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बैरी भये पालनहार

बैरी भये पालनहार

by राजेंद्र परदेसी
in अक्टूबर-२०२१, कहानी, विशेष, सामाजिक, साहित्य
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‘बेटों ने तो गांव में भी कुछ नहीं छोड़ा है, मेरे लिए। वापस जाऊंगा तो लोगों को क्या कहूंगा। इसलिए लौट आया कि बेटे अपनी स्वार्थ लिप्सा में इतने गिर गये है कि उन लोगों ने अपना पता देने की जगह असहाय वृद्धाश्रम पहुंचाने के लिए अज्ञात व्यक्ति को पत्र लिख दिया था।’

गोपाल राय उम्र के उस पड़ाव पर आ गए थे, जहां से आगे बढ़ने के लिए उन्हें स्वयं सहारे की आवश्यकता महसूस हो रही थी। पत्नी पहले ही बिस्तर पकड़ चुकी थी, ऐसे में खेत-खलिहान को देखने वाला कोई शेष नहीं बचा था। जब तक शरीर चलता रहा, गोपाल राय ने खेत-खलिहान संग अपने दोनों बेटे विजय और अशोक की शिक्षा-दीक्षा में कोई व्यवधान नहीं पड़ने दिया। परिणाम हुआ कि दोनों बेटे शहर में अच्छे पदों पर आसीन हो गए लेकिन किसी बेटे को इसकी चिंता नहीं कि उनके मां-बाप गांव में कैसे हैं?

गोपाल राय ने भी कभी इसकी चिंता नहीं की, कि उनकी संतानें उन्हें क्यों नहीं पूछ रही। वे अपने गांव और खेत-खलिहान में ही मगन रहते। जब दोनों पति-पत्नी शरीर से असहाय हो गए तो उनको भी बेटों की उपेक्षा महसूस होने लगी क्योंकि जीवन की गाड़ी को खींचना ही था। गांव की बेटी गीता को अपना सहारा बना लिया, जो उन लोगों की सेवा-टहल अपनी मां-पिता समझकर कर रही थी मगर उसके भतीजे ने एक दिन उसे भी साथ लेकर शहर चला गया।

एक दिन अचानक गोपाल राय की सेहत काफी बिगड़ गई, तो उनके एक पट्टीदार ने उसकी जानकारी उनके बेटों तक पहुंचा दी। पिता के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी मिलते ही दोनों तत्काल गांव पहुंच गए। पिता की दशा देखकर उनके स्वास्थ्य से अधिक उन लोगों को यह चिंता सताने लगी कि अगर इनको कुछ हो गया तो गांव की जमीन को निकालना भी एक मुसीबत हो जाएगी। इनके बाद इन जमीनों की सुरक्षा करने वाला भी गांव में कोई नहीं रह जाएगा। अच्छा होगा इनके रहते ही सारी जमीन बेचकर शहर में अच्छा मकान ले लिया जाए। दोनों भाइयों ने मंत्रणा कर यही फैसला किया। अस्वस्थ्य पिता के सम्मुख अपना प्रस्ताव भी रख दिया। गोपाल राय अपनी पुश्तैनी जमीन अपने जीते-जी बेचने के पक्ष में नहीं थे। वे बोले, मेरे न रहने के बाद तो गांव की सारी संपत्ति तुम लोगों की ही होगी। उस समय तुम लोगों के मन में जो अच्छा लगेगा करना। अभी ऐसा न सोचों तो ठीक होगा। इस पर बड़े बेटे ने कहा,जो काम कल करना ही है, उसे आज ही करने में क्या हर्ज है?

बड़े भाई की बातों से छोटे भाई अशोक को भी कुछ बल मिला। उसने कहा, पिता जी अब आपका शरीर तो खुद उनका साथ नहीं दे रहा है। ऐसे में खेत-खलिहान का काम कहां से करेंगे?

बेटों की बातों से गोपाल राय को उनके अंदर से स्वार्थ लिप्सा की गंध आ रही थी। इस कारण कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे थे। पिता को मौन देख और छोटे भाई को अपने साथ देख विजय पुन: बोला, आप बेकार में जमीन का मोह कर रहे हैं। इससे मुक्ति लेकर शांति से हम लोगों के साथ शहर में रहे।

गोपाल राय अब स्वयं को असहाय पा रहे थे। शरीर के साथ परिस्थितियां भी बेटों के असहयोग के कारण विपरीत दिखने लगी थी। ऐसे में लाचारी और बुझे मन से बोले-ठीक है, जो तुम लोगों को सही लगे करो। पिता की सहमति मिलते ही दोनों बेटे उन्हें छोड़कर अपने पट्टीदार दौलतराय के पास पहुंचकर जमीन बेचने की बात चलाई तो उन्होंने कहा,  बेटा, इतनी जल्दी क्या है। पहले अपने पिता को साथ ले जाकर शहर में किसी अच्छे डाक्टर को दिखाओ, वह स्वस्थ्य हो जाएंगे तो स्वयं फिर गांव आकर जो करना उचित लगेगा करेंगे।

बेटों की स्वार्थ लिप्सा इतनी बढ़ गई थी कि उन्हें मां-बाप के स्वास्थ्य से अधिक जमीन से प्राप्त होने वाले धन की चाह ही दिख रही थी। जिसके सहयोग से भौतिकता की सभी सुख-सुविधाओं को पाने की चाह मन में पाल रखी थी। ऐसे में किसी की और सलाह कहां से सुहाती।

बेटे की बात सुनकर गोपाल राय कुछ कहना चाहते थे कि उसके पहले ही छोटा बेटा बोल पड़ा-हमलोग तो यह सोच के आये थे कि अपने साथ ले चलेंगे और वहां किसी अच्छे डाक्टर को दिखाए पर बिना आपके यहां जमीन का सौदा कौन करेगा। जमीन जायदाद के कागज पत्तर उन्हें दिखाना होगा। बात पक्की हो जाएगी तो सूचना दीजिएगा। हम लोग तुरंत आ जाएंगे।

गोपाल राय क्या कहते। वह तो सोच रहे थे कि बेटों के साथ शहर जाकर अपना और पत्नी का ठीक से इलाज कराएंगे, जिससे जल्दी स्वास्थ्य लाभ हो फिर पत्नी को उनके पास ही छोड़कर कुछ दिनों के लिए गांव आकर यहां का भी सब काम देख लेंगे इसलिए मौन ही रहे।

पिता के मुख से कुछ नहीं निकला। तो बड़ा बेटा बोल पड़ा-क्या सोच रहे हैं। कुछ बोले नहीं।

‘क्या बोलूं। छुट्टी खत्म हो गई है, तो तुमलोगों को वापस नौकरी पर जाना ही होगा’ हताश मन से गोपाल राय ने जवाब दिया।

अभी बेटों को वापस गए एक सप्ताह भी न हुआ था कि गांव से दौलत काका का संदेशा मिला कि जमीन के खरीददार मिल गए हैं। तुम लोग गांव आकर अपने बापू को लेकर रजिस्ट्री आफिस जाकर जमीन खरीददार के नाम करा दो और वहीं पैसा भी प्राप्त कर लो।

काका का संदेशा मिलते ही दोनों भाई दूसरे दिन गांव पहुंच गए और उनके सम्मुख अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई। सब मिलकर रजिस्ट्री आफिस गए जहां जमीन बेचने और खरीदने की औपचारिकतायें दोनों पक्षों ने पुरी की। जमीन का मूल्य काका ने बड़े बेटे को सुरक्षा की द़ृष्टि से सौंपवा दिया।

घर आकर दोनों भाईयों ने मंत्रणा की और फिर पिता से बोले। जमीन का इतना पैसा यहां रखना सही नहीं होगा इसलिए कल ही हमलोग शहर लौटकर वहां बैंक में जमा कर देते हैं फिर जैसा आप कहेंगे वैसा किया जाएगा।

दोनों ने अपनी बात समाप्त की, कि गोपाल राय बोल पड़े-बेटा, अब तो गांव में कुछ बचा नहीं है। अच्छा होता तुम लोग एक दिन बाद जाते तो हमलोग भी घर किसी को सौंप कर वहीं तुम्हारे साथ शहर चल के रहते।

पिता का प्रस्ताव सुनते ही बेटों के सम्मुख विकट समस्या खड़ी हो गई। दोनों में कौन इन लोगों को अपने साथ वहां रखेगा और सेवा-सत्कार करेगा। कोई यह करने को उन्मुख नहीं था क्योंकि मां-बाप अब दोनों के लिए बोझ और बैरी लगने लगे थे इसलिए इससे मुक्ति के लिए दोनों भाईयों ने मिलकर कुचक्र रच डाला। पहल बड़े बेटे ने किया- बापू, हमलोगों की छुट्टी समाप्त हो गई है। कल सुबह जाना ही पड़ेगा इसलिए आप लोग कुछ दिन यहीं और रूक जाएं और इस घर को भी किसी के हाथ बेच दें। आखिर शहर जाने के बाद आपलोगों को इसकी चिंता सताती ही रहेगी। अच्छा होगा सब से मुक्त होकर एक साथ शांति से शहर में रहे। इतना कहने के साथ उसने पिता की ओर एक कागज पर कुछ लिखकर बढ़ाते हुए कहा- ‘यह लीजिए हमलोगों का वाराणसी के घर का पता आप लोग गांव का सब काम समाप्त कर वहां आ जाइएगा। हमलोग वहां स्टेशन पर लेने आ जाएंगे। नहीं तो यह पता पूछ कर आप लोग खुद भी आ सकते हैं।’

बेटों की प्रतिक्रिया गोपाल राय को असहज कर रही थी पर उम्र की लाचारी ने उन्हें सब कुछ देखने-सुनने के लिए विवश कर दिया। बोले-‘ठीक है।’

उत्तर में छोटे बेटे ने कहा-कल सोमवार है हमलोग लौट जाएंगे। आप उसके बाद के सोमवार को ट्रेन पकड़कर वाराणसी आ जाइएगा। हम लोग स्टेशन पर ही मिल जाएंगे। इतने दिन में यहां का काम भी समाप्त हो जाएगा।

उम्र के बोझ ने गोपाल राय को एक यंत्र बना दिया था। केवल आदेश पालन करने की ही स्थिति में रह गए थे। अपनी बात करने की स्थिति में नहीं थे। बेटे ने कागज दिया तो उसे बिना देखे और पढ़े रख लिया। वैसे भी उनकी बूढ़ी आंखे साफ पढ़ने की स्थिति में नहीं रह गई थी। सोचा कि जब वाराणसी जाऊंगा तो बेटों में से कोई-न-कोई उन लोगों को लेने तो आएगा ही फिर इसकी जरूरत ही क्या पड़ेगी। जरूरत पड़ भी गई तो किसी को दिखाकर पता पूछ लूंगा।

सप्ताह बीतता गया। गोपाल राय ने दु:खी मन से घर की चाभी दलपत राय को देकर उन्हीं के सहयोग से स्टेशन पर आकर वाराणसी की ट्रेन पकड़ ली। जैसे ही ट्रेन उनके गांव के स्टेशन चली। उनके आंखों में आंसू आ गए। पत्नी ने हिम्मत दी। यह जानते हुए कि यह धरती शायद अब फिर कभी देखने को न मिले।

दूसरे दिन ट्रेन सुबह ही गंतव्य स्टेशन पहुंच गई। गोपाल राय पत्नी और सामान के साथ प्लेटफार्म पर ही बेटों का इंतजार करते रहे। जब सभी सवारी वहां से बाहर निकल गए तो उन्होंने भी यह सोचकर की छुट्टी मिलने में देरी हो गई होगी इसलिए जल्दी नहीं आ पाए। अच्छा होगा स्टेशन से बाहर होकर उनका इंतजार करूं। सुबह से दोपहर हो गई पर बेटों की कोई झलक न मिली तो निराश होकर बेटे के दिए हुए कागज को निकाला और पास ही खड़े एक रिक्शेवाले को दिखाकर कहा-हमलोगों को इस पते पर पहुंचा दो जो किराया होगा ले लेना।

कागज लेकर रिक्शेवाले ने उसे पढ़ा फिर उन्हें देखकर सवाल किया-बाबा, क्या आपकी कोई संतान नहीं है क्या?

‘मेरे दो बेटे है, यह पता उन्हीं लोगों का है, जहां चलने को कह रहा हूं।’

‘यहां क्या करते हैं?’

‘दोनों अच्छे पद पर हैं’ अफसोस भी जताया। इसके पहले यहां आने का कभी मौका नहीं मिला इसलिए घर नहीं देख पाए पर दोनों एक ही मोहल्ले में रहते हैं।

‘बेटों ने ही यह लिखा है।’

‘हां, मेरी आंखें पढ़ नहीं पाती नहीं तो मैं ही पढ़कर तुम्हें बता देता।’

गोपाल राय की बातों को सुन रिक्शावाला बहुत दु:खी हुआ। वह समझ नहीं पा रहा था कि इन लोगों को कैसे बताये की इसमें घर का पता नहीं कुछ और लिखा हुआ है। उनलोगों को सच बताने का साहस नहीं जुटा पाया। सोचा अच्छा होगा अनभिज्ञ हो जाऊं इसलिए कागज उन्हें वापस लौटाते हुए कहा-बाबा, मैं अभी कुछ दिनों से ही इस शहर में रिक्शा चला रहा हूं इसलिए इस जगह को नहीं जानता।

युवा रिक्शावाले की बात सुनकर उन्हें बहुत निराशा हुई पर हताश नहीं हुए। उन्हें एक प्रौढ़ रिक्शावाला दिखा, आशा जगी कि शायद इसे पता हो उसे कागज देकर लिखे पते पर पहुंचाने का अनुरोध किया।

प्रौढ़ रिक्शावाला समाज में आए बदलाव और रिश्तों का अवमूल्यन काफी नजदीक से देख रहा था। कागज पढ़ते ही वही सवाल किया जो पहले वाले ने किया था। काका, आपके कोई संतान नहीं है क्या?

‘क्यों, बेटा?’

‘यह पता कागज पर किसने लिखा है?’

‘मेरे बड़े बेटे ने’ गोपाल राय ने स्पष्ट किया।

गोपाल राय की बात सुन प्रौढ़ रिक्शेवाले की आंखे शब्दों को पढ़कर फटी की फटी रह गयी। उसे विश्वास नहीं हुआ कि किसी के बेटे ने अपने पिता के लिए यह शब्द लिखे। तभी तो उसने सवाल किया-काका, क्या गांव आपको अच्छा नहीं लग रहा था जो यहां चले आए।

‘नहीं, बेटा मेरा मन तो गांव छोड़ने को बिल्कुल नहीं था। पर बेटों ने जिद्द किया कि यहां आपलोग अकेले कैसे रहेंगे इस उम्र में इसलिए उन्हीं लोगों के कारण यहां आना पड़ा।

‘गांव में तो आपकी खेती-बाड़ी होगी ही। उसे अब कौन देखेगा।’

‘अच्छी खासी थी पर एक सप्ताह पहले ही बेटों ने सब बेचवा कर पैसों के साथ आ गए थे और मुझे एक सप्ताह बाद इसी पते पर आने को कह गए थे।’

गोपाल राय के भोलेपन को देख प्रौढ़ रिक्शावाले को उन पर दया आ रही थी। साथ ही बेटों के मोह में पड़कर नारकीय जीवन जीने की स्थिति आने के लिए उन पर क्रोध भी आ रहा था। पर वह कर भी क्या सकता था। शहर की नारकीय से तो अच्छा होगा ये लोग गांव लौट जाये। वहां कोई न कोई दया दिखाकर अपने घर शरण दे देगाा। इन्हीं भावों को लेकर वह प्रौढ़ रिक्शावाले ने पूछा- ‘काका, आपने पढ़ा इसमें क्या लिखा है?’

‘बेटा, आंख से साफ नहीं दिखाता इसलिए बिना पढ़े रख लिया था। तुम ही बताओ क्या लिखा है।’ गोपाल राय ने विवशता दर्शायी तो रिक्शावाला बोला-काका, इस कागज पर लिखा है कि यह दोनों लोग असाहय है। इनकी कोई संतान नहीं है। पत्र पढ़ने वाले अगर इन्हीं किसी वृद्धाश्रम में पहुंचा देंगे तो बहुत धर्म का काम होगा।’

कागज पर लिखे शब्द को सुनकर गोपाल राय के नेत्र से आंसू बह निकले। पत्नी तो बेहोश होते-होते बची। अपने कोख से जना इतना बड़ा झूठ बोलेगा। कुछ पल तक दोनों को समझ ही नहीं आया अब क्या किया जाये कुछ देर बात गोपाल राय ने अपने दिल को मजबूत किया और रिक्शावाले से कहा-‘बेटा, तुम्हें कष्ट न हो तो कागज पर लिखे स्थान पर हमलोगों को पहुंचा दो। जो भाड़ा होगा हम दे देंगे।’

‘काका, भाड़े की बात आप न करे मेरी सलाह माने तो अच्छा होगा आप लोग गांव लौट जाएं। हम आपलोगों को ट्रेन पर बैठा देंगे।’ प्रौढ़ रिक्शेवाले ने मानवता दिखाते हुए सलाह दिया।

‘नहीं बेटा, अब गांव भी जाकर क्या करूंगा?’

‘क्यों?’

‘बेटों ने तो गांव में भी कुछ नहीं छोड़ा है, मेरे लिए। वापस जाऊंगा तो लोगों को क्या कहूंगा इसलिए लौट आया कि बेटे अपनी स्वार्थ लिप्सा में इतने गिर गए हैं कि उन लोगों ने अपना पता देने की जगह असहाय वृद्धाश्रम पहुंचाने के लिए अज्ञात व्यक्ति को पत्र लिख दिया था।’ अपनी विवशता को दर्शाते हुए अनुरोध भी किया-बेटे तुम दयाकर हमलोगों को उसी जगह छोड़ दो जहां इस कागज में लिखा है। शेष जीवन हमलोगों का अब वहीं किसी तरह कट ही जाएगा। गांव के लोग भी यही सोचेंगे-समझेंगे कि हम लोग अपने बेटों के साथ खुशी से रह रहे हैं। इस प्रकार यह गलत संदेश गांव के लोगों तक नहीं पहुंच पाएगा कि सम्पन्न बेटों ने स्वार्थ में अपने मां-बाप का सब कुछ लेकर अनाथ वृद्धाश्रम में रहने को भिजवा दिया।

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