सवाल अभी जिंदा हैं

निरंतर हो रहे पलायन को रोकने के लिये जरूरी था कि पहाड़ों में आधारभूत औद्योगिक ढांचा तैयार करते हुए रोजगारपरक उद्योग स्थापित किये जाते। स्वरोजगार की योजनाएं सही ढंग से ईमानदारी से लागू की जातीं। कौशल विकास योजनाओं पर बल देते हुए क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य योजना तैयार की जाती मगर ऐसा नहीं हुआ। नतीजा राज्य बनने के बाद एक ओर पहाड़ के गांव के गांव खाली होते चले गए और दूसरी ओर देहरादून, हल्द्वानी और हरिद्वार में बड़े पैमाने पर दूसरे राज्यों से भी पलायन कर लोग पहुंचने लगे।

तकरीबन पंद्रह हजार करोड़ की अर्थव्यवस्था से शुरूआत करने वाला उत्तराखंड दो दशक में ढाई लाख करोड़ से ऊपर की अर्थव्यवस्था बन चुका है। इस दौरान राज्य में लगभग पचास हजार करोड़ से अधिक का उद्योगों में निवेश हुआ है, प्रति व्यक्ति आय पंद्रह हजार से बढ़कर सालाना दो लाख तक पहुंच चुकी है। इस दौरान बड़ी तादाद में सड़क, पुल, अस्पताल, स्कूल और शैक्षणिक संस्थानों का निर्माण हुआ। कई केंद्रीय संस्थानों को मंजूरी मिली तो विकास के नए आयाम भी स्थापित हुए। इतना सब होने के बावजूद उत्तराखंड राज्य एक आदर्श राज्य के तौर पर स्थापित नहीं हो पाया, एक अदद राजधानी के साथ ही राज्य दो दशक बाद भी बुनियादी सवालों से जूझ रहा है।  राज्य बने दो दशक बीत चुके हैं और सवाल यही है कि जिन सवालों पर उत्तराखंड का संघर्ष हुआ क्या उन्हें हल मिला? अलग उत्तराखंड की अवधारणा का हर सवाल आज भी मुंह उठाये खड़ा है। उत्तराखंड अलग राज्य के साथ अभी न्याय नहीं हुआ क्योंकि उत्तराखंड का असल सवाल अभी जिंदा है ।

सवाल आज का नहीं, वर्षों पुराना है। चलिए अतीत के झरोखों में इतिहास के पन्नों पर उत्तराखंड को खोजते हैं। बात आजादी से पहले उस वक्त की है, जब आज का उत्तराखंड सयुक्त प्रांत का हिस्सा बन रहा था। वह संयुक्त प्रांत जो बाद में उत्तर प्रदेश बना। उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं पर्वतीय क्षेत्र जब संयुक्त प्रांत में मिल रहे थे तभी से उत्तराखंड के भविष्य की चिंता शुरू हो चुकी थी। उस वक्त कुमाऊं केसरी बद्रीदत्त पाण्डेय ने आवाज उठायी कि आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक आधार पर उत्तराखंड का विकास संयुक्त प्रांत का हिस्सा बनकर नहीं हो सकता। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि 1946 में हल्द्वानी में उनकी अध्यक्षता में हुए सम्मेलन में पूरे जोर शोर से पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा दिये जाने की मांग उठी।

इसके पीछे तर्क यह था कि पर्वतीय क्षेत्र की भौगालिक, सांस्कृतिक, सामाजिक व भाषायी भिन्नता इसे मैदानी इलाकों से अलग करती है। इसका विकास इतने बड़े संयुक्त प्रांत आगरा व अवध के साथ नहीं हो सकता। इससे पहले 1938 में श्रीनगर में कांग्रेस के राजनैतिक सम्मेलन में तो खुद पंडित जवाहर लाल नेहरू कह चुके थे कि इस पर्वतीय अंचल के लोगों को अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप स्वंय निर्णय लेने और अपनी संस्कृति को समृद्ध करने का अधिकार मिलना चाहिए।

कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तराखंड के सवाल का इतिहास बहुत पुराना है। जरूरत के लिहाज से तो आजादी के वक्त ही उत्तराखंड एक अलग प्रांत के रूप में अलग से स्थापित हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा संभव नही हो पाया। कारण यह था कि संयुक्त प्रांत के तत्कालीन प्रीमियर गाविंद बल्लभ पंत 52 जिलों के मुख्यमंत्री बनने जा रहे थे। उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के चलते उत्तराखंड एक अलग राज्य बनना संभव हो ही नहीं पाया। इतिहास का यह तथ्य बेहद महत्वपूर्ण है, बाद में यही संयुक्त प्रांत उत्तर प्रदेश बना। जिसका नेतृत्व पहाड़ के गोविंद बल्लभ पंत, हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी जैसे कद्दावर नेताओं ने किया। विडंबना यह रही कि कद्दावर नेताओं के बावजूद उत्तर प्रदेश के साथ रहते हुए उत्तराखंड हमेशा पिछड़ता ही रहा।

आजादी के बाद से उत्तर प्रदेश में रहते हुए लगातार उत्तराखंड के अलग राज्य की मांग उठती रही, मगर हर बार पहाड़ के दिग्गज नेताओं की राष्ट्रीय राजनीति की महत्वाकांक्षाएं उत्तराखंड की स्वायत्ता के सवाल के आड़े आती रहीं जबकि उत्तराखंड की स्वायत्ता की मांग अकारण नहीं थी, इसके पीछे तमाम वाजिब सवाल थे। जिसमें सबसे बड़ा सवाल पहचान का सवाल था। दरअसल उत्तराखंड की मुख्य पहचान उसका भूगोल यानि पहाड़ है। इसी पहचान के साथ जुड़ी है उसकी आर्थिकी, उसका सामाजिक तानाबान, संस्कृति और विकास ।

दुर्भाग्य यह रहा कि उत्तराखंड की पहचान का सवाल हमेशा हाशिये पर रहा। कई राष्ट्रीय स्तर के नेता और बड़े नौकरशाह देने के बावजूद उत्तराखंड हमेशा अपनी पहचान व परिवेश के अनुरूप तंत्र के लिये तरसता रहा। विकास के नाम पर अव्यवहारिक नीतियां और योजनाएं थोपी जाती रहीं। नतीजा यह रहा कि भौगोलिक दृष्टि से उपेक्षित होने के कारण पहाड़ आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक लिहाज से भी उपेक्षित होता चला गया। विकास की दौड़ में यह हिमालयी भूभाग देश के अन्य हिस्सों की तुलना में काफी पिछड़ता चला गया। शिक्षा और रोजगार जैसी मूलभूत जरूरतों के लिये यहां से युवाओं का पलायन मजबूरी हो गया। अंतत: पर्याप्त संसाधनों के बावजूद इस क्षेत्र से लगातार पलायन ने उसे खोखला कर दिया।

सच यह है कि सरकारों ने कोशिश ही नहीं की कि हिमालयी भूभाग की जनता के लिये विकास का बुनियादी ढांचा उसके संसाधनों के अनुरूप बनाया जाए। विकास का जो मॉडल सरकारों ने थोपा, वह यहां की भौगोलिक और सामाजिक स्थिति एवं परिस्थति के अनुरूप नहीं था। स्थानीय लोगों को ही अपने संसाधनों जल, जंगल और जमीन पर अधिकार नहीं था। देश का मुख्य जल संग्रहण केंद्र होने के बावजूद बूंद- बूंद पीने के पानी के लिये तरसना तड़पना नीयति था। हिमालयी श्रृंखला में मध्य हिमालय का यह अकेला ऐसा क्षेत्र था जिसकी राज्य के तौर पर विशिष्ट पहचान नहीं थी। जहां तक संसाधनों का सवाल है तो भूभाग कम होने के बावजूद संसाधनों के लिहाज से उत्तराखंड काफी मजबूत स्थिति में था।

संसाधनों की लूट तो यहां अंग्रेजों के शासनकाल से ही चली आ रही थी लेकिन उत्तर प्रदेश में रहते हुए बाद में यह क्षेत्र माफियावाद का शिकार हो गया। जंगल के लुटेरे ठेकेदारों और शराब माफिया ने तो नुकसान पहुंचाया ही, उससे कहीं ज्यादा नुकसान नौकरशाही ने पहुंचाया। नौकरशाही उत्तराखंड के सवालों और उसके दर्द को कभी महसूस ही नहीं कर पाई। पहाड़ के लोगों की समस्या की पहचान न कभी उत्तर प्रदेश की सरकार को रही और न ही उसकी नौकरशाही को। तब भी नहीं जब हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त सरीखे सियासत के दिग्गज सरकारों के मुखिया रहे।

सरकारी अधिकारी तब भी पहाड़ पर जाने से कतराते थे और पहाड़ पर तैनाती को सजा माना जाता था। स्थानीय लोगों से उनका कोई भावनात्मक लगाव नहीं था। ऐसे में पहाड़ की जरूरत के मुताबिक योजनाएं बनती भी कैसे? नतीजतन अस्पताल खुले तो बिना डॉक्टर और दवा के, स्कूल खुले तो बिना मास्टर के। योजनाएं बनीं भी तो सिर्फ लूट और कमीशनखोरी के मकसद से। सरकारी योजनाओं के केंद्र में ठेकेदारों, सत्ता के दलालों और नौकरशाहों के हित रहे।

बहरहाल इन्हीं सब सवालों के चलते उत्तराखंड अलग राज्य का संघर्ष चरम पर पहुंचा और आखिरकार नवंबर 2000 को उत्तराखंड देश के मानचित्र पर एक अलग राज्य के रूप में दर्ज हुआ। राज्य बनने के बाद उम्मीद की जाती रही कि अब उत्तराखंड के सवालों का जवाब मिलेगा। इसी उम्मीद में पूरे दो दशक भी बीत चुके हैं। उत्तराखंड के सवाल आज भी जस के तस हैं। देश का यह इकलौता राज्य है जिसकी स्थायी राजधानी का फैसला अभी तक नहीं हो पाया। यहां सत्रह साल बीतने के बाद राज्य के लिये पलायन आज भी बड़ी चिंता और प्रमुख सवाल बना हुआ है। निरंतर हो रहे पलायन को रोकने के लिये जरूरी था कि पहाडों में आधारभूत औद्योगिक ढांचा तैयार करते हुए रोजगारपरक उद्योग स्थापित किये जाते। स्वरोजगार की योजनाएं सही ढंग से ईमानदारी से लागू की जातीं। कौशल विकास योजनाओं पर बल देते हुए क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य योजना तैयार की जाती मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। नतीजा राज्य बनने के बाद एक ओर पहाड़ के गांव के गांव खाली होते चले गए और दूसरी ओर देहरादून, हल्द्वानी और हरिद्वार में बड़े पैमाने पर दूसरे राज्यों से भी पलायन कर लोग पहुंचने लगे।

उत्तराखंड की पहचान का सवाल अलग राज्य बनने पर हल तो नहीं हुआ इसके विपरीत स्थिति और जटिल हो चली है। राज्य गठन के वक्त हरिद्वार और रुद्रपुर के मैदानी इलाकों को राज्य की अवधारणा के विपरीत इसमें शामिल कर दिया गया। सियासी कारणों के चलते पहले ही दिन से राज्य में पहाड़ और मैदान की खाई खोद दी गयी। राज्य का नेतृत्व हमेशा उत्तराखंड को विशुद्ध पर्वतीय राज्य मानने से कटता रहा।नतीजा ढाक के फिर वही तीन पात, डेढ़ दशक में उत्तराखंड हर लिहाज से उत्तर प्रदेश की फोटो कापी बनकर रह गया।

सरकार की योजनाएं न तो इस क्षेत्र की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थतियों में सामंजस्य बैठा पाती हैं और न पर्यावरणीय एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरती हैं। विकास की गति यह है कि ॠषिकेश कर्णप्रयाग परियोजना के बारे में राज्य गठन से पहले की है फिर भी अभी तक वह मुकाम पर नहीं पहुंची है। इस परियोजना को लेकर भी तमाम अलग-अलग राय और विवाद हैं। एक ओर इस परियोजना के लिए पचास हजार से भी ऊपर पेड़ों को काटने की मंजूरी दी गयी। दूसरी ओर सच्चाई यह है कि दो-दो दशक से सड़क और पुलों की योजनाओं को फारेस्ट क्लियरेंस नहीं है।

राज्य में विकास योजनाओं की प्राथमिकता पर सवाल है। राज्य बनने के बाद की श्रीनगर की जल विद्युत परियोजना को ही लें, इस परियोजना के कारण श्रीनगर में आज पीने के पानी का संकट खड़ा है।  राज्य बनने से पहले बनी टिहरी बांध परियोजना को ही लें, इस परियोजना को तमाम विरोधों के बावजूद जनता पर थोपा गया। सरकार की गठित समिति के विरोध और वैज्ञानिकों द्वारा खतरे से आगाह कराने के बाद भी योजना बनी। योजना में किस कदर लूट रही, यह किसी से छिपा नहीं है। राज्य बनने के बाद भी उत्तराखंड आज इसी अव्यवहारिकता का शिकार है, इन सवालों का कोई हल नहीं। बड़ी बातों को छोड़ अब बातें मूलभूत सुविधाओं जल, जंगल, जमीन, बिजली, शिक्षा और रोजगार की। ऊर्जा प्रदेश आज भी पूरी तरह बिजली से आच्छादित नहीं है, प्रदेश में उपभोक्ताओं को महंगे दामों पर बिजली उपलब्ध होती है। आज भी पर्वतीय क्षेत्रों में महिलाओं को पेयजल के लिये पांच-पांच किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है।  सड़क, नहर, स्कूल, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं के निर्माण में यह बाधा बना हुआ है। सुनियोजित ढंग से विकास तो उत्तराखंड में आज भी सिर्फ सपना बना हुआ है।

बेहतर शिक्षा और रोजगार के लिए बड़े पैमाने पर पलायन जारी है। दुर्भाग्य तो यह है कि इतना वक्त गुजरने और सब कुछ जानने बूझने के बावजूद उत्तराखंड के सवालों का हल आयोगों और कमेटियों में ढूंढते है।  कुल मिलाकर आज भी उत्तराखंड के समक्ष अपनी पहचान कायम रखने का संकट है। अवधारणा कैसे उत्तराखंड की थी और कैसा उत्तराखंड मिला यह सवाल आज भी जिंदा हैं।

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