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जयप्रकाश नारायण जयंती विशेष – सवाल तो जेपी के चेलों से बनते ही है…!

जयप्रकाश नारायण जयंती विशेष – सवाल तो जेपी के चेलों से बनते ही है…!

by डॉ. अजय खेमरिया
in ट्रेंडींग, राजनीति, व्यक्तित्व
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जेपी के महान व्यक्तित्व को लोग कैसे स्मरण में रखना चाहेंगे यह निर्धारित करने की जबाबदेही असल मे उनके राजनीतिक चेलों की भी थी। जेपी का मूल्यांकन उनके वारिसों के उत्तरावर्ती योगदान के साथ की जाए तो जेपी की वैचारिकी का हश्र घोर निराशा का अहसास कराता है। आजादी के स्वर्णिम आंदोलन के बाद जिस महान नेता को देश ने लोकनायक के रूप में स्वीकार किया उस जयप्रकाश नारायण यानी जेपी के बिना आजाद भारत का कोई भी राजनीतिक विमर्श पूर्ण नही होता है। समकालीन राजनीति में नेतृत्व करने वाली पूरी पीढ़ी वस्तुतः जेपी की छतरी से निकलकर ही स्थापित हुई है, जो आज पक्ष विपक्ष की विभिन्न भूमिकाओं में है। जिस सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक क्रांति के लिये जेपी ने आह्वान किया था वह आज भी भारत में कहीं नजर नही आती है।
सत्ताई तानाशाही और सार्वजनिक जीवन के कदाचरण के विरुद्ध जेपी ने समग्र क्रांति का बिगुल फूंका था। अपनी बेटी के समान प्रिय इंदिरा गांधी के साथ उनके मतभेद असल में व्यवस्थागत थे बुनियादी रुप से शासन में भ्रष्ट आचरण को लेकर जेपी यह मानते थे कि देश की जनता के साथ छलावा किया जा रहा है। जिस उद्देश्य से गांधी और अन्य नेताओं ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी उसे इंदिरा औऱ कांग्रेस ने महज सत्ता तक सीमित करके रख दिया है। असल में गांधीजी तो मौजूदा कांग्रेस को सेवा संघ में बदलने की बात कर रहे थे उसे नेहरू और बाद में इंदिरा ने परिवार की विचारशून्य पैदल सेना बना दिया। सम्पूर्ण क्रांति भारत के उसी नवनिर्माण को समर्पित एक जनांदोलन था जिसमें गांधी के सपनों को जमीन पर उतारने की बचनबद्धता भी समाई हुई थी।
लोकनायक जयप्रकाश जी की समस्त जीवन यात्रा संघर्ष तथा साधना से भरपूर रही है। नवनिर्माण आंदोलन ने इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ा देश ने एक वैकल्पिक सरकार भी देखी लेकिन यह एक असफल विकल्प भी था जो असल में इस आंदोलन के अग्रणी नेताओं के नैतिक स्खलन का परिणाम  था। जेपी की विरासत है तो बहुत लंबी पर आज निष्पक्ष होकर कहा जा सकता है कि जो वैचारिक हश्र गांधीजी का कांग्रेस की मौजूदा पीढ़ियों ने किया है वही मजाक जेपी और समाजवादी आंदोलन के लोहिया, नरेंद्र देव, बिनोवा, अच्युत पटवर्द्धन, अशोक मेहता, मीनू मसानी, जनेश्वर मिश्र जैसे नेताओं के साथ उनके काफिले में पीछे चलने वाले समाजवादी नेताओं ने बाद में किया।
आज लालू यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, हुकुमदेव यादव, सुशील मोदी, रविशंकर प्रसाद, मुलायम सिंह, विजय गोयल, रेवतीरमण सिह, केसी त्यागी से लेकर उतर भारत और पश्चिमी भारत के सभी राज्यों में जेपी आंदोलन के नेताओं की 60 प्लस पीढ़ी सक्रिय है। इनमें से अधिकतर केंद्र और राज्यों की सरकारों में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे है। सवाल यह उठाया ही जाना चाहिये कि जिस नवनिर्माण के लिये जेपी जैसी शख्सियत ने कांग्रेस में अपनी असरदार हैसियत को छोड़कर समाजवाद और गांधीवाद का रास्ता चुना उस जेपी के अनुयायियों ने देश के पुनर्निर्माण में क्या योग दिया है?
लालू यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह के रूप में जेपी के चेले सिर्फ इस बात की गवाही देते है कि राजनीतिक क्रांति तो हुई लेकिन सिर्फ मुख्यमंत्री और दूसरे मंत्री पदों तक। जेपी और लोहिया का नारा लगाकर यूपी, बिहार, ओडिसा, गुजरात, कर्नाटक जैसे राज्यों के सीएम बने नेताओं ने भारत के भीतर उस व्यवस्था परिवर्तन के लिये क्या किया है जिसके लिये सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा और अपरिहार्यता को जेपी ने अपने त्याग और पुरुषार्थ से प्रतिपादित किया था।क्या जातियों की गिरोहबंदी, अल्पसंख्यकवाद, जातीय प्रतिक्रियावाद, भाई भतीजावाद भ्रष्टाचार, शैक्षणिक माफ़ियावाद जैसी उपलब्धियां नही है जेपी के वारिसों के खातों में। सामाजिक न्याय के नाम पर लालू, मुलायम, बीजू, देवगौडा, अजीत सिंह, ने शासन के विकृत संस्करण इस देश को नही दिए। माँ-बेटे (इंदिरा-संजय) के सर्वाधिकार को चुनौती देने वाली जेपी की समग्र क्रांति से सैफई, पाटिलीपुत्र, भुवनेश्वरऔर हासन के समाजवादी सामंत किस राजनीतिक न्याय की इबारत लिखते है? यह सवाल क्या आज पूछा नही जाना चाहिए।
यूपी और बिहार जैसे देश के सबसे बड़े राज्यों में जेपी आंदोलन के वारिस लंबे समय तक सत्ता में रहे है क्या आज इन दोनों राज्यों में शिक्षा क्रांति से कोई नया भारत गढ़ा जा चुका है? बिहार और यूपी बोर्ड की परीक्षाओं के दृश्य असल में माफ़ियावाद की क्रांति की कहानी ही कहते है। तेजस्वी, अखिलेश, मीसा, चिराग़ नवीन, कुमारस्वामी जैसे चेहरो को ध्यान से देखिये और जेपी आंदोलन के उस नारे को याद कीजिये जो संजय और इंदिरा गाँधी को लेकर देश भर में सम्पूर्ण क्रान्ति के अलमबरदार गुनगुनाते थे। आज जेपी के पुण्य स्मरण के साथ उनकी विरासत के पुनर्मूल्यांकन की भी आवश्यकता है। हकीकत यह है कि भारत से समाजवाद का अंत इसी के उपासकों ने कर लिया है। भारत में जेपी को आज एक महान विचारक और सत्ता से सिद्धांतो के लिये जूझने वाले योद्धा की तरह याद किया जाएगा इस त्रासदी के साथ कि उनके अनुयायियों ने उनके विचारों के साथ व्यभिचार की सीमा तक अन्याय किया।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लिखा था-
”क्षमा करो बापू तुम हमको वचनभंग के हम अपराधी, राजघाट को किया अपावन भूले मंजिल यात्रा आधी।
जयप्रकाश जी! रखो भरोसा टूटे सपनों को जोड़ेंगे, चिता भस्म की चिंगारी से अंधकार के गढ़ तोड़ेंगे”।
टूटते विश्वास के इस तिमिर में आशा कीजिये अटल जी की बात सच साबित हो। भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिये जेपी की समग्र क्रांति और गांधी दोनो आज भी सामयिक आवश्यकता है।अटल जी कहते थे विपक्ष का मतलब है विशेष पक्ष।जेपी ने इसी बिशेष पक्ष की ताकत को नैतिक और राजनीतिक कसौटी पर प्रमाणित करके दिखाया था।आज के विपक्ष को ध्यानपूर्वक देखिये-कहाँ है विपक्ष का धरातल?आज  विपक्ष के किसी नेता के लिए कोई नीरज जैसा गीतकार या कवि लिख सकता है
‘संसद जाने वाले राही कहना इंदिरा गांधी से बच न सकेगी दिल्ली भी अब जय प्रकाश की आंधी से’
वस्तुतः जेपी औऱ लोहिया के राजनीतिक वारिस केवल औऱ केवल राजनीतिक वारिस साबित हुए है उनकी समग्र क्रांति तो सही मायनों में सत्ता के आगे उनके जीवित रहते ही दम तोड़ चुकी थी।1964 में नेहरू के पीएम पद के प्रस्ताव को ठुकराने वाले जेपी सदैव जीवंत रहेंगे उस दिन तक जब तक दुनियां में संसदीय लोकतंत्र जिंदा रहेगा।यही उनका महान औऱ एकमेव अवदान है।

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