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अपना शहर

अपना शहर

by सुशांत सुप्रिय
in कहानी, जून २०१८
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“चलने से पहले एक भरपूर निगाह मकान पर डालता हूं। ऐ मेरे मन, रोना नहीं, रोना नहीं -खुद से कहता हूं।  ट्रक चल पड़ा है। पीछे-पीछे कार। अब हम गली से बाहर आ गए हैं। अपना शहर तो छूट गया।”

लीजिए, आपका शहर आ गया, पत्नी ने कार का शीशा नीचे करते हुए कहा। कार शहर के बाहरी इलाक़ों से गुज़र रही थी।

पापा, आप यहीं बड़े हुए थे? पिछली सीट पर बैठे राहुल ने पूछा।

हां, बेटा।

मैंने भी कार का अपनी ओर का शीशा नीचे कर लिया। हवा में जैसे दूर कहीं से लौट आई जानी-पहचानी-सी गंध थी। हम घंटाघर के पास से गुज़र रहे थे। आगे स्कूल। फिर थाना। फिर बाज़ार…

कुछ साल पहले मैं यहां आया था। पिताजी के देहांत के समय। अकेला।

मां को साथ ले जाने।

यह वह शहर था जहां मैं पैदा हुआ था। पला-बढ़ा था। स्कूल-कॉलेज गया था।

पापा, क्या यही आपका स्कूल था?

हां, बेटा।

कार स्कूल के सामने से गुज़र रही थी।

पापा, आप शरारती बच्चे थे या सीरियस? राहुल पूछ रहा था।

-सुरिंदर? … येस मैडम।

-नफ़ीस? … प्रेज़ेंट मैडम।

-सुमन?… येस मैडम।

-माइकल? … येस मैडम।

-मनीष? … येस सर ! सॉरी ! येस मैडम …

कार जी.टी. रोड पर भाग रही है। सड़क के दोनों ओर लगे बरगद के बरसों पुराने पेड़ काट दिए गए हैं। दोनों ओर नई-नई कोठियां, नई-नई दुकानें बन गई हैं। इलाक़ा इतना बदल गया है कि पहचाना नहीं जा रहा।

कार एक बंद गली के आख़िरी मकान के सामने आकर रुकती है। यहीं मैं पैदा हुआ था। यहीं मैं पला-बढ़ा था। इस मकान से जुड़ी यादों का ख़ज़ाना है मेरे ज़ेहन में।

जाड़ों की गुनगुनी धूप में छत पर मूंगफली खाते और पतंगें उड़ाते हम भाई-बहन। गर्मियों की छुट्टियों में मकान के भीतर ठंडे कमरों में ’रूह अफ़्जा’ पीते और शतरंज खेलते हम भाई-बहन। दफ़्तर से लौटकर हम भाई-बहनों को ’बैगाटेल’ नाम का नया खेल खेलना सिखाते पिताजी। दीवाली की शाम को गणेश-लक्ष्मी की पूजा करते मां-पिताजी और गली में पटाखे छोड़ते हम भाई-बहन। पटाखों की आवाज़ से डरकर पलंग के नीचे दुबक जाता हमारा पालतू कुत्ता जैकी। गली में गिल्ली-डंडा और कंचे खेलते हम भाई-बहन।

पापा, क्या हम हर साल यहां नहीं आ सकते? कार से उतरते हुए राहुल पूछता है। मेरी आंखें उसकी मां की आंखों से मिलती हैं। फिर मैं दूसरी ओर देखने लगता हूं।

इस बार मैं इस मकान को बेचने आया हूं। जब तक मां थीं, मैंने उनकी इच्छा का सम्मान किया। अब मां भी नहीं रहीं। एक भाई विदेश में है। दूसरा देश के सुदूर कोने में। भाई-बहन सब की यही राय है कि अब यह मकान बेच दिया जाए। क्या मकान बेच देने से उससे जुड़ी यादें ख़त्म हो जाती हैं? क्या मकान बेच देने से उसमें बिताए पल नष्ट हो जाते हैं?

अब हम मकान के भीतर आ गए हैं। बेड रूम की दीवार पर पिताजी की फ़ोटो टंगी हुई है। फ़ोटो पर धूल जमी हुई है। और सूख गए फूलों की माला टंगी हुई है। सूखी फूल-माला हटा कर मैं फ़ोटो दीवार से उतार लेता हूं। जेब से रुमाल निकालकर पिताजी की़ फोटो साफ़ करता हूं। फ़ोटो में पिताजी मुस्करा रहे हैं। लगता है जैसे अभी बोल पड़ेंगे- मन्नू, क्या बात है, बेटा? इतने गंभीर क्यों हो?

पापा, दादाजी हमारे साथ क्यों नहीं रहते थे? मेरे बगल में खड़ा राहुल पूछ रहा है। और मेरे ज़ेहन में कुछ बरस पहले का दृश्य उभरने लगता है।

आंगन में पिताजी का पार्थिव शरीर पड़ा है। बगल में मां सिसक रही है। मां को सहारा दिए बहन बैठी है। गिनती के दो-चार लोग और हैं। पिताजी की आंखें बंद हैं। चेहरे पर पीड़ा की कुछ स्पष्ट लकीरें हैं। पिताजी को रात में दिल का दौरा पड़ा था। जब तक उन्हें अस्पताल ले जा पाते, वे चल बसे थे।

पिताजी यहां चालीस साल पहले आ कर बसे थे। उन्हें इस प्रांत से, इस शहर से मोह था। यहां की भाषा, संस्कृति, लोग -सब उन्हें अच्छे लगते थे। पर यहां वालों ने उन्हें कभी अपना नहीं समझा। उन्हें दफ़्तर में, मोहल्ले में, समाज में, हर कहीं यह अहसास दिलाया जाता था कि वे ’सन-ऑफ़-द-सॉइल’ नहीं हैं, वे ’बाहरी’ हैं। वे यहां दूसरे दर्ज़े के नागरिक थे। और उनके साथ हम भी। क्योंकि हमारा रंग थोड़ा गहरा, नाक थोड़ी चपटी, और बोली थोड़ी अलग थी। क्योंकि यहां  खड़ी नाक वाले लोग रहते थे। उनका रंग साफ़ था। उनकी बोली अलग थी। उनके रीति-रिवाज भिन्न थे। वे यहां के ’धरती-पुत्र’ थे। जबकि हम ’बाहरी’ थे।

आप कहीं चालीस साल रहते हैं। आप वहां की भाषा-बोली, वहां के रीति-रिवाज, वहां की संस्कृति सीखते हैं। आप को वहां के लोग, वहां की मिट्टी अच्छी लगने लगती है। आप ’वहीं का’ हो कर रहना चाहते हैं। आप चाहते हैं कि आकाश जितना फैलें, समुद्र भर गहराएं, फेनिल पहाड़ी नदी-सा बह निकलें। पर चूंकि ‘आप’ ‘बाहरी’ हैं, इसलिए आप को हथेली जितना भी नहीं फैलने दिया जाता, अंगुल भर भी नहीं गहराने दिया जाता, आंसू भर भी नहीं बहने दिया जाता। आपकी पीठ पर कांटों के जंगल उग जाते हैं जहां आपको मिलती हैं केवल मरी हुई तितलियां और झुलसे वसंत। आप पाते हैं कि आप किसी आग की झील में हैं जहां सर्पों के सौदागर रहते हैं …

फिर यहां के ’बाहरी’ लोगों के ख़िलाफ़ पहली बार दंगा हुआ। और हमारे भीतर-बाहर कई कश्मीर, कई गुजरात, कई बोस्निया, कई फ़िलिस्तीन घट गए। तब हमें यह निर्णय लेना पड़ा कि क्या हम दूसरे दर्ज़े का नागरिक बन कर यहीं रहें और दंगों की भेंट चढ़ जाएं, या अपने हिस्से की धूप, अपने हिस्से की हवा, अपने हिस्से का आकाश तलाशने कहीं और जाएं? हम भाई-बहन बाहर निकल गए। इस घुटन और यंत्रणा से दूर। लेकिन पिताजी ने मां के साथ यहीं रहने को चुना। हम सब ने बहुत समझाया -पिताजी, अब यहां क्या रखा है? हमारे साथ चलिए। हम भाई-बहनों का यहां से मोह-भंग हो चुका था। एकाध अपवाद को छोड़ दें तो जिनके साथ खेले-कूदे, जिनके बीच पले-बढ़े, वे ही आज आपके ख़ून के प्यासे बन गए थे।

जब पड़ोसी ही आपके ख़ून का प्यासा बन जाए तो उस जगह रहने की क्या तुक है?

पर पिताजी नहीं माने।

मैंने अपने जीवन के अमूल्य वर्ष यहां की धरती को दिए हैं। यह मेरी कर्म-भूमि रही है। इन लोगों के बीच ही मेरा जीवन गुज़रा है। मुझे इस धरती से प्यार है। यहां की हवा, पानी, मिट्टी से प्यार है। यहां वाले चाहे मुझे जो मानें, अब मुझे यहीं जीना-मरना है। बच्चो, तुम लोग जाना चाहो, जाओ। मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। पर मुझे और अपनी मां को यहीं रहने दो। पिताजी ने कहा था।

पिताजी, आपने यहां बहुतों का भला किया। बहुत सारे यहां वाले आप को सीढ़ी बना कर ऊपर चढ़ गए। यहां बहुतों ने आपको पुल बना कर मंज़िलें पाईं। पर पिताजी, आप की अर्थी को कंधा देने ये नहीं आए। आप यहां चालीस वर्ष रहे।

आपने इन्हें अपना माना। आप इनके दुख-सुख में शरीक हुए। पर आपकी शव-यात्रा में शामिल होने ये नहीं आए। यहां वालों के लिए शुरू से अंत तक आप ’बाहरी’ ही रहे, पिताजी। केवल दूसरे दर्ज़े के नागरिक …

मकान का सौदा हो चुका है। राहुल बेहद उदास है। भीतर कहीं मेरे मन का एक कोना भी उदास है। एक रिश्ता है जो छूट गया है। एक बंधन है जो टूट गया है। मुझे माफ़ कर दीजिएगा, मां-पिताजी। मुझे माफ़ कर देना मेरे शहर।

सामान ट्रक में लादा जा चुका है। पिताजी की लाइब्रेरी साथ ले जा रहा हूं। किताबों में पिताजी की आत्मा बसती थी।

चलने से पहले एक भरपूर निगाह मकान पर डालता हूं। ऐ मेरे मन, रोना नहीं, रोना नहीं -खुद से कहता हूं।

ट्रक चल पड़ा है। पीछे-पीछे कार। अब हम गली से बाहर आ गए हैं।

पापा, क्या अब हम यहां कभी नहीं आएंगे? राहुल उदास स्वर में पूछ रहा है।

चलते समय पड़ोस में रहने वाले बूढ़े बाबा लाठी टेकते हुए मिलने आ गए थे।

जा रहे हो बेटा? मकान बेच कर तुमने अच्छा नहीं किया।  उन्होंने कहा था। ख़ैर ! यह तुम्हारा अपना शहर है। कभी-कभार आते रहना।

Tags: arthindi vivekhindi vivek magazineinspirationlifelovemotivationquotesreadingstorywriting

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