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नाकाम अमेरिका और उभरता आतंकवाद

नाकाम अमेरिका और उभरता आतंकवाद

by अमोल पेडणेकर
in अक्टूबर-२०२१, देश-विदेश, विशेष
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यदि अमेरिका इस आतंकी संगठन को खत्म करने को लेकर प्रतिबद्ध है, तो उसे कोशिश करनी चाहिए थी कि इस प्रतिबद्धता में विश्व समुदाय भी भागीदार बने। इसके लिए न केवल सुरक्षा परिषद का सहयोग लिया जाना चाहिए बल्कि भारत को इस संस्था का स्थायी सदस्य भी बनाया जाना चाहिए, क्योंकि यह वही देश है जिसने आतंकवाद का सबसे अधिक सामना किया है।

अफगानिस्तान से अमेरिका अब वापस लौट चुका है। अफगानिस्तान पर अब पूरी तरह से तालिबान का शासन है। अमेरिका का बीस साल का मिलिट्री शासन खत्म हुआ, जिसमें हजारों सैनिक मारे गए और लाखों करोड़ों रुपए का नुकसान हुआ। अमेरिका की यह हार दूसरे आक्रमणकारियों के लिए सबक है। आज तालिबान उसी अफगानिस्तान पर राज कर रहा है जहां बीस साल से अमेरिका का राज था। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाईडेन मानते हैं कि उन्होंने अफगानिस्तान के साथ चलने वाले युद्ध को खत्म कर दिया है। उन्होंने इस युद्ध को खत्म करके अपना वादा निभाया है, जो उन्होंने राष्ट्रपति पद की दावेदारी के वक्त अमेरिका की जनता से किया था। प्रश्न यह है कि अमेरिकी राजनीति में पूरे घटनाक्रम के क्या मायने हैं? अमेरिका की घरेलू राजनीति पर इसका क्या असर पड़ सकता है? जो बाईडेन इसे भले ही अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर देख रहे हैं, लेकिन कहीं यह उनके कार्यकाल पर सबसे बड़ा धब्बा साबित न हो। जानकार मानते है कि अमेरिकी जनता अफगानिस्तान की जंग से तंग आ गई थी। हजारों अमेरिकन सैनिक मारे गये थे फिर भी वहां कोई परिवर्तन नहीं आ रहा था। लेकिन जिस तरह अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपमानित होकर निकलने का निर्णय लिया, उससे ऐसा लग रहा है कि अमेरिका का वैश्विक नेतृत्व अब खत्म हो रहा है। जब वे अफगानिस्तान गए थे तब भी वहां तालिबान और अलकायदा थे, आज जब वे लौट रहे हैं तब भी वहां तालिबान और अलकायदा है। अफगानिस्तान के घटनाक्रम के ये संदेश हैं कि धन, हथियार और सैनिकों की अंतहीन आपूर्ति भी अफगानिस्तान को न तो सुरक्षित कर पाई और न ही वहां के आंतकी सोच के तालिबानियों को समाप्त कर सकी। अमेरिका अफगानिस्तान में हार चुका है, अब पता नहीं भविष्य में क्या हो? वर्तमान में अफगानिस्तान दुनिया को बुरे सपने दिखा रहा है।

काबुल एयरपोर्ट के बाहर भीषण आतंकी हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि वह इस हमले के दोषियों को छोड़ेंगे नहीं, उन्हें ढूंढकर मारेंगे। उनकी तरह ही अमेरिका के पूर्व अध्यक्ष भी अमेरिकी हितों को क्षति पहुंचाने वाले आतंकी संगठनों के बारे में इस तरह की घोषणाएं करते रहे हैं लेकिन सब जानते हैं कि ऐसी घोषणाओं के तहत उठाए जाने वाले कदमों से कोई बेहतर नतीजे नहीं निकले। सच तो यह है कि जब से अमेरिका के नेतृत्व में आतंकवाद के खिलाफ युद्ध छिड़ा तब से आतंकवाद बेलगाम ही हुआ है। अफगानिस्तान पर हमला कर तालिबान को सबक सिखाने के इरादे प्रकट करने वाला अमेरिका तालिबान को परास्त नहीं कर सका। स्थिति यह बनी कि उसे उसी तालिबान से वार्ता करनी पड़ी जिसे उसने काबुल की सत्ता से बेदखल किया था। ऐसा इस कारण हुआ कि अमेरिका ने तालिबान को पालने-पोसने वाले पाकिस्तान को दंडित नहीं किया। यह समूचे विश्व की लड़ाई बननी चाहिए थी और इसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के नेतृत्व-निर्देशन में लड़ा जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ युद्ध तो छेड़ चुका था परंतु इसकी तह तक जाने की जरूरत नहीं समझ रहा था। आखिर आतंकवादियों को आधुनिक हथियार और गोला-बारूद कहां से मिल रहे हैं? आतंकवाद को सहयोग और संरक्षण देने वाले देश कौन हैं? यदि अमेरिका इस आतंकी संगठन को खत्म करने को लेकर प्रतिबद्ध है तो उसे कोशिश करनी चाहिए थी कि इस प्रतिबद्धता में विश्व समुदाय भी भागीदार बने। इसके लिए न केवल सुरक्षा परिषद का सहयोग लिया जाना चाहिए, बल्कि भारत को इस संस्था का स्थायी सदस्य भी बनाया जाना चाहिए, क्योंकि यह वह देश है जिसने आतंकवाद का सबसे अधिक सामना किया है।

विदेश नीति के जानकार कह रहे हैं कि भारत ने अमेरिका पर कुछ ज्यादा ही विश्वास किया। भारत मानता रहा कि अमेरिका सब ठीक करके ही जाएगा? इसी अतिविश्वास की वजह से अफ़ग़ानिस्तान में भारत का निवेश, वहां के साथ हुए समझौते आज सब ख़तरे में हैं। अपने पड़ोसी देश में हो रहे बदलावों में भारत एक समय सक्रिय साझेदार था। क्या भारत मान कर चल रहा था कि अफ़ग़ानिस्तान में स्थायी शांति आ चुकी है? वहां तालिबानी विचार हमेशा के लिए ख़त्म हो गए हैं? इन सवालों के जवाब देना आसान नहीं हैं। केवल अफगानिस्तान के संदर्भ में ही नहीं अन्य देशों की विदेश नीति के संदर्भ में भी कहीं भारत अमेरिका के साथ होने के कारण गलत कदम तो नहीं उठा रहा है? ईरान से हमारे जो सहज संबंध थे, वे हमने अमेरिकी दबाव में कमज़ोर कर लिए। अपने पास-पड़ोस के देशों से हमारे संबंध सहज नहीं हो पा रहे हैं। चीन-पाकिस्तान अब पड़ोसी नहीं, दुश्मन हैं। नेपाल-श्रीलंका जैसे भरोसेमंद दोस्त भी फिसलते दिखाई पड़ते हैं।

अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार स्थापित हो चुकी है। पहले जो आतंकवादी हुआ करते थे, वे अब अफगानिस्तान के प्रधान मंत्री और मंत्री हैं, अब वे अफगानिस्तान पर शासन कर रहे हैं। अब देखना यह है कि तालिबानी सरकार को कौन-कौन मान्यता देता है। अमेरिका और यूरोप के कुछ देश अगर मान्यता दे देते हैं तो क्या भारत भी इस कतार में खड़ा हो जाएगा? क्या रूस-चीन-पाकिस्तान भी तालिबान को मान्यता दे देंगे? अगर ऐसा हुआ तो भारत की मजबूरी हो जाएगी कि वह अपने पड़ोस में एक और देश को अपना दुश्मन न बनाए रखे? भारतीय सूत्र अब यह निगरानी कर रहे है कि अफ़ग़ानिस्तान आतंक का नया अड्डा न बन जाए। लश्कर-जैश, इसिस वहां बैठकर भारत में जिहादियों का निर्यात न करने लगें। हालत ये है कि अब तालिबान ज्ञान दे रहा है कि भारत और पाकिस्तान आपस में बैठ कर अपनी समस्याएं सुलझाएं। वह वादा कर रहा है कि वह अपनी ज़मीन का इस्तेमाल दूसरे देशों के ख़िलाफ़ नहीं होने देगा। वह कह रहा है कि वह भारत के साथ अच्छे संबंध चाहता है।

अफगानिस्तान की सत्ता में आये आतंकी सोच वाले तालिबान की ताकत को बढ़ने से रोक पाना इतना आसान नहीं है। जहां तक भारत का प्रश्न है, तालिबान वही करेगा जो पाकिस्तान चाहेगा। जैश और लश्कर जैसे संगठन भारत के खिलाफ गतिविधियां अब तेज कर सकते हैं।

तालिबान ने बिना खून-खराबे के जिस आसानी से अफगानिस्तान पर नियंत्रण कर लिया, यह अमेरिका के लिए भी बहुत बड़ा सदमा है। कुल मिला कर हालात इतने जटिल हो गए हैं कि आतंकी देशों पर लगाम लगाने और उन्हें साधने के लिए अब कूटनीतिक उपायों के आसार बढ़ रहे हैं। इस पूरे घटनाक्रम से सबसे ज्यादा जो देश प्रभावित हुए हैं उनमें भारत भी है। भारत ने जिस सबसे गंभीर मुद्दे पर वैश्विक समुदाय का ध्यान खींचा है वह है आतंकी संगठनों को बढ़ावा देने वाले देश। इन देशों से निपटने की वैश्विक रणनीति बनाना आवश्यक हैं।

अफगानिस्तान के हालात बता रहे हैं कि आतंकवाद से निपटने में अगर वैश्विक समुदाय ने इच्छाशक्ति नहीं दिखाई तो भविष्य में हालात और बदतर होते चले जाएंगे। दूसरे और देश भी आतंकवाद की लपेटे में आते जाएंगे। भारत ने लगातार यह दोहराया है कि आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देशों पर कार्रवाई को और कठोर बनाने की जरूरत है। पाकिस्तान को निगरानी सूची में डालना चाहिए। भारत हमेशा यही कहता रहा है कि पाकिस्तान आतंकियों के प्रशिक्षण का वैश्विक केंद्र है। वैश्विक अनुभव भी यही बता रहा है कि अफगनिस्तान में तालिबान को सत्ता तक पहुंचाने में पाकिस्तान की भूमिका बड़ी रही है। पाकिस्तान का तालिबान को खुला समर्थन है, लेकिन ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि अबकी बार चीन, रूस, बांग्लादेश जैसे कई और देश भी तालिबान को समर्थन दे रहे हैं।

9़/11  से पहले की दुनिया और आज की दुनिया की तुलना करके देखें, सब कुछ साफ हो जाएगा। जैसे-जैसे आतंकवाद बढ रहा है वैसे-वैसे दुनिया बेबस होती दिखाई दे रही है? क्यों संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था कुछ भी सार्थक नहीं कर पा रही है? उसे तालिबान, अल-कायदा जैसे गुटों को रोकने की सार्थक कोशिश करनी चाहिए। अब तक के अनुभव बता रहे हैं कि एक घटना दूसरी घटना को जन्म देती है। आतंकी वारदात हो या उसका जवाब, हर बार हानि बढ़ती जा रही है। दुनिया के ताकतवर देशों को इस वक्त अपने आपसी मतभेद भुलाकर इस आपदा से एक साथ निपटना चाहिए?

अफगानिस्तान में अमेरिका इसीलिए नाकाम हुआ, क्योंकि उसने तालिबान को संरक्षण देने वाले पाकिस्तान पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। इसके पहले रूस भी अफगानिस्तान में नाकाम हो चुका है। जब रूसी सेनाएं अफगानिस्तान में थीं, तब अमेरिका ने मुजाहिदीन तैयार कर उन्हें हथियार दिए। बाद में उनका स्थान तालिबान ने ले लिया। इन्हें पाकिस्तान ने प्रशिक्षित किया और अमेरिका ने भी उनकी सहायता की। तब शायद अमेरिका को यह पता नहीं था कि जिस तालिबान की वह मदद कर रहा है, वही उसके सीने में खंजर घोप देगा। तालिबान ने जिस अलकायदा को पाला-पोसा, उसी ने 9/11 का हमला किया। तालिबान भी अमेरिकी की गलत नीतियों का ही परिणाम है।

जब रूसी सेनाएं अफगानिस्तान में थीं, तब अमेरिका ने मुजाहिदीन तैयार कर उन्हें हथियार दिए। बाद में उनका स्थान तालिबान ने ले लिया। तब शायद अमेरिका को यह पता नहीं था कि जिस तालिबान की वह मदद कर रहा है, वही उसके सीने में खंजर घोप देगा।

पाकिस्तान भले ही यह कह रहा हो कि वह तालिबान का समर्थक नहीं है, लेकिन सच यही है कि वह उसे हर तरह का सहयोग दे रहा है। पाकिस्तानी प्रधान मंत्री इमरान खान के इस बयान से यह सिद्ध भी होता है कि ‘तालिबान कोई सैन्य संगठन नहीं है, वे सामान्य नागरिक हैं।’ पाकिस्तान ने हमेशा भारत के प्रति शत्रुवत रवैया अपनाया है। वह आज भी कश्मीर को हथियाने का सपना देख रहा है। चूंकि वह आमने-सामने के युद्ध में भारत से नहीं जीत सकता, इसलिए वह कश्मीर में छद्म युद्ध छेड़े हुए है। इस छद्म युद्ध में वह तालिबान की भी सहायता ले सकता है। कश्मीर में सक्रिय रहने वाले लश्कर और जैश यह आतंकी संगठन तालिबान के सहयोगी हैं। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का खतरा बढ़ गया है। बताया जा रहा है कि हाल ही में अफगानिस्तान की जेलों से रिहा किए गए पाकिस्तान के आतंकी गिरोह जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादी वापस अपने गिरोह में शामिल होकर भारत पर हमले की योजना बना सकते हैं। अफगानिस्तान घटनाक्रम के बाद पाकिस्तान स्थित आतंकी गिरोहों के हौसले बहुत बढ़ गए हैं। अफगानिस्तान में तालिबान का बढ़ता प्रभाव भारत में जम्मू-कश्मीर ही नहीं बल्कि पंजाब की सुरक्षा के लिए भारी चिंता का विषय भी बन गया है।

भारत के कुछ लोगों की राष्ट्र विरोधी एवम कट्टरपंथी जिहादी मानसिकता भारत, अमेरिका के साथ विश्व के लिये बहुत बड़ी समस्या निर्माण करने में सहायक हो सकती है। सवाल यह है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान जैसे देशों से निपटने की वैश्विक रणनीति क्या होनी चाहिए? अभी तो यह भी स्पष्ट होना बाकी है कि अमेरिका, विश्व और मोदी सरकार अफगानिस्तान के मामले में किस नीति पर चलेगी लेकिन इतना तो तय है कि नरेन्द्र मोदी सरकार हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठी रहेगी।

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