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सबक

सबक

by शिवदत्त चतुर्वेदी
in कहानी, दिसंबर २०१८
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“वाह! बेटा वाह! मैं जीवनभर दिवाली अपने अहंकार के साथ नकारात्मक मनाता रहा। असली दिवाली का उत्सव तो तुमने मनाया है। धन्य हो तुम! धन्य हैं माता महालक्ष्मी और धन्य है दीपावली का यह महापर्व।”

ब्रजेश बाबू ने बी.ए. करने के बाद शहर के सबसे अच्छे कोचिंग इंस्टीट्यूट में प्रवेश लिया। वे आई. ए. एस. करके अधिकारी बनना चाहते  थे। बचपन से उनकी आंखों में यही सपना था। लक्ष्य पर निरंतर दृष्टि होने के कारण ब्रजेश बाबू सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। मैट्रिक, इंटर मीडिएट, बी. ए. में भी उन्होंने मेरिट में स्थान प्राप्त कर गजानन बाबू का नाम रोशन किया। गजानन बाबू ब्रजेश बाबू के पिता हैं। जब कोई उनसे ब्रजेश बाबू के विषय में बात करता तो वे प्रसन्नता के साथ कहते-भई! लक्ष्मी जी की कृपा है। दिवाली के दिन जन्मा है: माता लक्ष्मी का प्रसाद है इसीलिए संस्कारी है। ब्रजेश बाबू सच में ही बहुत संस्कारी हैं। वे अपने से बड़ों का सम्मान पूरे मन से करते हैं। छोटों से उनका व्यवहार सदा स्नेहित रहता है। प्रत्येक कार्य को पूरी जिम्मेदारी के साथ करते हैं।

ब्रजेश बाबू भी अपने पूरे परिवार के समान दिवाली को बहुत महत्व देते हैं। दें भी क्यों न! दिवाली का दिन उनका जन्मदिन भी है तथा उनके परिवार में मनाया जाने वाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व।

हम भी यह मान सकते हैं कि ब्रजेश बाबू पर लक्ष्मी जी की कृपा हुई और वे आई. ए. एस. हो गए। फॉरेस्ट ऑफिसर के रूप में उनकी नियुक्ति राजस्थान के रावत भाटा अभयारण्य में हो गई। उन्हें अपना शहर बनारस और परिवार छोड़कर जाना था। सारी तैयारी पूरी हो गई। जाने से पहले पिताजी (गजानन बाबू) ने उन्हें बुलाया और अपने पास बिठाकर बोंले-‘बेटा! तुम मेरे आदर्श बेटे हो इसलिए ध्यान से सुनो। आज तुम्हारे जीवन की एक नई शुरूआत हो रही है। बेटा! नौकरी पूरे मन से करना। लक्ष्मी जी की कृपा तुम पर बनी रहे, इसलिए सुविधा शुल्क लेकर लोगों के काम करना। प्रयास करना कि मिठाई के डिब्बे में भी नोटों की गड्डियां हों। कोई तुम्हें उपहार देने आए तो वह उपहार केवल सजावट का सामान न हो उसकी कीमत करोड़ों में हो, जमीन, जायदाद, नकदी कुछ भी हो लेने से पीछे मत हटना क्योंकि, यह सब लक्ष्मी जी का प्रसाद है।

तुम सौभाग्यशाली हो फॉरेस्ट ऑफीसर बनकर समाज सेवा करने जा रहे हो, हम तो केवल पुलिस विभाग में थानेदार तक ही सीमित रहे, फिर भी यह तीन मंजिला बंगला बनाया। तुम्हारी बहन और तुम्हारी ठाट से शादी की, यहां तक कि तुम्हारी शादी पूर्व-विधायक की बेटी से हुई, यह बड़ी बात है; वरना आजकल कौन नेता मंत्री अपनी बेटी की शादी किसी थानेदार के बेटे से करेगा।

ब्रजेश बाबू को पिता की बातें अनुचित लग रही थीं, फिर भी वे आदर्श बेटे बने सुनते रहे। गजानन बाबू ने आगे कहा-‘बेटा! दिवाली पैसे से मनती है और पैसा कमाने से आता है। तुम मेरी बात समझ रहे हो न! तुम्हें पैसा कमाना है किसी भी तरह, जिससे इस घर में सदा दिवाली मनती रहें।’

कुछ रूक कर वे पुन: बालें- ‘देखो! एक बात याद आ गई। जब तुम छोटे थे हमारे बंगले के बाहर सड़क पर एक झुग्गी थी। तुम्हें शायद याद नहीं होगा। दिवाली का दिन था। हमारे घर में दिवाली का शानदार उत्सव हो रहा था। लोगों का आना-जाना जारी था। मुझे किसी ने बताया कि बाहर झुग्गी से रोने-पीटने की आवाजें आ रही हैं जो कि उत्सव के समय अच्छी नहीं लग रही थी। मैं तुरंत वहां पहुंचा और उनसे चुप होने के लिए कहा, वे चुप नहीं हुए; क्योंकि उनके इकलौते बेटे की उस दिन तीव्र बुखार से मौत हो गई थी। मैंने उन्हें हिदायत दी परन्तु जब उन्होंने मेरी बात को अनसुना किया तो मैंने उस झुग्गी में आग लगा दी लेकिन दिवाली का उत्सव मनाया। उस उत्सव में विघ्न नहीं आने दिया। बेटा! यही कारण है कि हमारे परिवार पर मां लक्ष्मी की कृपा सदा बनी रही है और क्या कहूं तुम समझदार हो उचित निर्णय लेना।’

ब्रजेश बाबू का मन पिता की बातों से खिन्न हो चुका था। वे विरोध करना चाहते थे पर शांंत रहे। पिता जी की जगह कोई और होता तो शायद वे उसे इसका दण्ड देते। चुपचाप अपना सुटकेस उठाया और चल दिए। मन ही मन पिता के कुकृत्यों पर जितनी  घृणा हो रही थी, सही और न्यायपूर्ण कार्यों में उतनी ही निष्ठा भी जाग्रत हो चुकी थी। मन ही मन दृढ़ निश्चय किया-‘मैं वही करूंगा जो समाज, देश और मानवता के हित में होगा, मैं उचित निर्णय लूगा। अपना कर्तव्य पूर्ण निष्ठा से निभाऊंगा।’

वे रावत भाटा पहुंचे, जंगल में पहाड़ी के किनारे ही फॉरेस्ट ऑफीसर का कार्यालय था। कुछ ही दूरी पर फॉरेस्ट अधिकारी के निवास हेड वन विभाग ने बंगला बनाया था। यहीं जाकर ब्रजेश बाबू ने अपना आश्रय बनाया। पूरा दिन कार्यालय में काम करते रहे। शाम के पांच बजते ही अपने आश्रय स्थल पहुंचे।

भोजन करने के पश्चात संध्या की और फिर विश्राम किया। यही क्रम चलता रहा।

अक्टूबर का महीना था। आकाश में घने बादल छाए हुए थे। धीमे-धीमे हल्की फुहारें आ रही थीं। पूरा जंगल जैसे सुनसान हो चुका था। ब्रजेश बाबू ने चौकीदार को खिड़की दरवाजे बंद करने का आदेश दिया और शयन कक्ष में चले गए। उन्हें लेटे हुए लगभग एक ही घंटा हुआ था कि अचानक जंगल में कुछ उठा-पटक और आदमियों के जोर लगाने की आवाज सुनाई दी। ब्रजेश बाबू को लगा कि वे स्वप्न देख रहे हैं। तभी गाड़ी के स्टार्ट होने की आवाज सुनी तो वे चौकन्ना हो गए। तुरंत अपने बिस्तर से उठे, कपड़े पहने और चौकीदार को साथ लेकर बंगले की चारदीवारी के पार सड़क पर पहुंचे। देखा कि एक ट्रक वहां से गुजरने वाला था। ब्रजेश बाबू ने ट्रक को रोका। पीछे झांक कर देखा। ट्रक में कटे हुए पेड़ों के प्ररोह थे। ब्रजेश बाबू को समझते देर न लगी। जंगल में पेड़ों के अवैध कटान एवं तस्करी का गंदा खेल चल रहा था। ब्रजेश बाबू ने ट्रक नं. नोट किया। ड्राइवर से पूछा-‘किसकी गाड़ी है? ड्राइवर ने निडरता के साथ उत्तर दिया- बी. डी. आर. रोडलाइन्स के मालिक भगवान दास राजपूत की।’

ब्रजेश बाबू ने ड्राइवर से ट्रक साइड से लगाने को कहा परंतु वह उनकी आंखों में धूल झोंककर रफू चक्कर हो गया। रात में ही चौकीदार को साथ लेकर ब्रजेश बाबू पुलिस चौकी पर पहुंचे और चौकी प्रभारी को जगाकर एफ. आई. आर. दर्ज करने के लिए कहा। पहले तो चौकी प्रभारी एफ.आइ.आर. दर्ज करने के स्थान पर ब्रजेश बाबू को समझाने लगा-‘सर! बुरा न मानें, वे अच्छे लोग नहीं हैं। यहां जंगल में रह कर उनसे दुश्मनी लेना अच्छी बात नहीं है। सही अर्थों में इस जंगल के राजा हैं वे लोग।’

ब्रजेश बाबू ने कहा- ऐसे चोर-उचक्कों को जंगल का राजा आप जैसे लोग ही बनाते हैं। मैं कहता हूं एफ.आई.आर. दर्ज करो; नहीं तो मुझे कप्तान साहब से बात करनी पड़ेगी।

ब्रजेश बाबू की यह धमकी सुनकर उसने एफ.आइ.आर. दर्ज कर ली। अगली सुबह 11 बजे चौकी प्रभारी भगवान दास राजपूत के साथ ब्रजेश बाबू के कार्यालय में उपस्थित हुए। चौकी प्रभारी ने उनकी मध्यस्थता का प्रयास किया।

चौकी प्रभारी बोला-‘देखिए साहब! आजकल हर व्यक्ति अपना-अपना सोचता है। आपकी ड्यूटी एफ.आई.आर. कराने के बाद पूरी हो गई और अब मैं बी.डी.आर. को साथ लेकर आया हूं, समझौता कर लीजिए।’

बी.डी.आर. मुस्कराते हुए बोला-‘साहब जी! आप नए-नए हैं। कुछ दिन यहां रहना है फिर ट्रान्सफर होकर कहीं और चले जाओगे। आपको क्या मतलब, जंगल में कहां क्या हो रहा है? हम अपना काम कर रहे हैं। आप अपना काम करिए और अांंखें बंद रखिए। इसके लिए मैं आपको इसी समय दस लाख देने को तैयार हूं।’

फॉरेस्ट ऑफिसर ब्रजेश ने कहा-‘मेरे जैसे लोग रिश्वत नहीं लेते।’

बी.डी.आर.-‘पन्द्रह लाख में सौदा तय रहा।’

फॉरेस्टर ऑफिसर-‘मैं अपना फर्ज पूरा कर रहा हूं बी.डी. आर.।’

बी.डी.आर.-‘मैं बीस लाख देने को तैयार हूं। बस आप चुप रहे।’

फॉरेस्ट ऑफिसर-‘बी.डी.आर. सत्य की आवाज दबा नहीं करती।’

बी.डी.आर.-‘सत्य की आावाज तो शांत भी हो जाती हैं साहब, आप 25 लाख लीजिए।’

चौकी प्रभारी- ‘पच्चीस लाख कम नहीं हैं साहब। आपसे पहले तो बी.डी.आर. साहब पांच-पांच लाख रूपये में ही डील करते थे।’

बी.डी.आर.- ‘कोई बात नहीं! हम पैंतीस लाख देने को तैयार हैं।’

फॉरेस्ट ऑफिसर-‘35 लाख तो क्या आप मुझे 35 करोड़ में भी नहीं खरीद सकते। जब तक मैं यहां हूं तस्करी नहीं होंगी।’

बी.डी.आर.-‘तो जैसी आपकी इच्छा।’

इतना कहकर बी.डी.आर. तथा चौकी प्रभारी चलने लगे तो फॉरेस्ट ऑफिसर ब्रजेश बाबू ने चौकी प्रभारी से कहा- ‘एस.आई. साहब! बेहतर है कि आप दलाली छोड़कर अपनी ड्यूटी करें। बी.डी.आर. को अरेस्ट करके हिरासत में लिया जाए और फिर मुकदमा चलाया जाए।’

चौकी प्रभारी और बी.डी.आर. मुस्कराते हुए निकल गए।

अगले दिन शाम 6 बजे ब्रजेश बाबू अपने घर पहुंचे ही थे कि चौकी प्रभारी दो सिपाहियों के साथ उनके आश्रय पर पहुंचे तथा वारंट अधिकारी ने उनको ही अरेस्ट कर लिया।

ब्रजेश बाबू पर मुकदमा चलाया गया। चौकी प्रभारी तथा बी.डी.आर. अदालत में ही उपस्थित थे। उन पर बी.डी.आर. को धमकाने और उससे 50 लाख रूपये रिश्वत मांगने का आरोप लगा।

चौकी प्रभारी ने ब्रजेश बाबू के विरूद्ध गवाही दी। तमाम कोशिशों के बाद भी वे स्वयं को निर्दोष सिद्ध न कर सके। चौकी प्रभारी तथा सिपाहियों की गवाही की रोशनी में अदालत ने ब्रजेश बाबू को अभियुक्त मानकर तीन महीने सश्रम कारावास की सजा सुनाई। ब्रजेश बाबू निराश मन कर्तव्य एवं निष्ठा की पराजय देखकर दुखी थे। उन्हें पद से पदच्युत कर दिया गया। जेल की सलाखों के पीछे वे स्वयं को असहाय एवं लाचार अनुभव कर रहे थे।

दो दिन बाद दिवाली थी। ब्रजेश बाबू की दिवाली कारागार में हुई। दुखी मन से उन्होंने माता लक्ष्मी से प्रार्थना की-‘हे मां महालक्ष्मी, यदि मैंने जीवन में कभी गलत किया हो तो ही मैं यहां रहूं अन्यथा मेरी कर्तव्यनिष्ठा एवं ईमानदारी मेरी सहायता करें।’

दिवाली पर बेटा घर नहीं आया तो गजानन बाबू चिंतित हुए। दिवाली के बाद गजानन बाबू ने किसी भी तरह पता कर ही लिया कि ईमानदारी तथा कर्तव्यनिष्ठा के कारण ब्रजेश बाबू सलाखों के पीछे हैं।

जमानत देकर उन्होंने बेटे को मुक्त तो करा लिया लेकिन जी खोलकर कोसा? तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। बुढ़ापे में मेरे नाम पर कलंक लगा दिया। बहुत ईमानदार बनने का शौक है; अब जीवन भर घर बैठकर रोटियां तोड़ना। कितना समझाया था लेकिन तुमको समझ कहां है? हमने जीवनभर नौकरी की, पुलिस विभाग में रहकर भी किसी से झगड़ा मोल नहीं लिया। सभी का काम निकाला और अपना घर भरा पर तुम तो मूर्ख ठहरे न, तुम्हें यह सब बताने का क्या लाभ?’

घर आने पर मां और पत्नी ने भी आंखें उठाकर नहीं देखा। ब्रजेश बाबू अकेले थे; कोई साथी के रूप में था तो उनका धैर्य एवं सत्य पर विश्वास था। पराशक्ति मां महालक्ष्मी पर विश्वास रखते हुए उनका समय व्यतीत हो रहा था। कुछ दिन यूं ही गुजर गए। इस बीच ब्रजेश बाबू समाज सेवा से इस तरह जुड़े कि प्रत्येक सेवा कार्य में अपना योगदान देने लगे। नौकरी से पदच्युत हुए ग्यारह महीने बीत चुके थे।

सितम्बर का आखिर सप्ताह था। सुबह के 1 बजे ही थे कि ब्रजेश बाबू को सूचना मिली कि बनारस के निकट ही ट्रेन पटरी से उतर जाने के कारण गंभीर हादसा हुआ है। यह सुनते ही दौड़कर घटनास्थल पर पहुंचे। दूसरे स्वंयसेवकों के साथ गंभीर रूप से घायलों को अस्पताल पहुंचाने का प्रबंध करने लगे। घायलों का परीक्षण करते समय वे अवाक् रह गए जब एक घायल ने उनका हाथ पकड़ कर कहा-‘मेरी बात सुनिए साहब!’ ब्रजेश बाबू ने उसे गौर से देखा तो वह बोला-‘मैं बी.डी.आर. हूं। मुझे अस्पताल मत पहुंचाइए साहब। मेरी बात सुन लीजिए।’

ब्रजेश बाबू रूककर उसकी बात सुनने लगे। ‘मैं बहुत ही  दुष्ट व्यक्ति हूं। मैंने सदा तस्करी का धंधा किया है। मैंने केवल वृक्षों का अवैध कटान ही नहीं किया अपितु जंगली जानवरों को मार कर उनकी खाल की भी तस्करी की है।…. आज मरने से पहले… अपने गुनाह कुबूल कर रहा हूं।’

इतना कह कर उसने दम तोड़ दिया। पास ही खड़े पत्रकारों ने इस घटना को अपने कैमरों में कैद कर लिया। पूरे देश में ब्रजेश बाबू के बेगुनाह होने की खबर फैल गई। साथ ही सरकार द्वारा उन्हें पांच लाख रूपये का आदर्श नागरिक सम्मान प्रदान किया गया। जिस दिन ब्रजेश बाबू को यह सम्मान मिला उस दिन भी दिवाली ही थी। उन्हें पुरस्कार प्राप्त करते देख गजानन बाबू कह रहे थे-‘वाह! बेटा वाह! मैं जीवनभर दिवाली अपने अहंकार के साथ नकारात्मक मनाता रहा। असली दिवाली का उत्सव तो तुमने मनाया है। धन्य हो तुम! धन्य हैं माता महालक्ष्मी और धन्य है दीपावली का यह महापर्व।’

 

 

Tags: arthindi vivekhindi vivek magazineinspirationlifelovemotivationquotesreadingstorywriting

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