इस समय जिस तरह का जन प्रदर्शन अफगानिस्तान में हो रहा है, उसकी कल्पना शायद ही किसी को रही हो। ‘हमें काबुल से लेकर कई शहरों में आजादी चाहिए। अल्लाहू अकबर, हमें एक मुल्क चाहिए। हमें पाकिस्तान की कठपुतली सरकार नहीं चाहिए।’ ‘पाकिस्तान, अफगानिस्तान छोड़ो’ जैसे नारे लगते हुए दृश्य हमारे सामने आ रहे हैं। सोशल मीडिया पर वायरल कुछ वीडियो में लोगों को ‘राष्ट्रीय प्रतिरोध मोर्चा ज़िंदा रहो’ और पाकिस्तान विरोधी नारे लगाते हुए सुना जा सकता है।
प्रत्येक निराशा अपने अंदर से ही किसी ना किसी तरह आशा की किरण लेकर आती है। अफगानिस्तान को लेकर कुछ देशों को छोड़ दें तो संपूर्ण विश्व के अंदर निराशा का भाव है। विश्व भर के विवेकशील आम लोगों की आंतरिक आवाज है कि कोई देश, देशों का समूह या संगठन अफगानिस्तान की जनता के लिए आगे आए। हालांकि कोई देश या संगठन इस स्वाभाविक दायित्व को उठाने के लिए तैयार नहीं है किंतु इस समय अफगानिस्तान की राजधानी काबुल और कुछ अन्य शहरों से आ रही रिपोर्ट और दृश्य निश्चित रूप से आशा की किरण पैदा करती है।
इस समय जिस तरह का जन प्रदर्शन अफगानिस्तान में हो रहा है, उसकी कल्पना शायद ही किसी को रही हो। ’हमें काबुल से लेकर कई शहरों में आजादी चाहिए। अल्लाहू अकबर, हमें एक मुल्क चाहिए। हमें पाकिस्तान की कठपुतली सरकार नहीं चाहिए। पाकिस्तान, अफगानिस्तान छोड़ो’ जैसे नारे लगते हुए दृश्य हमारे सामने आ रहे हैं। सोशल मीडिया पर वायरल कुछ वीडियो में लोगों को ‘राष्ट्रीय प्रतिरोध मोर्चा ज़िंदा रहो’ और पाकिस्तान विरोधी नारे लगाते हुए सुना जा सकता है।
महिलाओं ने किए विरोध प्रदर्शन
आरंभ में काबुल में कुछ महिलाओं ने विरोध प्रदर्शन करते हुए अपने अधिकारों की मांग की। हालांकि तालिबान लड़ाकों ने उन्हें रोका लेकिन वे रुकी नहीं। उन्होंने कुछ को पीट भी दिया। एक महिला का चेहरा लहूलुहान भी देखा गया। इसके बावजूद वे भागी नहीं। उसके बाद कंधार, मजार ए शरीफ, हेरात और दायकुंडी आदि कई शहरों में भी महिलाएं सड़कों पर बाहर निकलने लगी। हालांकि अभी भी देश के अलग-अलग भागों में हो रहे प्रदर्शनों में महिलाओं और उसमें भी नई पीढ़ी की लड़कियों की भागीदारी ही ज्यादा है। वहीं काबुल में नौजवान और हर उम्र के पुरुष भी शामिल होने लगे। कई शहरों में ऐसे प्रदर्शनों में पुरुष ही दिखाई दे रहे हैं। तालिबान द्वारा पंजशीर पर कब्जा करने की खबरों के बाद कुछ युवक-युवतियों ने काबुल में पाकिस्तान एवं तालिबान के विरुद्ध नारा लगाते हुए उतरे। अब इस तरह के विरोध प्रदर्शनों में शामिल लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। हाथों में पंजशीर बचाओ पाकिस्तान भगाओ के नारे लिखी तख्तियां ली हुई लड़कियां मीडिया के सामने खुलकर बोल रही हैं कि हम पंजशीर से आए हैं और वापस नहीं जाएंगे। क्या हक है पाकिस्तान को वहां दखल देने का? क्या पंजशीर अफगानिस्तान में नहीं हैं? ऐसे प्रश्न करती वे तालिबान के सामने डट कर खड़ी हो रही हैं। इसका जो भी अर्थ लगाए किंतु तालिबान के पूर्व शासन तथा तालिबान हक्कानी आतंकवादी समूहों के विचारों और उनके व्यवहारों को देखते हुए यह एक असाधारण दृश्य है।
नहीं दबाया जा सका है विद्रोह
इन प्रदर्शनों का तत्कालिक और दूरगामी परिणाम जो भी हो लेकिन इससे इतना निष्कर्ष अवश्य निकाला जा सकता है कि तालिबान के लिए अपने और पाकिस्तान की चाहत के अनुसार शासन चलाना संभव नहीं होगा। विश्व का इतिहास देख लीजिए, सड़कों पर उतरने के बाद जनता का विद्रोह कहीं भी पूरी तरह दबाया नहीं जा सका है। बंदूक से निश्चित रूप से दमन हो सकता है, हो सकता है कि भय से लोग ज्यादा संख्या में न निकले परंतु विद्रोह स्थायी रूप से पूरी तरह खत्म नहीं हो सकता।
तालिबान को पाकिस्तान से मिली मदद
पाकिस्तान को भी यह आभास हो गया होगा कि उसने साल 1996 से 2001 तक जिस तरह तालिबान के माध्यम से अफगानिस्तान के लोगों को अपना गुलाम बनाकर रखा है, उसकी पुनरावृत्ति नहीं हो सकती। अगर उसकी कोशिश हुई तो अफगानिस्तान की स्थिति नियंत्रण से बाहर जा सकती है। ध्यान रखने की बात है कि पंजशीर के नेता अहमद मसूद ने तालिबान के दावे का खंडन करते हुए कहा, पंजशीर में अभी भी हम आजाद हैं और हमारी लड़ाई जारी है। उन्होंने पाकिस्तान पर तालिबान की मदद का आरोप लगाया कि पाकिस्तानी सेना के हेलीकॉप्टर और वायुयान तालिबान की मदद कर रहे थे। अगर पाकिस्तान की मदद नहीं होती, तो तालिबानी पंजशीर में उतना आगे नहीं बढ़ पाते।
पाकिस्तान की मंशा समझना जरूरी
यह तो साफ है कि पाकिस्तान किसी सूरत में मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को सरकार का चेहरा यानी प्रधानमंत्री बनने से रोकना चाहता था। इसी तरह उसकी कोशिश स्तानिकजई को विदेश मंत्री बनने से भी रोकने की थी। पाकिस्तान की पूरी कोशिश हक्कानी समूह को सरकार में प्रभावी स्थान दिलाने की भी है। जब पाकिस्तान की कोशिश सफल होती नहीं दिखी, तो फैज हामिद के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल को आना पड़ा। पाकिस्तान की मीडिया ने खबर दी कि फैज हामिद और उनके साथ गए लोग तालिबान को सरकार गठन में सहयोग करने तथा भविष्य में सुरक्षा से लेकर पुनर्निर्माण एवं अन्य कार्यों पर सहमति बनाने के लिए गए। यह आधुनिक विश्व के इतिहास की पहली घटना होगी कि किसी देश की सैन्य खुफिया एजेंसी का प्रमुख सरकार गठन से लेकर पुनर्निर्माण आदि में सहयोग करने के लिए बातचीत करने किसी दूसरे देश में जाए। अगर फैज हामिद नहीं आते तो तालिबान नेता हिबतुल्लाह अखुंदजादा के सरकार का चेहरा तथा मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के उनके सहयोग यानी उप प्रधानमंत्री बनने की खबर नहीं आती। हक्कानी समूह और तालिबान के बीच सरकार में शामिल व्यक्तियों के साथ-साथ वर्तमान एवं भावी नीतियों पर भी व्यापक मतभेद उभर गया था और यह मतभेद अभी भी है। पाकिस्तान के दबाव पर ही तालिबान को अमेरिकी सेना के जाने के बाद काबुल की सुरक्षा का दायित्व हक्कानी नेटवर्क को देना पड़ा। पाकिस्तान के कारण ही दोहा में अमेरिका या अन्य देशों के साथ वार्ता में तालिबान की बातचीत में हक्कानी नेटवर्क का भी एक प्रतिनिधि बैठता था।
स्वतंत्रता और लोकतंत्र की दुहाई देने वाले देशों का दायित्व है कि सामने आकर साहस करने वाले अफगानों की आवाज बने। यही जन आवाज अफगानिस्तान में भविष्य के लिए परिवर्तन की शक्ति साबित होगी और पाकिस्तान, चीन जैसे देशों की कुटिल नीति धीरे-धीरे कमजोर पड़ेगी। अगर हम चूक गए तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा। परिवर्तन की उम्मीद जगाती यह आवाज पूरी तरह न खत्म होगी और न निष्फल।