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केदारखण्ड (गढ़वाल) की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

केदारखण्ड (गढ़वाल) की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

by हेमा उनियाल
in उत्तराखंड दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२१, विशेष, संस्कृति, सामाजिक
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महाराजा प्रद्युम्नशाह के उत्तराधिकारी युवराज सुदर्शन शाह ने अपने खोये हुए राज्य को प्राप्त करने के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सहायता मांगी। अंग्रेजों ने गढ़वाल राज्य के बदले पांच लाख रूपये राजा से मांगे लेकिन राजा के पास इतना धन न होने से आधा गढ़वाल अंग्रेजों को युद्ध के हर्जाने के रूप में देना पड़ा और आधे हिस्से पर सुदर्शन शाह का आधिपत्य हो गया।

यद्यपि आज इस क्षेत्र का क्रमबद्ध वह अविरल इतिहास उपलब्ध नहीं है, तो भी वेद, पुराण और महाभारत के उपलब्ध विवरण केदारखण्ड के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास का तारतम्य जोडने में सक्षम हैं। केदारखण्ड ऐसा क्षेत्र है जहां से निसृत गंगा, यमुना और सरस्वती का उल्लेख वेदों में मिलता है। भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति के मुख्य केन्द्र बदरीनाथ और केदारनाथ आज भी भारतीय सनातन संस्कृति के प्रमुख केन्द्र हैं। यही क्षेत्र भारतीय धर्म और संस्कृति का मूल-स्रोत भी रहा है। इसी क्षेत्र में वेद-पुराण और महाभारत जैसे काव्यों की रचना हुई है। हिन्दुओं के चार धामों में से बदरीधाम, केदारधाम तथा तीर्थ गंगोत्तरी और यमुनोत्तरी इसी केदारखण्ड के परिवेश में स्थित हैं।

अति प्राचीनकाल में हिमालय केदारखण्ड (गढ़वाल) में यक्ष, गन्धर्व, कमाण्ड और नाग जातियों की सृष्टि मिलती है। इन जातियों में कुबेर यक्षों के, धृतराष्ट्र गंधर्वों के, विरुढ़क कमाण्ड के तथा विरुपाय नागों के अधिपति थे। अधिपति होने के साथ ये चारों देवता के रूप में पूजित हए। महाभारत काल में केदारखण्ड के इस क्षेत्र में तीन महाशक्तियों राजा सुबाहू, राजा विराट तथा राजा वाणासुर का अस्तित्व मिलता है। राजा सुबाहू पुलिन्द किरात तथा तंगण जाति के शासक थे। राजा विराट का राज्य यमुना घाटी में था। वाणासुर की राजधानी शोणितपुर (गुप्तकाशी के निकट) में थी। यक्ष, गन्धर्व, नाग और कोलों के बाद किरात जाति का इस क्षेत्र पर लम्बे समय तक अधिकार रहा। किरातों की संख्या उस युग में अत्यधिक होने से केदारभूमि को ‘किरात मण्डले’ नाम से पुकारा जाता था। किरातों के पश्चात खसों (जो मूलतः आर्य थे) ने इस क्षेत्र को राजनीतिक दृष्टि से छोटे-छोटे किलों के रूप में सदढ किया। इस प्रकार किरातों के पश्चात खस जाति का इस क्षेत्र में व्यापक प्रभाव बढ़ा। इनकी अधिक संख्या के कारण ही इस सम्पूर्ण केदार क्षेत्र को ‘खस मंडले’ के नाम से पुकारा जाने लगा। खसों के समयान्तर में ही आर्यों के दूसरे मत-मतान्तरवादी लोगों ने भी इस क्षेत्र में प्रवेश किया। इस प्रकार इस क्षेत्र में यक्ष, गन्धर्व, नाग, कोल, किरात तथा खस जाति और आर्य जाति की विविध संस्कृतियों का समागम हुआ। यक्ष, गन्धर्व, कोल, किरात के वंशज यहां की मूल जातियां हैं। खस एक महाजाति के रूप में, इस क्षेत्र में छाई रही। वास्तव में ये जातियां विविध संस्कृतियों की सांस्कृतिक परम्परायें हैं। गढ़वाल हिमालय में कुणिंद, कुषाण, गुप्त, वमन, कार्तिकेयपुर राजवंश’, अशोकचल्ल के राज्यों के बाद इस क्षेत्र की स्थिति बदलने लगी थी।

पन्द्रहवीं शताब्दी के बाद परमार (पंवार) वंशीय पराक्रमी नरेश महाराजा अजयपाल ने गढ़वाल के सब ठाकुरी राजाओं और सरदारों पर विजय प्राप्त कर उनके राज्यों को एक साथ मिलाकर एक सुविस्तीर्ण राज्य स्थापित किया तब इस प्रदेश का नाम अधिक गढ़ होने के कारण गढ़वाल रखा गया। गढ़वाल नाम सन् 1500 से 1515 ई. के बीच रखा जाना पाया जाता है।

सन् 1803 ई. तक अविभाजित गढ़वाल पर पंवार वंशीय राजाओं का एकाधिपत्य रहा। 1803 ई. में गढ़वाल पर गोरखों ने आक्रमण कर उसे विजित कर दिया था। पंवार वंश का तत्कालीन राजा प्रद्युम्नशाह 14 मई 1804 ई. के दिन देहरादून के निकट खुडबुडा युद्ध में गोरखों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ फलतः सन् 1815 ई. तक सम्पूर्ण गढ़वाल पर गोरखों का शासन रहा।

इस सम्पूर्ण अवधि में महाराजा प्रद्युम्नशाह के उत्तराधिकारी युवराज सुदर्शन शाह अपनी खोई हुई सत्ता को पुनः प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील रहे। सुदर्शनशाह ने अपने खोये हुए राज्य को प्राप्त करने के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सहायता मांगी। सुदर्शन शाह ने गोरखाओं पर जीत के बदले मेजर हियर्सी को देहरादून देने का वचन दे रखा था। 30 नवम्बर 1815 ई. को गढ़वाल का अधिकार गोरखों से जीतकर अंग्रेजों के पास आ गया। अंग्रेजों ने गढ़वाल राज्य के बदले पांच लाख रूपये राजा से मांगे लेकिन राजा के पास इतना धन न होने से आधा गढ़वाल अंग्रेजों को युद्ध के हर्जाने के रूप में देना पड़ा और आधे हिस्से पर सुदर्शन शाह का आधिपत्य हो गया। इस प्रकार वृहत्तर गढ़वाल के दो हिस्से हो गये। अलकनंदा और मंदाकिनी के पूर्वी भाग पर राजधानी श्रीनगर सहित अंग्रेजों का शासन और पश्चिमी भाग पर पंवार वंशीय राजा सुदर्शनशाह का शासन हो गया। सुदर्शन शाह ने भागीरथी एवं भिलंगना नदियों के संगम स्थल पर स्थित टिहरी नामक स्थान को अपनी राजधानी बनाया। पंवार वंशीय गढ़वाल की प्राचीन परम्परायें पुनर्जीवित होकर फिर पनपने लगीं। दूसरी ओर ब्रिटिश गढ़वाल में निवास कर रहे गढ़वाली जन अंग्रेजों के सम्पर्क में आने के पश्चात पाश्चात्य जगत से प्रभावित होकर जीवन यापन करने लगे। सन 1815 में गढ़वाल का राजनीतिक ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक बंटवारा भी हो गया।

___उस दौरान अंग्रेजों द्वारा शासित क्षेत्र ब्रिटिश गढ़वाल और सुदर्शन शाह द्वारा शासित क्षेत्र टिहरी रियासत पुकारा जाने लगा। सन् 1947 ई. में देश के स्वतंत्र होने पर ब्रिटिश गढ़वाल स्वयमेव उत्तर प्रदेश राज्य में विलीन हो गया।

टिहरी रियासत में 1815 ई. से लेकर 1949 ई. तक महाराजा सुदर्शन शाह, महाराजा भवानी शाह, महाराजा प्रताप शाह, महाराजा कीर्ति शाह, महाराजा नरेन्द्र शाह, महाराज मानवेन्द्र शाह टिहरी के नरेश रहे। स्थितिजन्य परिस्थितियों के फलस्वरूप पंवार वंश के महाराजा मानवेन्द्रशाह के विलीनीकरण के प्रपत्र पर हस्ताक्षर फलस्वरूप पहली अगस्त 1949 ई. को भारत सरकार द्वारा टिहरी राज्य की उत्तर प्रदेश में विलय की घोषणा कर दी गई। इस प्रकार ’टिहरी गढ़वाल राज्य’ का भारत संघ में विलीनीकरण हो गया। _1960 ई. तक गढ़वाल के दो ही जिले टिहरी गढ़वाल और पौड़ी गढ़वाल थे। 1960 ई. में टिहरी गढ़वाल की रवाई (उत्तरकाशी) तहसील और पौड़ी गढ़वाल की चमोली तहसील को पृथक जिलों के रूप में मान्यता दी गई। इस प्रकार गढ़वाल चार जिलों में विभक्त हो गया। बाद में प्रशासनिक दृष्टि से देहरादून जिले को भी गढ़वाल में शामिल कर दिया गया था। सन् 1975 में देहरादून, मेरठ मंडल से गढ़वाल मंडल में मिलाया गया। सन् 1969 ई. में ही गढ़वाल कमिश्नरी का गठन कर दिया गया था जिसका मुख्यालय पौड़ी बनाया गया है। महत्वपूर्ण है कि सन् 1815 में ब्रिटिश गढ़वाल को प्रशासन के लिये कुमाऊं कमिश्नरी से सम्बद्ध कर दिया गया था। सन् 1997 ई. में रूद्रप्रयाग नामक एक और नये जिले का गठन किया गया जिसमें कुछ हिस्सा पौड़ी, कुछ टिहरी और कुछ चमोली जनपद का शामिल है। हरिद्वार जनपद अविभाजित उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के शासनकाल में 28 दिसम्बर 1988 को सृजित हुआ था। 9 नवम्बर सन् 2000 को उत्तरांचल राज्य की स्थापना के साथ ही हरिद्वार को (जनपद सहारनपुर, उत्तर प्रदेश से) गढ़वाल मंडल में शामिल कर लिया गया। 9 नवम्बर सन 2000 को इन सभी पर्वतीय जिलों को मिलाकर उत्तरांचल नामक नये राज्य का गठन किया गया जिसमें सात जनपद (उत्तरकाशी, चमोली, टिहरी गढ़वाल, पौड़ी गढ़वाल, रूद्रप्रयाग, देहरादून, हरिद्वार) गढ़वाल मंडल के अन्तर्गत और 6 जनपद (अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चम्पावत, उधम सिंह नगर) कुमाऊं मंडल के अन्तर्गत सम्मिलित हैं। कुल तेरह जनपदों में सम्मिलित उत्तराखंड राज्य की राजधानी देहरादून में स्थित है।

 

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