वीर सेनापति लाचित बरफुकन

लाचित बरफुकन देशभक्त और वीर अहोम सेनापति था। उसने शराईघाट में विशाल मुगल सेना से अभूतपूर्व लड़ाई कर गुवाहाटी को बचा लिया। इस वीर सेनानायक को सही श्रद्धांजलि तभी होगी जब हम भी उनके जैसे निःस्वार्थ देशप्रेम, कर्तव्यनिष्ठा, एकता और आत्मबलिदान के मर्म को समझ कर उसे अपनाने की कोशिश करेंगे।

असम के इतिहास में तेरहवीं शताब्दी का    समय बहुत ही अस्थिर रहा है। इस शताब्दी में असम के इतिहास एवं जन-जीवन में एक अजीब सा मोड़ आ गया था। उत्तरी बर्मा में इरावती नदी के किनारे बसे प्रांगभान या पांरा राज्य के ‘शान’ जाति की एक शाखा ताई अहोम के लोगों ने पाटकाई पर्वत माला के दर्रे से असम में प्रवेश किया। ‘शान’ वंश का राज्य निष्कासित राजकुमार चुकाफाने अपने कुछ विश्वासी साथियों के साथ असम पहुंचा और उत्तरी-पूर्वी कोने पर शासन करने वाली चुतीया तथा कछारी जाति को छल-बल से परास्त कर के एक वृहद क्षेत्र पर अपना अधिकार जमा लिया। यहीं से अहोमों का असम में प्रवेश करने का इतिहास शुरू होता है। अहोमों ने असम में लगभग छह सौ वर्षों तक राज किया। यह कालखंड सुव्यवस्था, वैभवशाली वास्तुकला, सुदृढ़ शासन प्रणाली, साहस, दूरदर्शिता एवं बुध्दि के कारण इतिहास के पन्नों पर हमेशा अमर है।

इसी वीर जाति के एक अमर वीर तथा प्रबल पराक्रमी अहोम सेनापति थे – लाचित बरफुकन, जिनकी वीरगाथा असम के इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखी गई है। लाचित बरफुकन मोमाई तामुली बरबरूषा के सात पुत्रों में से एक थे। उनमें विवेक और बल का मणिकांचन संयोग देखा जा सकता है। लाचित बरफुकन के हृदय में असीम उत्साह और देश प्रेम चिर प्रवाहित थे, जहां निजी स्वार्थ का कोई स्थान नहीं था।

लाचित बरफुकन ने कला, शास्त्र और युध्द कौशल की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने अहोम स्वर्गदेउ (राजा) के सोलाधरा बरूआ पद अर्थात् निज सहायक के समतुल्य पद से अपना राजनैतिक जीवन शुरू किया। अहोम शासन व्यवस्था मेें इसे किसी भी राजनैतिक जीवन की महत्वपूर्ण सीढ़ी माना जाता था। इसके बाद अपनी योग्यता एवं कार्य दक्षता से घोड़ा बरूआ (शाही घुडसवार रक्षक दल के अधीक्षक) आदि पदों पर आसीन रहे। उनके पिता मोगाइ तामुली बरबरूवा भी एक सच्चे देशभक्त थे, जो कि राजा प्रताप सिंह के शासन काल में बरूवा अर्थात् ऊपरी असम के राज्यपाल तथा अहोम सेना के मुख्य सेनापति थे, लाचित बरफुकन के भाई लालुकखोला बरफुकन तथा बादुली बरफुकन भी वीर देशभक्त थे। उनकी बहन पाश्वरी गाभरू का विवाह अहोम स्वर्गदेउ (राजा) जयध्वज सिंह के साथ हुआ था।

लाचित बरफुकन का जन्म १६१२ ई. में हुआ। पिता की तरह ये भी असाधारण बुध्दि एवं प्रतिभा के धनी थे। अहोम शाासन प्रणाली में कार्य-निपुणता एवं दक्षता के आधार पर व्यक्ति को पद दिया जाता था। लाचित बरफुकन की कार्य कुशलता से प्रभावित होते हुए राजा चक्रध्वज सिंह ने सोने की हत्थे वाली तलवार (देङदाङ) और पारम्परिक वस्त्र उपहार देते हुए सेनापति पद पर नियुक्त किया।

असम समय-समय पर मुस्लिम आक्रांताओं का आक्रमण झेलता रहा और उसका मुंहतोड़ जवाब भी देता रहा। कई बार मुगल काफी सफलतापूर्वक अहोमों की राजधानी गड़गांव तक चढ़ गए थे किन्तु पराक्रमी अहोमों ने उन्हें पराजित कर खदेड़ दिया।

औरंगजेब के शासन काल में मुगलों ने १२हवीं बार रामसिंह के सेनापतित्व में इस राज्य पर आक्रमण किया। राजा चक्रध्वज सिंह ने लाचित बरफुकन को रामसिंह से मुठभेड़ के लिए भेजा। वीर लाचित युध्द के प्रारम्भ में ही अपनी योग्यता और साहसिकता का परिचय देने लगे। बांदबारी और काजली नामक दो स्थान मुगलों से मुक्त कराके, वहां प्राप्त धन – सामान, युध्द सामग्रियां तथा अन्यान्य वस्तुएं राजा को भेज दी गईं। तत्पश्चात् लाचित बरफुकन गुवाहाटी की ओर बढ़ने लगे। राह में कई जगहों पर मुगल सेना से मुठभेड़ हुई। गुवाहाटी पहुंच कर लाचित बरफुकन ने गुवाहाटी और पाण्डु पर अधिकार कर लिया। यहां भी सामान एवं धन की प्राप्ति हुई। केवल पैसों को छोड़ कर शेष सामान इस बार भी राजा को भिजवा दिया गया। रखे हुए पैसों को उन्होंने अपनी सेनाओं में बांट दिया। इससे उनकी विशाल हृदय की उदारता का पता चलता है। इस कार्य से सेना भी अपने सेनानायक पर और अधिक विश्वास करने लगी। उनमें कार्य-उत्साह दुगुना हो गया। इसके बाद कई युध्दों में पराजित होकर मुगल सेना मानाह नदी के तट पर जा पहुंची। यहां भी बरफुकन के युध्द कौशल्य और तेज ने मुगल सेना को मात दे दी। मुगल सेनापति सैयद साना और सैयद फीरोज कई हजार सैनिकों के साथ बंदी बना लिया गया। गुवाहाटी को निचली असम की राजधानी घोषित किया गया। उधर दिल्ली में पराजय की खबर से तिलमिला कर औरंगजेब ने प्रतिशोध की मानसिकता से अम्बराधिपति रामसिंह को विशाल सेना के साथ असम पर अधिकार हेतु भेजा। अहोम स्वर्गदेउ ने भी साइकिया (इस अधिकारी के अधीन सौ सिपाही होते हैं) हजारिका (इस अधिकारी के अधीन हजार सिपाही होते हैं), राजखोवा (इनके अधीन तीन हजार सिपाही), फुकन (इनके अधीन छह हजार सिपाही होते हैं।) आदि को सेनानायक लाचित के साथ देने के लिए भेजा। लाचित बरफुकन ने अपनी विलक्षण दूरदर्शी योजना से उत्तर-दक्षिण तथा नदी के चारों ओर से शत्रु सेना को रोकने के लिए सेना की अलग-अलग टुक़डियां तैनात कर दीं। इनके अविचलित दृढ़ धैर्य एवं युध्द कौशल ही अहोम गौरव की धुरी है। डॉ.सुनीती कुमार चटर्जी कहते हैं- असम के सैनिक संगठन और शासन पध्दति अहोमों की ही देन हैं। केवल असम ही नहीं बल्कि समूचे भारतवर्ष में ऐसी व्यावहारिक, इतनी विस्तृत और सुदक्ष पध्दति इसके पहले कभी देखने को नहीं मिली थी। अहोम इतने शक्तिमान थे कि उन्होंने अपने लिए जिस साम्राज्य की स्थापना की थी, उसका नाम एक पूरे राष्ट्र के रूप में उन्हीं से संबध्द हो गया।’’

मुगल सेनापति रामसिंह असम आ पहुंचे। लाचित बरफुकन ने मुगल सेना के युध्द कौशल और साहस को मापने के लिए तेजपुर के पास कम सेनासहित दो फौजों के साथ युध्द किया। मुगल सेनापति, बरफुकन की इस रणनीति को भांप न पाए और हार का मुंह देखना पड़ा। अहोम सेना की तोपों की गोलों से रामसिंह के भांजे की मृत्यु हुई, तो रामसिंह ने रसीद खां को दो बार बुलावा भेजा। उस समय रसीद खां गीत-वाद्य में व्यस्त थे और जाने से इनकार कर दिया। इसी बात पर रामसिंह और रसीद खां में विवाद हो गया। रसीद खां रामसिंह को छोड़ कर अपने देश वापस लौट गया। जब मुगलों में इस तरह के वाद-विवाद चल रहा था, उस समय अहोम के सभी अधिकारी और सेना एकता के साथ श्रध्दा एवं भक्ति भाव से बरफुकन के आदेश का पालन कर रहे थे। जो सेनानायक अपने अधीन अधिकारियों और सेनाओं के हृदय में श्रध्दा, भक्ति और विश्वास के पात्र बन जाते हैं, उनकी विजय तो निश्चित ही हैं। चारों तरफ से हार कर मुगल सेना ने अब किसी भी प्रकार से- छल-बल-कौशल्य से- गुवाहाटी पर अधिकार करने का निर्णय किया। मुगल सेना गुवाहाटी पर आक्रमण करने के लिए आगियाठुंटी नामक स्थान के पास एकत्र हुई। आगियाठुंटी से गुवाहाटी के रास्ते में वर्तमान आमिनगांव के पास किला बनवाने का काम जिस अधिकारी को दिया गया था, वे बरफुकन के मामा थे। अगले दिन सुबह मुगल सेना आगियाठुंटी से बढ़ते हुए इसी रास्ते से गुवाहाटी में प्रवेश करने आयेगी। अहोम सेना को उनसे यहीं पर मुठभेड़ करनी होगी। अतः रातोंरात किला बन कर तैयार होना चाहिए। परन्तु संध्या समय जब बरफुकन घोड़े में सवार होकर किला निर्माण- कार्य देखने आया तो काम आधा भी सम्पूर्ण नहीं हुआ। मामा से काम पूरा नहीं होने का कारण पूछा, तो मामा ने कहा, ‘‘बोपा देउता! दिने-रातिये काम करि मानुद हाइरान हैसे, आरू किमान करिब?’’ (दिन रात काम करके सभी थक गए है और कितना काम कर पाएंगे?) यह सुनते ही लाचित बरफुकन ने म्यान से तलवार निकाल कर मामा का सिर कलम कर दिया और कहा, ‘‘मोर देशतकै मोमाइ डाङर नदय।’’ (मेरे देश से मामा बड़ा नहीं है।) यह कथन आज एक लोकोक्ति बन कर असम की आम जनता की जुबान पर है। इसे देख कर सभी फिर से काम में जुट गए, रातों-रात किला और खाई निर्माण कर दिया। यह किला ‘‘मोमाइ कटा गड़’’ (मामा को काटने वाला किला) नाम से वर्तमान में प्रसिध्द है। अगले दिन सुबह इसी जगह मुगल और अहोम के बीच युध्द हुआ। अहोम सेना किले के अन्दर से गोली बरसाने लगे। रामसिंह फिर से हार गया और इस बार शराइघाट की तरफ से किले में घुसने की कोशिश करने लगा। यही इतिहास प्रसिध्द ‘‘शराइघाट युध्द’’ है। यह युध्द निरंतर चार महीने तक चला। इन चार महीनों के दौरान बरफुकन के विलक्षण नेतृत्व, युध्द-प्रणाली, दृढ़ संकल्प तथा वीरता का पता चलता है। बरफुकन की योजना और कौशल से, राम सिंह को प्रत्येक आक्रमण में हजारों सैनिकों को खोना पड़ रहा था। मुगल सेनापति को विजय की कोई आशा नहीं दिख रही थी, तो उसने तीन लाख रूपये में गुवाहाटी खरीदने हेतु संधि प्रस्ताव भेजा। इसमें भी असफल होकर, रामसिंह ने इस बार सरिप खां नामक सेनापति को सेना सहित नदी के रास्ते नौका से गुवाहाटी भेजा। इसका पता लगते ही बरफुकन ने अति शीघ्र अंधेरी रात में शाल पेड़ के दो लकड़ों और उस पर नगा ढारि (बांस से बनाया गया एक प्रकार की चटाई) बिछा कर बेड़ा बनाया, बीच में बालू भर कर एक अपूर्व किला तैयार किया। किला बनाने के इस अपूर्व कौशल से सभी चकित रह गए। मुगल-नौकाएं अहोम जल सेना की बाधाओं को तोड़ आगे आने लगीं। उस दिन लाचित बरफुकन तेज बुखार से पीड़ित थे। उन्हें जब पता चला कि शत्रु सेना आगे बढ़ती चली आ रही हैं और अहोम सेना उन्हें रोकने में नाकाम हो रही है, तो उन्होंने बिस्तर समेत उनको नाव में रखने का आदेश दिया और चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगा, ‘‘मुझे स्वर्गदेउ (राजा) ने मुगलों से गुवाहाटी की सुरक्षा के लिए यहां रखा है। अब मैं गुवाहाटी मुगलों को देकर गड़गांव में अपने परिवार के साथ सुख भोगने जाऊं? मुझे आज मुगल को पकड़ कर ले जाने दो। आप लोग जाकर महाराजा को यह संदेश देना।’’ इतना कह कर बीमार लाचित बरफुकन ने अपनी नाव ब्रह्मपुत्र नद की मंझधार की ओर बढ़वाई। लाचित बरफुकन के इस आत्मोसर्ग से प्रेरित होकर दूसरे अधिकारी भी अपनी-अपनी नाव लेकर चल पड़े। जल्द ही नदी नांवों से भर गई। इसे देख कर सेना में भी जोश बढ़ गया। दोनों तटों से तोपों से गोले बरसने लगे। बिना बाधा के गुवाहाटी पहुंचने की उम्मीद से भरा सरिप खां अचानक यह सब देख कर चौंक गया। तोपों के गोलों से मुगल सैनिक-घोड़ों सहित ब्रह्मपुत्र के गर्भ में विलीन होने लगे। मुगल सेना भागने लगी। इसके बाद ब्रह्मपुत्र के दक्षिण में और एक बड़े युध्द में रामसिंह बुरी तरह पराजित हुआ। अंत में सभी प्रयत्नों में विफल हो कर १६७१ ई. में वह वापस अपने देश चला गया।

वीर लाचित बरफुकन ने अपना कर्तव्य सम्पूर्ण रूप से निभाया। उसका जीवन सार्थक हुआ। जन्मभूमि, स्वजाति और राज सभी का उन्होंने महासंकट में त्याग किया। १६६७ ई. से १६७१ ई. तक इस महापराक्रमी वीर देशप्रेमी योध्दा ने, जो अकेले किया वह हजार हजार असमिया मिलकर भी नहीं कर पाते। उनके चरित्र में देशप्रेम, साहस और बुध्दि का त्रिवेणी संगम था। शराईघाट युध्द के एक साल बाद बीमारी के कारण उनका देहावसान हुआ। लाचित बरफुकन आज भी हममें जीवित हैं बहुत ही श्रध्दा और विश्वास के साथ।

१६७२ ई. में राजा उदयदित्य सिंह ने जोरहाट के हूलुंगपारा में लाचित मैदान का निर्माण करवाया। प्रति वर्ष २४ नवम्बर को असम में लाचित दिवस मनाया जाता है तथा राष्ट्रीय सुरक्षा अकादमी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को लाचित बरफुकन स्वर्ण पदक से सम्मानित किया जाता है। इस वीर सेनानायक के प्रति सही सम्मान तभी होगा जब हम भी उनके जैसे निःस्वार्थ देशप्रेम, कर्तव्यनिष्ठा, एकाग्रता और आत्मबलिदान के मर्म को समझ कर उसे अपनाने की कोशिश करेंगे।

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