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रानी कमलापति – भोपाल की रूह में बसी एक रानी

रानी कमलापति – भोपाल की रूह में बसी एक रानी

by हिंदी विवेक
in विशेष, संस्कृति
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अतीत की आँख से भोपाल के आँचल में गिरे आँसू का नाम है-रानी कमलापति। न वह किसी बड़े साम्राज्य की साम्राज्ञी थीं, न ही किसी प्रसिद्ध राजवंश से उनका नाता था और न ही वे अपने समय की कोई विकट योद्धा थीं। भोपाल से बाहर इंदौर या ग्वालियर में भी उनका नाम किसी ने नहीं सुना होगा। किंतु भोपाल की स्मृतियों में तीन सौ सालों से वे आदरपूर्वक ठहरी हुई हैं। उनका राज्य भोपाल के आसपास की हरी-भरी पहाड़ियों में सीमित था। जैसे पति की मृत्यु के बाद एक गृहिणी सीमित साधनों में अपनी घर-गृहस्थी की कुशलतापूर्वक साज-संभाल करती है। बस एक छोटी सी रियासत में ऐसी ही उनकी भूमिका थी। वे जनजातीय समाज से थीं और सिर्फ तीन सौ साल पहले इस क्षेत्र में गोंड जनजाति राजवंशों में सम्मिलित थी। फिर किनके हाथों उनका वंश विनाश हुआ और कैसे वह रक्तरंजित कथा अतीत के अंधेरे में धकेल दी गई?

 आँसू किसी दुख या आकस्मिक असीम सुख की परिणति में आँख से गिरते हैं। रानी कमलापति अपने जीवन के अंतिम वर्षों में आकस्मिक उपस्थित हुए एक घटनाक्रम की त्रासद शिकार हैं। भारत के इतिहास का यह वह कालखंड है, जब दिल्ली पर तुर्क मुसलमानों को कब्जा जमाए छह सौ साल हो गए थे। तब भी दूरदराज भारत के विस्तार में हिंदुओं के सैकड़ों राजपूत और जनजातीय समूह वंशानुगत राज्यों के स्वामी या सामंत थे। रानी कमलापति के समय दिल्ली-आगरा मुगलों के चंगुल में थे और हिंदू राज्यों से वसूली करने वाले उनके निरंकुश सरदार चारों तरफ तैनात हुआ करते थे। औरंगजेब मर चुका था। रियासतों में छीना-झपटी और अफरातफरी का आलम था।

भोपाल के पास गिन्नौरगढ़ की गोंड रियासत में पारिवारिक कलह और कब्जे की लालसाएं राज्य को इतिहास के एक विकट मोड़ पर ले आईं। 1723 में गिन्नौरगढ़ के शासक निजाम शाह की हत्या उनके ही एक रिश्तेदार ने कर दी। कमलापति उनकी ही रानी थीं, जो अपनी सुरक्षा के लिए आज के भोपाल के बड़े तालाब पर बने कमला पार्क स्थित अपने महल में आ गई थीं। वे एक रानी थीं, जिसे पति की हत्या के प्रतिशोध के लिए कुछ करना ही था।

दिल्ली से भागकर आया एक अफगान इसी मोड़ पर कहानी में दाखिल होता है। आज की भाषा में एक सुपारी किलर, जो धन के बदले रानी का प्रतिशोध पूरा तो करता है लेकिन अब अकेली रानी के राज्य पर ही दांत गड़ाने का इरादा भी रखता है। कुएं से बची रानी के सामने अब गहरी खाई है। वह जल्दी ही समझ गईं कि “दोस्त’ के रूप में उन्होंने मौत को महल दिखा दिए हैं। रानी के सामने पहले जाने-पहचाने शत्रु अपने ही परिजन थे। अब वे अनजान और बेरहम शत्रुओं से घिर जाती हैं। इस नए संघर्ष में उनका युवा राजपुत्र नवलशाह मारा जाता है और किसी धोखेबाज जाहिल के हरम का हिस्सा बनने की बजाए वे भोपाल के छोटे तालाब में अपने महल से उतरकर जलसमाधि का विकल्प चुनती हैं। बस यही वो क्षण हैं जब रानी स्वयं को भोपाल की स्मृतियों में अंकित कर लेती हैं। सदा के लिए।

रानी का वंश विनाश करने वाला वह बदनीयत अफगान उनके महलों और उनकी संपत्ति पर कब्जा जमा लेता है। वह दोस्त मोहम्मद खान था, जिसके कारनामे “द बेगम्स ऑफ भोपाल’ में शहरयार मोहम्मद खान ने लिखे हैं। वह औरंगजेब के मरने के बाद मची दिल्ली की भगदड़ से बचकर विदिशा होकर आज के बैरसिया के पास मंगलगढ़ नाम की एक राजपूत रियासत में नौकरी पा गया था। लेकिन छलकपट, लूटमार और कब्जे की कहानी वही थी, जो छह सौ सालों से देश के कोने-कोने में दोहराई गई थी। वह उनका कुशल कर्म था। वे आक्रांता इसी में दक्ष थे।

दोस्त मोहम्मद ने अपने दस्तूर के मुताबिक दोस्ती निभाते हुए भोपाल के पास गोंड शासक परिवार के जगदीशपुर पर भी कब्जा जमाया और उसकी पहचान बदलकर “इस्लाम नगर’ नाम दिया। एक भयावह कत्लेआम का दृश्य जगदीशपुर की कथा में भी है, जब आसपास के राजपूत जागीरदारों को दावत में बुलाकर रात के अंधेरे में नशे की हालत में सोए अपने मेहमानों को अफगानों ने हलाल किया। उनके रक्तरंजित शरीर अगले दिन नदी में फैंक दिए गए और वह हलाली हो गई। निरंजन वर्मा नाम के एक प्रसिद्ध लेखक ने “बाणगंगा से हलाली’ नाम का एक मार्मिक उपन्यास इसी घटना पर लिखा है। पाशविक कबीलाई हलाल परंपरा के ये घृणित निशान अज्ञात कारणों से भोपाल के दामन में आज भी सहेजकर रखे हुए हैं-“इस्लामनगर, हलालपुरा और हलाली डैम।’

आजादी के समय के भारत में भोपाल एक ऐसी रियासत के रूप में इतिहास के पटल पर प्रस्तुत हुआ, जिसे दोस्त मोहम्मद खान ने बसाया था। 1947 में आखिरी नवाब का नाम था हमीदुल्ला। उसकी एक बेटी थी-आबिदा सुलतान। वह भी भोपाल के पास कुरवाई नाम की एक ऐसी ही कब्जाई हुई रियासत का नवाब था, जिससे आबिदा बेगम का निकाह हुआ। शहरयार मोहम्मद खान आबिदा और कुरवाई नवाब के साहबजादे हैं। हमीदुल्ला भारत के खूनी बटवारे के समय खुलकर मोहम्मद अली जिन्ना की जेब में तशरीफ फरमाए हुए था। 

15 अगस्त 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने अपनी सफेद शेरवानी में महकता हुआ सुर्ख गुलाब खाेंसकर भारत को आजाद घोषित कर दिया था लेकिन दिल्ली के लाल किले से भोपाल के बड़े तालाब तक उस आजादी को आने में दो साल के हिंसक रोड़े नवाब ने अटकाए थे। भोपाल की आजादी के लिए अलग से हुआ वह संघर्ष विलीनीकरण का आंदोलन है, जिसके दौरान भारतीय भोपालियों पर गोलियां चलवाने वाला कोई कम्बख्त अंग्रेज जनरल डायर नहीं था, नवाब साहब और उनके हथियारबंद गुर्गे स्वयं अपने कर-कमलों से यह महान कार्य कर रहे थे। जब देश का दूसरा टुकड़ा पाकिस्तान कहलाया तो नवाब की बेटी आबिदा सुलतान अपने बेटे शहरयार को लेकर इस्लाम की जन्नत की तरफ हिजरत कर गईं। “द बेगम्स ऑफ भोपाल’ में इन्हीं शहरयार ने भोपाल के अपने शाही अतीत का जिक्र करते हुए जगदीशपुर के इस्लामनगर बनने की कथा संसार को सुनाई। भोपाल वालों को सब पहले से पता था।

भारत को स्वतंत्र हुए 75 साल और मध्यप्रदेश काे बने 65 साल हुए। भोपाल मध्यप्रदेश की राजधानी बना। रानी कमलापति की राख पर खड़ी एक मुस्लिम रियासत, जिसकी बहुसंख्यक आबादी हिंदू थी। छल-बल से तथाकथित सुलतानों, बादशाहों, नवाबों और निजामों के कब्जे देश में जहां भी हुए, वहां जगदीशपुर पर इस्लामनगर के साइन बोर्ड टंगे ही टंगे। मंदिरों को ढहाया ही गया। उनके मलबे पर इबादतगाहें खड़ी करना एक अनिवार्य आज्ञा थी और हरसंभव आबादी की पहचानों को बदलना एक मजहबी पुण्य कर्म था, जो आज भी एक अटल इरादा है।

उत्तर से दक्षिण भारत की ओर जाएंगे तो ऐसी हरेक छोटी-बड़ी कब्जे की रियासतों में मूल निवासियों की बदली हुई पहचानों की आबादी का विस्तार बंद आंखों से भी नजर आएगा, जो मुगलों में अपना गौरवशाली अतीत देखती है। मदरसों की महान शिक्षाएं दिमागों को ठोस बनाती हैं और अपने असल अतीत से काटकर एक नकली गौरव थोप देती हैं। यही वजह है कि औरंगाबाद और भोपाल जैसे शहरों में आज भी कुछ भ्रमित बुद्धि गाफिल लोग औरंगजेब और दोस्त मोहम्मद खान के बैनर सजाए हुए हैं।

जिस हबीबुल्ला के नाम पर हबीबगंज स्टेशन अब तक कायम रहा, वह नवाब हमीदुल्ला के भाई नसरुल्ला का बेटा था। भोपाल के लिए उसका योगदान सिर्फ इतना ही है कि वह नवाब के भाई की कई बेगमों में से एक के यहां पैदा हो गया। भोपाल के आसपास नसरुल्लागंज और अब्दुल्लागंज के नामांतरण की कहानियां भी ऐसी ही हैं। नवाब के परिवारवालों को पलने के लिए दी गई जागीरें, जिनके नाम उन्हीं को समर्पित हो गए। ये इतिहास के अतिक्रमण हैं। ऐसी बदशक्ल गुमटियां, जिन्हें हटाने में हमारे नगर निगम अज्ञात कारणों से नाकामी के जीते-जागते स्मारक बने हुए हैं।

मिस्टर एमके गांधी और पंडित नेहरू के संयुक्त सघन प्रयासों से स्वतंत्र भारत के शासन तंत्र ने संसार के एक विशिष्ट सेक्युलर पर्यावरण की रचना की थी, जिसमें विशेष प्रकार के वर्ग का निर्माण और विकास चौतरफा हुआ। इस वर्ग विशेष की आए दिन आहत होने वाली भावनाओं की खातिर यह आवश्यक था कि अतीत के ऐसे रक्तरंजित अध्यायों को इतिहास के तहखानों में बंद करके ही रखा जाए और कर्णप्रिय गंगा-जमनी धुनों को सुनते हुए बड़े आराम से कौमी एकता के मुशायरे और ईद मिलन के जश्न जुटाए जाएं। अल्लाह के फजल से सत्ता के लिए सुख और सुविधापूर्वक यही सब होता रहा।

किंतु भोपाल की रूह में रानी कमलापति एक दीए की तरह टिमटिमाती रहीं। ठीक उसी तरह जैसे इलाहाबाद में प्रयाग की स्मृतियां और फैजाबाद की मिट्टी में अयोध्या के बीज। मैं अक्सर कहता हूं कि हम इतिहास का पीछा छोड़ सकते हैं मगर इतिहास कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ता। उसने भोपाल में भी पीछा नहीं छोड़ा। अतीत की आँखों से गिरे उस आँसू की नमी और ऊष्मा भोपाल के आँचल में तीन सौ सालों से बनी ही रही।

आतंक और दमन के इन निशानों को पौंछ डालना इतना बड़ा और कठिन कार्य भी नहीं था कि 65-75 साल और लगते। 12 नवंबर 2021 को सिर्फ छह घंटों में राज्य और केंद्र सरकार के सचिवालयों में पत्रों की औपचारिकता के बाद “हबीबगंज की घर वापसी’ हो गई। लेट आना ट्रेनों का स्वभाव रहा है। किंतु रेलवे स्टेशन के नामकरण में यह नियति का निर्णय ही होगा कि यह पुनीत कार्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की संयुक्त उपस्थिति और प्रदेश के लाखों जनजातीयजनों की साक्षी में संपन्न हो। नए और आधुनिक स्वरूप में सोलह श्रृंगारित देश के पहले रेलवे स्टेशन का रानी को समर्पण और ऐसे अवसर पर प्रधानमंत्री का आगमन सबके लिए एक भावुक प्रसंग है।

राजा भोज ने हजार साल पहले भोपाल की देह रचना पूरे मनोयोग से वास्तु के अनुसार की थी तो रानी कमलापति उनके सात सौ साल बाद इस देह में प्रतिष्ठित एक अतृप्त आत्मा हैं, जिनका तर्पण जनजातीय दिवस से  इतना भव्य रूप में हो नहीं सकता था। मध्यप्रदेश में यह प्रसंग मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का एक ऐसा प्रेरक प्रमाण है, जो भविष्य में दूर तक स्मरण किया जाएगा।

अंत में, रानी कमलापति मध्यकाल के भारत की अकेली भुक्तभोगी किरदार नहीं हैं, जो धर्मांध शक्तियों का नृशंस शिकार बनीं। इसी मध्यप्रदेश में कमलापति से डेढ़ सौ साल पहले जबलपुर के पास रानी दुर्गावती भी भोपाल से काफी बड़े एक गोंड साम्राज्य की शासक थीं। मुगले-आजम अकबर ने अपने दस हजार हमलावरों को आसफ खां के नेतृत्व में उनके खात्मे के लिए भेजा था। कमलापति के राजकुमार नवलशाह की उम्र का ही उनका बेटा वीरशाह था, महलों में जिसकी शादी की तैयारियां थीं। दुर्गावती का वंश विनाश इन्हीं मुगलों के हाथों हुआ। उससे पहले चंदेरी में रानी मणिमाला का जौहर बाबर के हमले में हुआ था, जिसमें पराजित पांच हजार राजपूतों के कटे हुए सिर की मीनार चंदेरी में खड़ी की गई। भोपाल से सटे रायसेन में राजा पूरनमल के राज परिवार का एक ही साथ खात्मा करने वाले का नाम शेरशाह सूरी है लेकिन एक दरगाह आज के रायसेन का मुख्य आकर्षण है। हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल, जहां मुस्लिमों से ज्यादा हिंदू मत्था टेकने जाते हैं। पूरनमल का पता अंधेरे में खोया हुआ है।

मध्यप्रदेश की ये तीनों ह्दय विदारक घटनाएं सिर्फ एक ही सदी की हैं, क्रमश: 1528, 1543 और 1564 की। ये रुला देने वाली घटनाएं नहीं, समय की दीवार पर टंगे आइने हैं। इनमें हम सबको अपनी शक्लें देखनी चाहिए। शायद कोई भूला बिसरा असल चेहरा नजर आ जाए। किसी इस्लाम (नगर) को अपना जगदीश (पुर) याद आ जाए। क्या भोपाल में सालों से कैमरा लिए भटक रहे प्रकाश झा को अतीत की इन सच्ची कहानियों में बड़े या छोटे परदे के लिए कुछ रचने का साहस है? जावेद अख्तर की यादों में समाए सैफिया कॉलेज और सूरमाओं के हसीन भोपाल में रानी कमलापति के किरदार की क्या जगह है? शबाना के साथ जुगलबंदी में वे कैफी की कथा खूब गाते हैं, दोनों मिलकर कभी रानी और उसके “दोस्त’ की दास्तां भी सुनाएं। कभी मत भूलिए, हम इतिहास से पीछा छुड़ा सकते हैं मगर इतिहास कभी भी हमारा पीछा नहीं छोड़ता…

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