असम के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल को पता है कि वे सत्ता में आ चुके हैं और अब कांग्रेस को कोसने की जगह सभी को साथ लेकर विकास की राह में आगे बढ़ना होगा, तभी चुनाव वादों को पूरा किया जा सकता है। आरोप-प्रत्यारोप से विपक्ष को कठघरे में खड़ा किया जा सकता है, लेकिन जनता के भरोसे पर खरा नहीं उतरा जा सकता है। फिर भी बांग्लादेशी घुसपैठियों से राहत पाना और असमी अस्मिता की रक्षा करना उनके लिए एक बड़ी चुनौती होगी।
पिछले पंद्रह वर्षों से चल रहे कांग्रेस के शासन को ध्वस्त करके असम की राजनीति में कमल खिला है और भाजपा गठबंधन की सरकार का गठन हो चुका है। अब मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल और उनकी सरकार को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। लोगों के इस सरकार से बहुत अपेक्षा है। भारतीय जनता पार्टी असम विधान सभा चुनाव में असमिया अस्मिता के सवाल पर दिसपुर की सत्ता तक पहुंचने सफल हो गई, लेकिन अब इस समस्या का समाधान करना उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि असमिया अस्मिता का प्रश्न भूमिपुत्रों के अस्तित्व से जुड़ा है और इसका समाधान बांग्लादेश से आए अवैध नागरिकों की पहचान तथा उन्हें वापस भेजने के बाद ही होगा। यह कार्य इतना आसान नहीं है। इस सवाल पर लोगों को उद्वेलित किया जा सकता है, लेकिन जमीनी समाधान बांग्लादेश से सहयोग पर निर्भर है। हालांकि मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल मानते हैं कि भाजपा से लोगों को बड़ी उम्मीद है। उनके सामने कई चुनौतियां हैं। उन्हें उम्मीद है कि वे लोगों की आकांक्षाओं पर खरे उतरेंगे। चुनाव में मिली शानदार जीत के बाद उन्होंने कहा कि वे सभी सहयोगी दलों के साथ विदेशी समस्या का समाधान करने में सफल रहेंगे। इस कड़ी में उन्होंने लोगों से मजदूर के रूप में संदिग्ध लोगों को काम पर न लगाने का आह्वान किया है।
हालांकि सर्वानंद सरकार ने कैबिनेट की पहली बैठक मेंं तमाम चेक पोस्ट हटाने का साहसिक फैसले लेकर अच्छी शुरूआत की है। असम में सर्वानंद सोनोवाल के नेतृत्व में गठित राज्य सरकार ने कैबिनेट की पहली बैठक में कई महत्वपूर्ण फैसले किए हैं। इससे नई सरकार की नीयत का पता चलता है। असम सरकार ने कैबिनेट की पहली बैठक राज्य में तमाम चेक गेट बंद करने का फैसला किया और फैसले के तुरंत बाद उसे लागू भी कर दिया गया। यह एक साहसिक फैसला है, क्योंकि इससे ट्रक से चालकों से जबरन धन उगाही पर रोक लगेगी। चेक गेट के नाम पर राज्य में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा था। इस धंधे में अधिकारियों से लेकर कई नेता तक शामिल थे। कागजात चेक करने के नाम पर ट्रक चालकों को जबरन परेशान किया जाता था और सारे कागजात सही रहने के बावजूद भी जबरन वूसली की जाती थी। इसके पीछे एक संगठित सिंडिकेट काम कर रहा था। तरुण गोगोई सरकार ने भी सत्ता में आने के बाद चेक गेट हटाने के आदेश दिए थे, लेकिन बाद में नेताओं के दबाव में चेक गेट आरंभ हो गए थे। सरकार के इस फैसले से ट्रक चालकों को राहत मिलेगी और ट्रक भाड़े में कमी आएगी। इसका लाभ आम उपभोक्ताओं को मिलेगा।
मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने सड़क पर आम लोगों की तरह चलने का फैसला किया है। यानी उनके काफिले के गुजरने के लिए अन्य वाहनों को नहीं रोका जाएगा। उनका काफिला बिना साइरन के चलेगा, ताकि आम वाहन चालकों को परेशानी नहीं हो। मुख्यमंत्री के काफिले की वजह से लोग अक्सर परेशान होते थे। काफी देर तक सड़क के दोनों किनारे के वाहनों को रोक दिया जाता था। कई बार मुख्यमंत्री के काफिले की वजह से एंबुलेस तक को रोक दिया जाता था। सर्वानंद चाहते हैं कि उनके काफिले में वाहनों की संख्या कम की जाए और सुरक्षा घेरा भी सीमित किया जाए। उनकी भावना अच्छी है। लोगों को मुख्यमंत्री का इस तरह बिना किसी हंगामे के सड़क से गुजरना अच्छा लगता है। लेकिन मुख्यमंत्री की सुरक्षा से समझौता नहीं किया जा सकता है। सर्वानंद अब राज्य के मुख्यमंत्री हैं और मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें कई ऐसे फैसले करने पड़ते हैं, जिससे कोई व्यक्ति या समूह नाराज हो सकता है। इसलिए पुलिस को इस तरह का संतुलन बनाना होगा कि मुख्यमंत्री सुरक्षित गुजर जाएं और आम लोगों को परेशानी नहीं हो। मुख्यमंत्री ने अपने काम के पहले ही दिन राष्ट्रीय नागरिक पंजी के अद्यतन कार्य का जायजा उसके कार्यालय में जाकर लिया। इससे नए मुख्यमंत्री की काम करने की इच्छा का पता चलता है। यह तो सच है कि उनके पास जादू की कोई छड़ी नहीं है। उन्हें परिवर्तन लाने में समय मिलेगा। लेकिन मुख्यमंत्री के पास इतना अधिकार तो है ही कि वैसे आम लोगों को राहत दिलाने वाले कुछ फैसले ले सकते हैं। चेक गेट बंद करने वाला फैसला उनमें से एक है।
असम में भाजपा सरकार का गठन एक नए संकेत को परिभाषित कर रहा है। यह एक ऐसा प्रयोग है, जिसकी जरूरत लगातार महसूस की जा रही थी। बांग्लादेश से आकर असम में बसे अल्पसंख्यकों की बढ़ती आबादी की वजह से बिना उन अल्पसंख्यकों के समर्थन के किसी भी सरकार का गठन असंभव माना जा रहा था। मौलाना बदरुद्दीन अजमल उनके ध्रुव बने हुए थे और खुद को किंगमेकर मान रहे थे। दूसरी तरफ एक ही तरह की समस्याओं से घिरे तमाम क्षेत्रीय दलों और संगठनों को एकजुट करना आसान नहीं था, क्योंकि इन जनजातीय समूहों के बीच भी गहरे अंतर्विरोध रहे हैं। यह अंतर्विरोध अक्सर टकराव में बदलकर हिंसक हो जाते हैं।
भाजपा असम में अपने मित्र दलों के साथ सरकार बनाने में सफल रही है। लेकिन ये मित्र दल कौन हैं, इसे देखने की जरूरत है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर और असम के गठबंधन में व्यापक फर्क है। जम्मू-कश्मीर में पीडीएफ से समझौता महज सत्ता में बने रहने की ललक है, ताकि कांग्रेस को सत्ता से दूर रखा जा सके। लेकिन असम में भाजपा के साथ असम गण परिषद और बोड़ोलैंड पीपुल्स फ्रंट जैसे दल हैं। हालांकि ये दल भी पीडीएफ की तरह क्षेत्रीय दल हैं, लेकिन दोनों के मकसद और उनकी रणनीति अलग-अलग हैं। कश्मीर और असम की स्थितियां भी अलग हैं।
असम की भाजपा गठबंधन सरकार में शामिल असम गण परिषद (अगप) और बोड़ोलैंड पीपुल्स फ्रंट का सरोकार भूमिपुत्रों के अस्तित्व से जुड़ा है। इन दलों का गठन अपनी अस्मिता की रक्षा और अस्तित्व को बचाने के लिए हुआ था। अगप का गठन बांग्लादेश से होने वाली अवैध घुसपैठ से उत्तपन्न विचलन की वजह से छह साल तक चले असम आंदोलन के गर्भ से हुआ है। बांग्लादेश से लगातार हो रही घुसपैठ, अवैध नागरिक के वैध नागरिक बन जाने की अवैध प्रक्रिया और उन्हें वोट बैंक के रूप से इस्तेमाल करने से भूमिपुत्र खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे थे, क्योंकि दस जिले की आबादी के समीकरण पूरी तरह बदल गए हैं। लोअर असम में बांग्लाभाषी अल्पसंख्यकों की एकजुटता और हिंदू मतदाताओं में विभाजन की वजह से बदरुद्दीन अजमल का जादू सर चढ़ कर बोल रहा था। लोअर असम से बांग्लाभाषी अल्पसंख्यक बोड़ोलैंड और ऊपरी असम की तरफ बढ़ रहे हैं। मध्य असम में कई जिलों में उनका बहुमत है। हालात ये हो गए कि असमिया परंपरा के सब से बड़े संत श्रीमंत शंकरदेव की जन्मभूमि बट्रदवा (मोरीगांव) जिले के सत्र (धार्मिक अनुष्ठान स्थल) की भूमि का अतिक्रमण हो रहा है, और किसी में विरोध करने की हिम्मत नहीं थी। इससे असमिया भूमिपुत्रों में विचलन की स्थिति थी, लेकिन उन्हें रास्ता नहीं दिख रहा था। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति की वजह से गोगोई सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई से बच रही थी। पूरे असम में सत्रों की हजारों एकड़ खाली जमीन पर संदिग्ध नागरिकों का कब्जा था। लोगों को रास्ता नहीं मिल पा रहा था, क्योंकि अगप अपना जनाधार खो रही थी। लोग एक मजबूत विकल्प की तलाश में थे।
भाजपा की नज़र पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों पर
भारतीय जनता पार्टी असम को आधार बना कर सम्पूर्ण पूर्वोत्तर में न केवल अपना जनाधार बढ़ाना चाहती है, बल्कि उसी दिशा में आगे बढ़ रही है। वैसे भी गुवाहाटी पूर्वोत्तर का प्रवेशद्वार है और गुवाहाटी में भाजपा नेतृत्व वाली सरकार बन चुकी है। उसी तरह भाजपा अब दिसपुर में प्रवेश करने के बाद सम्पूर्ण पूर्वोत्तर में अपना प्रभाव बढ़ाने के अभियान में लग गई है। उसी कड़ी में दिसपुर में अपनी सरकार के गठन के तुरंत बाद नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस का गठन कर दिया गया। उस बैठक की अध्यक्षता भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने की। जिसमें भाजपा के रणनीतिकार राम माधव के साथ असम, अरुणाचल और नगालैंड के मुख्यमंत्री भी शामिल हुए। ये लोग सर्वानंद के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए आमंत्रित किए गए थे। इस एलायंस का अध्यक्ष हिमंत विश्व शर्मा को बनाया गया है। मणिपुर में अगले वर्ष चुनाव होना है। असम के बाद पूर्वोत्तर में भाजपा की नज़र अब मणिपुर पर होगी।
असम के बहाने सम्पूर्ण पूर्वोत्तर में भाजपा की धमक का अहसास कराने के मकसद से ही सर्वानंद सरकार के शपथ ग्रहण समारोह को वैवभपूर्ण बनाया गया था। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ईराक की यात्रा के बाद सीधे गुवाहाटी इसलिए नहीं आए कि यहां भाजपा की पहली सरकार बन रही है, बल्कि संपूर्ण पूर्वोत्तर को यह संदेश देने आए थे कि पूर्वोत्तर उनके लिए कितना महत्वपूर्ण है। इस समारोह में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के साथ वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के आने का विशेष तात्पर्य है, क्योंकि श्री आडवाणी को पूर्वोत्तर के लोग भाजपा नेता के रूप में जानते हैं। उनका चेहरा आम लोगों के लिए परिचित है। इस समारोह में गुजरात, पंजाब, राजस्थान, झारखंड, गोवा आदि के मुख्यमंत्रियों के साथ प्रभावशाली केंद्रीय मंत्रियों की मौजूदगी पूरे आयोजन के पीछे के मकसद को बयां कर रही थी। इसका संदेश पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों तक तक पहुंचना तय है और इसका मकसद भी यही है।
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भाजपा गठबंधन में शामिल बोड़ोलैंड पीपुल्स फ्रंट भी बांग्लादेश से आकर बसे अल्पसंख्यकों के दबाव के खिलाफ संघर्ष कर रही है। बांग्लादेश से आए नागरिकों के दबाव की वजह से मेघालय की सीमा तक फैले बोड़ो जनजाति लोग पीछे हटते हुए भूटान की सीमा तक आ गए, जबकि पहले बागंलादेश से सटे धुबड़ी और ग्वालपाड़ा जिले तक बोड़ो जनजाति का वास था। राज्य सरकार की तरफ से भी उन्हें उपेक्षा मिल रही थी। बोड़ो जनजाति के हितों के लिए ही आल बोड़ो छात्र संघ (आब्सू) के नेतृत्व में बोड़ो आंदोलन आरंभ हुआ। भयंकर मारकाट मची थी। उनके बीच कई भूमिगत संगठन तैयार हो गए। बांग्लादेशी मूल के लोगों के दबाव की वजह से ही बोड़ो जनजाति में विचलन की स्थिति थी। बोड़ोलैंड के गठन के बावजूद बोड़ोलैंड क्षेत्रीय परिषद के चुनाव में अल्पसंख्यक मतदाता कई क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में आए। जिसकी वजह से कई बार बोड़ोलैंड में बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों और बोड़ो जनजाति के बीच हिंसक संघर्ष हो चुके हैं। यानी असमिया और बोड़ो के समक्ष अपनी अस्मिता और अस्तित्व का संकट था। यह अलग बात है कि इन दोनों के बीच गहरे अंतर्विरोध हैं। अगप और बीपीएफ कभी एकसाथ बैठने को तैयार नहीं थे। भाजपा अकेले चुनाव लड़ कर सत्ता में नहीं आ सकती थी। बेहतर चुनाव प्रबंधन के बल पर उसकी सीटें बढ़ सकती थीं, लेकिन सत्ता मिलना संभव नहीं था। तब भाजपा के रणनीतिकारों ने सभी क्षेत्रीय दलों को एकजुट करके असमिया अस्मिता और भूमिपुत्रों के अस्तित्व का सवाल उठाया। इसके लिए जातीय पहचान के नायक के रूप में चर्चित सर्वानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री का साझा उम्मीदवार घोषित किया गया। भाजपा का यह फार्मूला चल गया। पूरे असम में परिवर्तन की लहर चल पड़ी। कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए डॉ. हिमंत विश्व शर्मा की चुनाव प्रबंधन क्षमता ने रणनीति बनाने में मदद की। पूरे असम में फैले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, एकल विद्यालय, वनवासी कल्याण आश्रम जैसे हिंदुवादी संगठनों के कैडरों ने मतदाताओं को घर से मतदान केंद्र तक लाया।
मुख्यमंत्री सर्वानंद मानते हैं कि असम की पहचान, असमिया संस्कृति की रक्षा, बांलादेशी नागरिकों के प्रभाव को कम करना और विकास के मसौदे के मतदाताओं ने स्वीकार कर लिया, इसलिए भाजपा गठबंधन को सत्ता की चाभी सौंप दी।
अच्छी बात यह है कि मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल सभी को साथ लेकर चलना चाहते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि सभी को भरोसे में लेकर ही राज्य का विकास संभव है। विधान सभा में दिया गया उनका भाषण इस बात का साफ संकेत देता है कि सत्ता का दंभ उन्हें स्पर्श नहीं कर पाया है। उनके भाषण से साफ हो गया है कि वे राज्य के लिए कुछ करना चाहते हैं। वे नहीं चाहते हैं कि उनकी सरकार किसी अन्य दल के प्रति कटुता का भाव रखे। सर्वानंद को पता है कि वे सत्ता में आ चुके हैं और अब कांग्रेस को कोसने की जगह सभी को साथ लेकर विकास की राह में आगे बढ़ना होगा, तभी चुनाव वादों को पूरा किया जा सकता है। आरोप-प्रत्यारोप से विपक्ष को कठघरे में खड़ा किया जा सकता है, लेकिन जनता के भरोसे पर खरा नहीं उतरा जा सकता है। क्योंकि जनता पहले ही कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करके उन्हें सत्ता सौंप चुकी है। सर्वानंद का यही संदेश उनकी भावी योजनाओं की बुनियाद बन सकती है। उनका यह कहना कि सत्ता की जिम्मेवारी लेने के बाद मन से आक्रोश भाव को मिटा देना होगा, बहुत कुछ कह जाता है।
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