृत्यों से व्यथित हैं, परन्तु मां होने के नाते उसकी बाल चेष्टाएं भी उसे बार-बार याद आती हैं। उसे लगता है कि आज भी रावण शिशु की भांति उसकी गोद में लेटा अपने दुह (दो) मुखों से उसके तन (स्तन) से दूध पी रहा है आर (और) शेष आठ मुखों से उसे देखता हुआ हास (हंस) रहा है। माधव कन्दली लिखते है।

 दुह मुखे तन पान करै अभिलाषे।

 आर आठ गोटा मुखे मोक चाया हासे॥

असमिया के सुन्दरकाण्ड में कुछ अधिक प्रसंग हैं। इस काण्ड में हनुमान का जन्म-वृत्तांत और मैनाक पर्वत की पूर्वकथा है। अशोकवन में फल खाने के लिए हनुमान सौराष्ट्र के ब्राह्मण का रूप धरते हैं। असम में व्याप्त शाक्त धर्म के प्रभाव से कन्दली भी नहीं बच सके। उनकी रामायण का मेघनाथ बकरे के रक्त और उसमें डूबी हुई समिधा से यज्ञ में आहुति देता है। कन्दली के लक्ष्मण रावण के शक्ति प्रहार से आहत होते हैं। कालनेमी और मकरी की कथा दोनों रामायणों में हैं किन्तु असमिया रामायण में हनुमान-भरत की भेंट नहीं होती।

भरत पर बात चली तो इंदिराजी ने एक नई बात बताई कि कन्दली की रामायण में मंथरा ने राम को वनवास भिजवाने का षड्यंत्र इसलिए रचा था कि वह भरत की उपपत्नी बनकर अयोध्या की पटरानी बनना चाहती थी। कन्दली के शब्दों में इस प्रकार है-

 वयसत बर मई, भरतत करी

 काम बस हइलै, सिठो दोषक नधरि

 विधिते कुमार देवे, लाज किछु करि

 गुप्त रूपे तथापि, हबै पटेश्वरी।

श्रृंगार वर्णन में भी जहां गोस्वामी तुलसीदास ने सीता के लिए अत्यंत मर्यादा बरती है, वहीं असमिया कवि कन्दली वाल्मीकि की भांति सीता के स्तन, नितंब, जंघा आदि का वर्णन करने में कोई संकोच नहीं करते हैं। कन्दली की भाषा अत्यंत सरल और सरस होने के साथ सहज भी है। वे प्रारम्भ में लिखते हैं-

 स्वरूप आवरि निज माया वैश्य करि।

 दशरथ गृहे लीलारूपे अवतरि॥

 मनुष्यर नय कर्म करिला अपार।

 याहार श्रवणे महापापीरो उद्धार॥

 लक्ष्मक्ष सहिते विश्वमित्र संगे आसि।

 राखिला ताहान मज्ञ राक्षस विनाशि॥

 ॠषि समन्विते रंग गैया मिथिलाक।

 धनुभंग करि बिहा करिला सीताक॥

अर्थात् माया द्वारा अपना स्वरूप छिपाकर दशरथ के गृह में लीला रूप में अवतार लेकर साधारण मानव की तरह कर्म किए। इनकी कथा सुनकर महापापी का भी उद्धार हो जाता है। लक्ष्मण के साथ विश्वमित्र के आश्रम में जाकर राक्षसों का विनाश कर यज्ञ की रक्षा की। ॠषि के साथ मिथिला जाकर धनुष भंग कर सीता से विवाह किया। माधव कन्दली अपनी रामायण के अंत में लिखते हैं-

 पंडित लोकर येने असन्तोष उपजय

 हातयोरे बोलो शुद्ध बाक।

 पुस्तक बिचारि येबे तैत कथा

 नपाबदा तेवे सबे निन्दिबा आमाक ॥

 बले सागरर तरि दशरथ राम हरि

 लंकार नगरित पयोसार।

 घोर समरक करि रावणक संहरिया

 देवतार चिन्तिला निस्तार॥

 शुनियोक सभासद रामायण कथा इटो

 पातकर साक्षात अगनि।

 महादुख गृहवास जानिया एरिबो आश

 चिन्ता रघुवंश शिरोमणि॥

 अगणित परीक्षिया सीताक अयोध्या निया

 सकुटुम्बे भैला एक ठाइ।

 माधव कन्दलि गाइला

 श्रीरामे अयोध्या पाइला

 जय जय आनन्द बधाई॥

अर्थात् मेरे रचे ग्रंथ को पढ़ कर यदि पंडितों को असंतोष हो तो मैं हाथ जोड़ कर उन्हें विनम्र निवेदन करता हूं कि पुस्तक लिखने में यदि कुछ छूट गया हो तो वे मेरी निंदा करें। दाशरथी राम ने अपनी शक्ति से सागर पार कर लंका में प्रवेश कर घनघोर युद्ध में रावण को मार कर देवताओं की रक्षा की। हे सभासदों ! सुनिए, यह रामायण कथा समस्त पापों को भस्म करने के लिए अग्नि के समान है। इस दु:ख भरे गृहवास से सुख की आशा त्याग कर रघुवंश शिरोमणि राम का स्मरण कीजिए। सीता की अग्नि-परीक्षा के पश्चात राम अयोध्या आकर अपने कुटुम्ब से आ मिले। माधव कन्दली गाता है कि राम जब अयोध्या आते हैं तो लोग उनकी जय-जयकार कर बधाई देते हैं।

कन्दली की असमिया रामायण का आदिकांड और उत्तरकांड दुर्योग से खो गए थे। इस कमी को पंद्रहवीं शताब्दी में असम में हुए महान संत श्रीमंत शंकरदेव (सन् १४४९-१५६८) ने इसका उत्तरकांड स्वयं और आदिकांड अपने परमप्रिय शिष्य माधवदेव से लिखवा कर पूरा किया था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि श्रीमंत शंकरदेव ने ही श्रीमद्भागवत पुराण का असमिया अनुवाद भी किया था। तुलसीकृत रामचरितमानस में राम के राज्याभिषेक के पश्चात कथा का समापन हो जाता है। तुलसी ने सीता निर्वासन की उपेक्षा की। उनका अपने भक्तिमार्ग की पुष्टि करने पर विशेष ध्यान रहा, परन्तु असमिया रामायण के उत्तरकाण्ड (श्रीमंत शंकरदेव कृत) में पाताल-प्रवेश करते समय सीता, वाल्मीकिकी सीता की भांति, उग्र हो जाती है। अग्नि-परीक्षा के समय भी सीता का उग्र स्वरूप असमिया रामायण में मिलता है। श्रीमंत शंकरदेव असमिया रामायण के खोए हुए कांडों को पूरा करने के अलावा ब्रजबुली में आशावरी राग के अपने मौलिक बरगीत में पूर्णतया राम को समर्पित कर लिखते हैं-

 शुन शुनरे सुरवैरी प्रमाणा

 निशाचर नाश निदाना।

 राम नाम यम, समरक साजिये

 समदले कयलि पयाना॥

 ठाट प्रकट पटु कोटि कोटि कपि

 गिरि गड़ गड़ पद घावे।

 बारिधि तीर तरि करे गुरुतर गिरि

 धरि धरि समरक धावे॥

 हाट घाट बहु बाट बियापि

 चौगड़े बेढ़लि लंका।

 गुरु घन घन घोष, घरिषण गर्ज्जन

 श्रवणे जनमय शंका॥

 धीर वीर शूर शेखर राघव

 रावण तुवा परि झाम्पे।

 सुर नर किन्नर फणधर तरतर

 महीधर तरसि प्रकाम्पे॥

 अन्ध मुगुध, दशकन्ध पाप बुध

 जानकी शिरत चराइ।

 रघुपति पदवर धर रजनीचर

 शंकर कहतु उपाय॥

अर्थात् अरे प्रमाणित सुर-वैरियों सुनो, सम्पूर्ण निशाचरों के नाश के लिए राम नाम रूपी यम युद्ध करने के लिए दल-बल सहित प्रयाण कर चुका है। उसकी निपुण सेना में करोड़ों कपि हैं। उनके चरणों के प्रहार से पर्वत गड़-गड़ करते हुए कांप रहे हैं। वे समुद्र पार कर तट पर आ अपने हाथों में विशाल, भारी पर्वत उठाए समर के लिए तैयार हैं। उन्होंने लंका के सभी हाट-घाट, सभी रास्ते-बाटों को चारों ओर से घेर लिया है। उनका प्रचण्ड, सघन-घोष, घर्षण, गर्जन सुनकर शत्रुओं के मन में शंका हो रही है। राघव धीर, वीर तथा शौर्य में अतुलनीय है। रे रावण! वे अब तेरे पर वेग से आक्रमण करने ही वाले हैं। उनके महापराक्रम से संत्रस्त होकर देवता, नर, किन्नर, नाग, पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग भी थर-थर कांप रहे हैं। अरे पाप बुद्धि वाले अंधे, मूढ़ निशाचर दशकन्धर, यह शंकर तुझे बता रहा कि तेरी रक्षा का उपाय अब भी है। तू जानकी को सिर पर बैठाकर रघुवर की शरण में जाकर उनके पावन चरणों को पकड़ लें।

श्रीमान शंकरदेव ने ब्रजबुली में राम विजय नामक नाटक भी लिखा था। नाटक का प्रारंभ वे इस श्लोक से करते हैं-

 यन्नामाखिललोकशोकशमनं यन्नाम प्रेमास्पदं

 पापापारपयोधि-तारणविधौ यन्नाम पीन: प्लव:।

 यन्नाम श्रवणात् पुनाति श्वपच: प्राप्नोति मोक्षं क्षितौ।

 तं श्रीराममहं महेशवरदं वन्दे सदा सादरम्॥

 येनाभाजि धनु: शिवस्य सहसा सीतासमाश्वासिता।

 येनकारि पराभवो भृगुपतेर्व्वासस्य रामस्य च ॥

 वैदेह्या: विधिवद्विवाहमकरोत् निर्ज्जिता य: पार्थिवान्।

 युष्माकं वितनोतु शं स भगवान् श्रीरामचन्द्रश्चिरम्॥

      नाटक को आगे बढ़ाने के लिए सूत्रधार पहले एक गीत गाता है-

 गीत- राग सुहाइ, एकताल

 जय जगजीवन राम। कयलो पड़ि परणाम॥

 याहे नामगुण मुहे गाइ। पापी परम पद पाइ॥

 ओहि भवताप अपारा। याहे स्मरणे करु पारा॥

 अजगर भंजनकारी। पावल जनक कुमारी॥

 नृपसब छेदल बाणे। कृष्णकिंकरे एहु भाणे॥

 नान्द्यन्ते सूत्रधार:। अलमति विस्तरेण।

प्रथमं माधवो-माधव इत्युक्त्वा श्रीरामचन्द्रं प्रणम्य सभासद सम्बोध्य आह। भो भो सामाजिका:! यूयं शृनुतावहितं बुधा:। श्रीरामविजयं नाम नाटकं मोक्षसाधकम्॥

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सूत्रधार- दशरथ राजाक प्रवेश शुनह। …..ॠषिराज कौशिक (विश्वामित्र) शिष्य सहिते आसि कहो राजा दशरथक आशीर्व्वाद करिये ये बोलल, ता देखइ शुनइ; निरन्तरे हरि बोल हरि।

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दशरथ- आहे मुनिराज ! हामार पुत्र राम-लक्ष्मण से बालक। ताहे राक्षसक दिते चाव ! ओहि कोन व्यवहार ! हा हा हे ॠषिराज, यज्ञ रक्षा निमित्ते हामाक निया जाव।

कौशिक- (राजाक बचन शुनिये कौशिक परम

कोप भरचय) अये पापी असत्यवादी ! राम-लक्ष्मणक नाहि पाठावब। (कोपे कम्पमान हुया वेग चलल)

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कौशिक- रघुकुलकमलप्रकाणकसूर्य रामचन्द्र हामार आशीर्व्वादे पत्नी पुत्र सहित चिरजीबी भव। (ओहि बुलि आशीर्व्वाद दिलह। श्रीराम माथापाति लेलह।)

ॠषि बोल- हे रामचन्द्र ! तुहु हामार परम उपकारी। मारीच सुबाहु राक्षस मारि हामार यज्ञ सिद्ध कयल। तोहाक गुण सुजये नाहि पारि। सम्प्रति प्रत्युपकार तोहाक का करब ! (बिमरिषि पुनु बोल) आ: साधु प्रयोजन मिलल। हे रघुनाथ ! आजु जानकीक स्वयम्बर मिलिछे। हामु जानल, महेशक धनु ये गुण दिते पारब से कन्या सोहि पावे। से भुवनमोहिनी दुर्ल्लभ भाग्यवती यव तब गृहिणी हय, हामार परम आनन्द मिलय। हामु ये गबले जानो सोहि सीता पूर्व्व जनमत बहुत तप आचरि तोहोक स्वामी नपावल। ताहाके स्मरिये ओहि जनमे तोहार चरण चिन्ति सर्व्वथा थिक परम विरहातुर हुया तोहाक लागि रहेछे। से सुन्दरीक रूप सम्प्रति किछु कहब ताहे शुनह।

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श्लोक-

 सीताया रूपलावण्यं एवं निशम्य राघव:।

 ॠषिमाभाष्य भगवान् जगाय मिथिलां प्रति॥

सूत्रधार- सीताक रूप-सम्प्रति शुनिये रामक मने किंचित भावास्तर मिलल। जानकी वियोग निमित्त निश्वास फोकारि ॠषिक सम्बोधि बोलल।

      रामचन्द्र- हे महा मुनिराज, से महेशक धनु वज्राधिक कठोर।

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स्वयंवर के उपरांत राम सीता से विवाह कर दशरथ आदि के साथ अयोध्यापुरी के लिए विदा होने लगे तो मिथिलावासी राग भटियाली यतिमान में लिखे विदाई-गीत को उच्च स्वर में गाने लगे-

 करतु कौतुक चलतु रमया, रमणि संगहि जाइ।

 नील घने जैस बिजुरि उज्जरि कुंजर गमनी माइ॥

 कनक कंकण झणके रणके ठमके कय लय लास।

 पिउक देखि मुख आंखि मुंदि रहु लज्जित ईषत हास॥

 मत्त मातंग संगे जैसन तरुणि करिणी आवे।

 जम जम रव चौदिशि उत्सव कृष्णकिंकरे गावे॥

श्लोक-

 तत: आगत्य तरसा भार्गवो भ्रुकुटि मुख:।

 स्कन्धे निधाम कठिनं कुठारं राममब्रवीत्॥

सूत्रधार- ऐसन महोत्सवे रामचन्द्र सीताये सहिते चलैछे। तदन्तर महेश गुरुक धनुभंग शब्द शुनिये परम क्रोधे परशुराम प्रचण्ड मूर्ति हुया स्कन्धे कुठार धरिये रह रह बोलि रामचन्द्रक आग बेढ़ल।

 

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परशुराम का आगमन, लक्ष्मण से संवाद, परशुराम का दर्प-दलन आदि कथाओं के बाद नाटक के अन्त में शंकरदेव ने नाटक लिखने के प्रेरक रहे शुक्लध्वज का नाम भटिया में ‘श्रीशुक्लध्वज नृपति प्रधाना’ लिखकर समाहित किया। अब मुक्तिमंगल भटिया का सस्वर गायन हुआ-

 जय ज ईश्वर राघव राम।

 पूरलो जो जानकी मनकाम॥

 जगजन जीवन सोहि मुरारि।

 मुकुति मंगल करतु तोहारि॥

 जोहि पालि पिताकेरि आश।

 सीता सहित खपल वनवास॥

 साधल जम यो राकस मारि।

 सोहि करतु नित्य मुकुति तोहारि॥

 बालि घालि सुग्रीवक पाट।

 देलहु जो लये वानरक ठाट॥

 बान्धल सेतु पयोधिक वारि।

 सोहि करतु नित्य मुकुति तोहारि॥

 ठाटे बेढ़ल चौदिक लंका।

 राकस मिलाव शंका॥

 छेदल जो रावणकेरि माथ।

 मुकुति करतु सोहि रघुनाथ॥

 आवल संगे वानरक ठाठ।

 राजा भेलि अयोध्याक पाट॥

 जो जानकी मन पूरल मुरारि।

 मुकुति मंगल करतु तोहारि॥

 रामक परम भकति रस जाना।

 श्रीशुक्लध्वज नृपति प्रधाना॥

 रामक विजय जो करावत नाट।

 मिलहु ताहेक वैकुण्ठक बाट॥

 रामक चरणे शरण लेहु जानि।

 सब अपराध मरष तोहो स्वामी॥

 कृष्ण किंकर शंकर बोल।

 कर नर अब सब हरि हरि बोल॥

 श्रीरामविजयं नाम नाटकं पूर्णताङ्गतम्।

 श्रीकृष्णपादपद्मस्य प्रसादेन सुनिश्चितम्॥

इसके पश्चात सत्रहवीं शती तक असमिया में रामायण लिखने का सिलसिला चलता रहा। माधव कन्दली के बाद १६वीं शती में ही अनन्त कन्दली कृत और दुर्गावर कृत रामायण लिखी गई। १७वीं शताब्दी में कीर्तन शैली में अनन्त ठाकुर आता की ‘कीर्तनियारामायण’, रघुनाथ महंत की ‘गद्यकथा रामायण’ तथा ‘अद्भुतरामायण’,फिर रघुनाथ महंत की ‘शत्रुंजय रामायण’  और गंगाराम राय कृत ‘सीतावनवास’ जैसी कथाओं के अलावा भी अनेक रामकथाएं लिखी गई थीं। असमिया विवाह-गीत रचना में रामकथा को लोकगीतों के रूप में रचा गया। ‘रामविजय’ नाटक के  अलावा  ‘सीता-पाताल-प्रवेश’,‘महिरावण-वध’ नामक असमिया नाटकों में भी रामकथा को पिरोया गया है।

पूर्वोत्तर के असम में वास कर रही बोडो, मिसींग, डिमासा आदि, मेघालय की खासी, जयंतिया, गारो, त्रिपुरा की त्रिपुरी आदि अनेक जनजातियों की अपनी-अपनी बोलियां, रीति-रिवाज, परंपराएं हैं। संभव हैं इनमें भी राम कथा से जुडे सूत्र हों। इन प्रदेशों के अलावा, मणिपुर, नगालैंड, सिक्किम की संस्कृति और लोक-परम्पराओं को भी यदि खंगाला जाए तो रामायण से जुड़े अन्य प्रसंग भी मिलने संभव हैं।

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