सवाल नाक का नहीं, राष्ट्रहित का है!

गुरु नानक जयंती पर सम्पूर्ण राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले तो देश को शुभकामनाएं दीं और फिर देश से क्षमा मांगते हुए जो कहा उसका आशय यह था कि केंद्र सरकार कृषि कानून वापिस ले रही है क्योंकि वह कुछ किसानों को कृषि कानून समझाने में असफल रही है। प्रधान मंत्री के इस वक्तव्य का असर तो होना ही था। सरकार के विरोध में कई लोग कह चुके होंगे कि किसानों के आगे सरकार को झुकना पड़ा, कई लोग कहेेंगे मोदी की तानाशाही नहीं चलने दी, कुछ लोग और थोड़ा नीचे गिरते हुए कहेंगे कि यह तो थूंककर चाटने जैसी बात हुई आदि-आदि। कहने वाले जो भी कहें, जो भी प्रतिक्रिया दें, इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि क्रिया करने वाला, सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगने वाला व्यक्ति भारत का प्रधान मंत्री है, एक कुशल और मंजा हुआ राजनीतिज्ञ है, स्वार्थी वृत्ति से परे होकर राष्ट्र प्रथम का विचार करनेवाला व्यक्ति है और सबसे बड़ी बात उनमें निंदा को पचाने की अद्भुत क्षमता है। अगर प्रधान मंत्री के रूप में उन्होंने यह निर्णय लिया है तो निश्चित ही वे इसके परिणामों से अज्ञात नहीं हैं। वे जानते हैं कि व्यक्ति के रूप में उन्हें निंदा का सामना करना पड़ेगा परंतु वे यह भी जानते हैं कि पार्टी और राष्ट्रहित में कभी-कभी लिए गए निर्णयों पर पुनर्विचार करना आवश्यक होता है।

सबसे पहले तो यह सोचें कि क्या कृषि बिल कोई ऐसा मुद्दा था, जिस पर तुरंत अमल करना जरूरी था और उसके अमल होते ही भारतीय कृषि में तुरंत कुछ बदलाव होने थे? इसका उत्तर है नहीं। अगर भाजपा पुन: सत्ता में आती है तो कृषि बिल पुन: लाया जा सकता है, और उस समय इस बिल को पुन: किसानों तक व्यवस्थित रूप से पहुंचाने के प्रयास भी किए जा सकते हैं। हां, कुछ स्वार्थ साधकों ने इसे अपने अहम का, सरकार को किसी न किसी रूप में परेशान रखने का और हर दूसरे दिन देश का वातावरण बिगाड़ने का मुद्दा जरूर बना लिया था, जिसे तुरंत रोकना आवश्यक था और वही केंद्र सरकार ने किया। टिकैत जैसे एसी में बैठकर लंबी-लंबी बातें करनेवाले तथाकथित किसानों के पीछे किसका दिमाग है यह तो कृषि बिल के विरोध में हुए आंदोलनों में समझ आ ही गया था। आंदोलनजीवियों की संख्या में जो भारी वृद्धि हुई थी, उनमें से कुछ तो हर आंदोलन में दिखाई देने वाले भाड़े के टट्टू थे और कुछ खलिस्तान का झंडा लिए कृषि आंदोलन की आड़ में अन्य कांड करने को उतावले लोग भी थे। खैर, अब मुद्दा यह है कि कृषि बिल वापिस क्यों लिया गया?

इसे एक व्यक्ति प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की अपेक्षा भाजपा और सम्पूर्ण राष्ट्र की दृष्टि से देखना अधिक उचित होगा।  भाजपा एक राजनैतिक पार्टी है। केंद्र और अन्य राज्यों में उसकी सरकारें हैं। किसी भी राजनैतिक पार्टी के लिए चुनाव जीतना, सरकार बनाना और फिर उचित रूप से उसे चलाना आवश्यक होता है। अगर राज्यों में, देश में आए दिन दंगे, आंदोलन होते रहे, संसद सत्र में हंगामा होता रहा तो देश का विकास बाधित होता है। आने वाले कुछ महीनों में कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। जिनमें से पंजाब और उ.प्र. दोनों ही महत्वपूर्ण हैं और दोनों कृषि प्रधान राज्य हैं। भाजपा यह जानती है कि इन आंदोलनों का असर इन चुनावों पर होने की भी पूरी सम्भावना है। विकास के जिन मुद्दों को लेकर वह चुनाव लड़ती है, उन मुद्दों से जनता का ध्यान हटाकर फिर से कृषि बिल का सहारा लेकर आंदोलन किया जा सकता है और जनता को उस ओर आकर्षित किया जा सकता है। केवल एक कृषि बिल का मुद्दा विकास के अन्य सभी मुद्दों को खा जाएगा। उ.प्र. में योगी आदित्यनाथ के मुख्य मंत्री बनने के बाद अपराधों में आई कमी, इंफ्रास्ट्रक्चर में विकास, यातायात साधनों में बढ़ोत्तरी जैसे कई मुद्दे दब जाएंगे।

दूसरी ओर पंजाब में भाजपा के पुराने साथी अकाली दल ने भी इसी कृषि बिल के कारण उसका साथ छोड़ दिया था और अब नए साथी कैप्टन अमरिंदर सिंह की भी इस बिल से कुछ नाराजगी है ही। ऐसे में अगर सरकार यह बिल वापिस ले लेती है तो उसे दोनों राज्यों में तत्कालीन लाभ मिलने की पूरी आशा है। इसका एक अन्य कारण राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बंधित भी है। कोई भी देश जिसमें किसी भी कारण से अधिक समय तक गृह कलह चलता रहे, वह देश विकास नहीं कर सकता। कृषि बिल के विरोध में हो रहे आंदोलनों के कारण जिस प्रकार राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हुई है, कई बार, कई दिनों तक पूरा देश आंदोलित रहा है, राष्ट्रीय स्मारकों पर तिरंगे के अलावा दूसरे झंडे लगाने के सफल प्रयत्न हुए हैं, इन सब घटनाओं से देश की शांति भंग होती रही है।

एक और बात यह भी है कि यह आंदोलन केवल कृषि तक ही सीमित नहीं रह गया था। इस आंदोलन के सहारे राष्ट्रविरोधी गतिविधियां चलाने वाले लोग एकत्रित होने लगे थे। अगर आंदोलन को यहीं नहीं रोका जाता तो देश में साम्प्रदायिक दंगे होने की सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता था। जिस तरह से दलित तथा मुसलमानों का एकत्रीकरण हो रहा है, जिस तरह बीच-बीच में खलिस्तान की मांग उठती रहती है, यह इंगित करता है कि अगर कुशल प्रशासन में किसी भी तरह की ढील दी गई तो विभाजनकारी शक्तियां फिर से सिर उठाने लगेंगी और कृषि विरोध में चल रहा आंदोलन उनके लिए बना बनाया हथियार साबित होगा। अभी भारत मजबूत स्थिति में है, इसलिए बाहरी शक्तियों का सीधे युद्ध करना संभव नहीं है, परंतु भारत के अंदर नाराज भारतीयों को बरगलाकर उनसे राष्ट्रविरोधी काम करवाना उनके लिए बहुत आसान है। वर्तमान में पंजाब में ऐसे सिख बंधुओं की संख्या अधिक है जो उस सीमा पर खड़े हैं जहां से उनका खलिस्तान आंदोलन की ओर हो जाना आसान है। उन्हें भारत से जोड़े रखने के लिए वर्तमान में उनके मन से यह बात निकालना आवश्यक है कि भारत सरकार उनके साथ अन्याय कर रही है। साथ ही यह ध्यान रखना भी आवश्यक था कि अन्य राज्यों में भी देश की जनता को कोई ऐसा मुद्दा न मिले जिसका परिणाम राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करे।

प्रधान मंत्री ने अपने उद्गार में कहा था कि यह कृषि बिल किसानों के हितों के लिए लाया गया था और देश के हित के लिए इसे वापिस लिया जा रहा है। उनके इस उद्गार का भावार्थ समझना बहुत आवश्यक है कि कहीं न कहीं यह आंदोलन अब कृषि बिल के विरोध तक सीमित न रहते हुए देश हित पर आंच आने की सीमा तक पहुंच गया है। जाहिर सी बात है कि प्रधान मंत्री ऐसे नहीं हैं कि केवल अपनी अकड़ के लिए राष्ट्रहित को दांव पर लगा दें। राष्ट्र प्रथम की भावना से प्रेरित होकर उठाए गए इस कदम को जनता किस प्रकार स्वीकार करती है, यह जनता की विवेक बुद्धि पर निर्भर करता है।

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  1. Anonymous

    सटिक विश्लेषण

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