अरुणजी का अवसान मारीशस में एक युग की समाप्ति है, किन्तु भारत भी अससे अछूता नहीं रहा है। अरुणजी ने जिस प्रकार से बीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध तथा इक्कीसवी सदी के प्रारंभ में समय की आवश्यकता के अनुरूप समाज को श्रीराम चरित से जोड़ने का सद्प्रयास किया, वह अभिनंदनीय तो है ही, किन्तु अनुकरणीय भी है।
मारीशस के तुलसी तथा वहां के राम भक्त भारतवंशियों के बीच गुरुजी के नाम से सबके श्रद्धा केन्द्र प्रखर रामायण के अध्येता राजेन्द्र अरुण 21 जून 2021 को भगवान श्रीराम के चरणों में सदा के लिए समर्पित हो गए। मारीशस ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के भारतवंशी देशों में जहां जहां रामायण और रामकथा प्रचलित है वहां अपनी वग्मिता, वाक्पटुता तथा विलक्षण शैली में श्री राम कथा के मर्मज्ञ एवं प्रवक्ता, साथ ही एक सिद्धहस्त लेखक के रूप में श्री अरुणजी ने जो स्थान बनाया था, वह अनिर्वचनीय है। अरुणजी का अवसान मारीशस में एक युग की समाप्ति है, किन्तु भारत भी अससे अछुता नहीं रहा है। अरुणजी ने जिस प्रकार से बीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध तथा इक्कीसवी शतीं के प्रारंभ में समय की आवश्यकता के अनुरूप समाज को श्रीराम चरित से जोड़ने का सद्प्रयास किया, वह अभिनंदनीय तो है ही, किन्तु अनुकरणीय भी है।
उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र के छोटे से गांव नरवां पीताबरपुर में 29 जुलाई 1945 को जन्में प. राजेन्द्र अरुण का प्रारंभिक लालन पालन ग्रामीण परिवेश में हुआ, किन्तु उनके व्यक्तित्व का पल्लवन एक वैश्विक स्वरुप लेकर निखरा। प्रयाग विश्वविद्यालय में जब वह विद्याध्ययन कर रहे थे, उनका संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ज्येष्ठ स्वयंसेवक एवं कार्यकर्ता मा भाऊराव देवरस से हुआ और युवावस्था में ही उनका सम्पूर्ण चित्त और चिंतन संघ को समर्पित हो गया। संघ की शाखा ने उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व को और अधिक तेजस्विता प्रदान की और उन्होने एक समर्थ एवं सशक्त पत्रकार तथा सिद्धहस्त रचनाकार के रूप में भारत के पत्रकार जगत में अपना स्थान बना लिया। उनकी रचनाधर्मिता तथा सशक्त लेखन क्षमता से मारीशस के प्रथम प्रधानमंत्री चचा श्रीराम गुलाम तब बहुत प्रभावित हुए, जब अरुणजी 1973 में मारीशस में आयोजित आर्य महासम्मेलन की कवरेज को उन्होंने पढ़ा। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर मारीशस के प्रधानमंत्री ने युवा राजेन्द्र अरूण को मारीशस से प्रकाशित होने वाले हिन्दी अखबार ‘जनता’ के प्रबंध सम्पादक के रूप में काम करने का प्रस्ताव दिया। जिसे अरुण श्रीराम जी की प्रेरणा से स्वीकार कर लिया और वहां उन्होंने उस ‘जनता’ समाचार पत्र को एक ऐसे मुकाम पर पहुंचाया कि ङ्गजनताफ अखबार मारीशस में श्री अरुणजी के घर घर का अखबार बन गया।
मारीशस में श्री अरुणजी के व्यक्तित्व का एक अभूतपूर्व रुपांतरण हो गया। वास्तव में श्री अरुणजी कबीर और कृष्ण के प्रति भक्तिभाव रखते थे, लेकिन जब उन्होंने मारीशस के जन मन को पढ़ना और लिखना शुरू किया, तो उन्होंने देखा कि वहां की माटी में राम का नाम है और शने-शनेः अरुणजी भी राम के रंग में रंगने लगें और अंततोगत्वा वे राममय हो गए और अपनी वय की अर्द्धशताब्दी के बाद तो वे पूर्ण रूप से राम में रम गए और उन्होंने मारीशस में रामायण सेंटर स्थापित करने का संकल्प लिया, जो न केवल मारीशस में बल्कि सम्पूर्ण विश्व में श्री राम कथा और राम संस्कृति का अभिनव अध्ययन एवं शोध के केन्द्र के रूप मे जाना जाए। इसके लिए उन्होंने मारीशस गणराज्य की सरकार से आग्रह किया और यह उनके तेजस्वी और मनस्वी व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि मारीशस सरकार ने उनके प्रस्ताव का सम्मान करते हुए यह निर्णय लिया कि इस प्रस्ताव को मारीशस की संसद में एक अधिनियम को पारित करके रामायण सेंटर को स्थापित करेगी और इक्कीसवी सदी का प्रारंभ मारीशस की संसद ने श्री रामायण सेंटर की स्थापना का 7 वां बिल पारित करके यह संकेत दिया कि जिस प्रकार सृष्टिक्रम में राम परमात्मा के 7 वें अवतार के रूप में माने जाते है। उसी परम्परा के अनुरूप मारीशस की संसद ने 7 वें बिल के रूप में रामायण सेंटर को सर्वानुमति से पारित करके इक्कीसवी सदी का स्वागत किया रामायण सेंटर के प्रति उनकी संकल्पशक्ति कितनी प्रबल थी यह उसका अनुभव तब हुआ जब उन्होंने कहा था कि यदि मारीशस की संसद उसकी अनुमति नहीं देगी तो वह अपने लोबोर्देन, मारीशस में अपने घर को बेचकर उससे प्राप्त रकम से रामायण सेंटर की स्थापना करेंगे। लेकिन श्री हनुमानजी की कृपा से मारीशस की संसद ने विश्व में इतिहास रचा और रामायण सेंटर बिल को बहुमत से नहीं बल्कि एकमत से पारित करके मानवीय मूल्यों और आदर्शों को आधुनिक युगबोध के अनुसार परिभाषित करनेवाले अध्ययन एवं अध्यात्मिक केन्द्र के रूप में स्थापित करने की अपनी अनुमति प्रदान की। यह श्री राजेन्द्र अरुण, प्रबल इच्छाशक्ति को प्रकट करनेवाला कृत्य था। आचार्य सेवक वात्सायन की पंक्तियों में उनके व्यक्तित्व का वह पहलू प्रकट होता है…
जो होता है, होने दो। यह पौरुषहीन कथन॥
जो हम चाहेंगे, होगा। इन शब्दों में जीवन हैं॥
रामायण सेंटर श्री राजेन्द्र अरुण का केवल मारीशस ही नहीं बल्कि भारत सहित सम्पूर्ण विश्व को दिया गया एक अनुपम उपहार है। इसके निर्माण में भारत की अनेक संस्थाओं का भी योगदान था, जिसमें मुंबई की श्री भागवत परिवार के योगदान का उल्लेख समीचीन प्रतीत होता है। क्योंकि उसने मुंबई के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में एक मील के पत्थर को स्थापित किया था।
अरुणजी की दीर्घ साधना और आराधना का प्रतिफलन राम सेंटर है। जिसकी हर शिला पर अरुणजी के भक्ति और शक्ति के हस्ताक्षर हैं, वे न केवल पत्रकार, साहित्यकार, कथाकार, रचनाकार थे बल्कि शब्दों के जादूगार के साथ साथ शिल्पकार भी थे। उनकी आठ पुस्तकें हिन्दी तथा रामभक्ति साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। उनकी सबसे पहले कृति थी हरि कथा अनन्ता और अंतिम थी मानस में नारी इसके बीच उन्होंने भरत चरित पर भरत गुन गाथा; रघुकुल रीति सदा; रोम रोम में राम; तजु संसय भज राम; जनजननि जानकी की रचना की थी उनके आकस्मिक अवसान पर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए रा. स्व. संघ के प. पू. सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवतजी ने कहा कि, बहुत वर्षों से मेरा राजेन्द्र अरुणजी से परिचय रहा है। संघ की योजना से मारीशस की दो बार यात्रा में उनसे लंबी भेंट व वार्ता हुई थी। दूसरी बार में राजेन्द्र जी के निवास पर गया था। उनके संवाद का प्रसंग हर बार मन में आनंद की अनुभूति छोड जाता था। श्रीराम उनकी श्रद्धा के विषय थे। उनके द्वारा रचित सभी ग्रंथों को मैने पढ़ा है और उसका आनंद भी लिया है। उनके उस आनंदमय सुखद संवाद को अब हम लोग अनुभव नहीं कर सकेंगे। ‘स्व. राजेन्द्रजी की पवित्र स्मृति को मैं अपनी व्यक्तिगत तथा रा. स्व. संघ की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।’
पूर्व केन्द्रीय संस्कृति तथा पर्यटन मंत्री डॉ. महेश शर्मा ने अरुणजी को देश की संस्कृति के प्रति समर्पित व्यक्ति बताया। रामायण सेंटर के संबंध में उन्होंने कहा कि यह केन्द्र उनकी अदम्य इच्छाशक्ति और अद्भुत जिजीविषा का विग्रह है, जिसे देखकर मैं अभिभूत था।
मारीशस के पूर्व उप प्रधानमंत्री अनिल बेचू ने राजेन्द्र अरुणजी को मारीशस का तुलसी बताया। उन्होंने कहा कि उनकी भक्ति का प्रभाव था कि रामजी मारीशस के घर घर में पुनःस्थापित हो गए वे ऐसे अरुण थे जो स्वभाव से बहुत मृदुल, सबकी सेवा में सदैव तत्पर तथा सुख को प्रदान करते रहते थे। तुलसी की चौपाई उनके व्यक्तित्व को व्याख्या करती दिखती है- अरुण मृदुल सेवक सुखदाता
जिस प्रकार से गंगा पूजन, करते समय गंगाजल से ही गंगामैया का पाद प्रक्षालन किया जाता है, वैसे ही महामनीषी श्री राजेन्द्र अरुण के शब्दों में ही हम उनका भी भावपूजन करें
नैतिकता सत्कर्म शील का
जब तक मानव वरण करेगा
विनत भाव से श्रद्धानत हो
हे अरुण! तव स्मरण करेगा