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पलायन या प्रगति

पलायन या प्रगति

by प्रो डॉ प्रभा पंत
in उत्तराखंड दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२१, विशेष, सामाजिक
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स्वतंत्र राज्य बनने से लेकर अब तक उत्तराखंड न तो अपने विकास की उचित दिशा का चयन कर पाया है और न ही गम्भीरतापूर्वक चिंतन। यदि उत्तराखंड-वासियों ने अपनी स्वार्थपरता से मुक्त होकर, यहां की भौगोलिक स्थितियों-परिस्थितियों पर विचार करके, इसके विकास के लिए व्यवहारिक योजनाएं-परियोजनाएं बनाई होतीं तो उत्तराखंड देश का आदर्श राज्य बन सकता था।

विगत अनेक वर्षों से प्रिंट मीडिया, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया, पारिवारिक एवं सामाजिक उत्सवों, बसों, ट्रेनों, गली-मोहल्लों, चौराहों-चौपालों, विद्यालयों-महाविद्यालयों, गोष्ठियों-संगोष्ठियों, कविसम्मेलनों, भाषणों में ‘पलायन’ चर्चा का विषय बना हुआ है। पलायन रोकने के लिए योजनाएं-परियोजनाएं चलाई व बनाई जा रही हैं। विचारणीय यह है, पलायन…पलायन…की रट लगाने वाले पहाड़ के शुभचिंतक यह क्यों नहीं सोचते, जब युगों से पहाड़ का पानी ढलान की ओर बहता हुआ, नदी-नालों का प्रवाह बढ़ाता, धरती को सींचता और प्राणियों की प्यास बुझाता हुआ, समुद्र से मिलने को आतुर सा आगे बढ़ता चला जा रहा है तो पहाड़ का निवासी क्यों नहीं? यदि पहाड़ के गांव व जंगलों से फल-फूल, पेड़-पौधे, उनकी जड़, तना-पत्ते, वनस्पतियां, अनाज-दालें, शाक-सब्जियां, पत्थर, बजरी, लकड़ियां आदि विविध वस्तुएं अन्यत्र जा सकती हैं तो यहां के निवासी क्यों नहीं?

हमारे पहाड़ के पढ़े-लिखे, लगनशील, परिश्रमी लड़के-लड़कियां, कर्मठ और प्रगतिशील बच्चे, देश-विदेश में उत्तराखंड का नाम उज्ज्वल करनेवाले सुसंस्कारी बच्चे, यदि अपने माता-पिता, भाई-बहनों या अपने दादा-दादी को अपने साथ ले जा रहे हैं तो इसमें अनुचित क्या है? जहां प्रतिक्षण प्राणाघाती बाघ का भय व्याप्त हो, जहां ख़ून-पसीना बहा कर की गई खेती से भर-पेट अनाज भी न मिल पा रहा हो, वहां कोई किसके सहारे और क्यों रहेगा? क्या पहाड़ तोड़कर-खोदकर, वर्षा पर आश्रित रहकर, हल-बैल के सहारे हाड़तोड़ मेहनत करके,अनाज उगानेवाले पहाडियों को उन्नति करने, देश व दुनिया देखने या सुख-चैन पूर्वक जीवनयापन करने का अधिकार नहीं है?

अगर उनके बच्चे, अपने माता-पिता द्वारा दिन-रात किए गए परिश्रम को फलीभूत करके, उनके स्वप्न को साकार करने के लिए उच्च पदाधिकारी बन चुके हैं, और चाहते हैं कि अब उनके जन्मदाता-पालनकर्ता भी चैन की वंशी बजाएं, अपने परिवारजनों के त्याग और तपस्या का प्रतिफल देने के लिए, जब वे उन्हें अपने साथ ले जाने लगे हैं तो वर्षों पूर्व पहाड़ छोड़कर चले जाने वाले, पहाड़ को टूरिस्ट-प्लेस समझकर या अपनी कुलदेवी-देवता आदि को पूजने-जागर लगाने के लिए वर्ष में एक-दो बार आने वाले, कल तक अपनी सुख-सुविधाओं में निमग्न रहने वाले तथा स्वयं को अपने सगे संबंधियों-बिरादरों से श्रेष्ठ समझने वाले लोगों को,अब पहाड़ की चिंता क्यों सताने लगी है और क्यों वे पहाड़ से पलायन को रोकने के लिए इतने बेचैन हो उठे हैं?

यदि वास्तव में पहाड़ के निवासियों को अपनी मातृ-पितृभूमि की इतनी चिंता होती, जितनी आज दिखाई दे रही है तो हमारे पहाड़ की ऐसी दुर्दषा न होती, जैसी होती जा रही है, और न यहां के ग्रामवासियों को विवष होकर, अपनी जन्मभूमि व अपने पूर्वजों की धरोहर से मुंह मोड़ना पड़ता। विश्व का कदाचित् ही कोई ऐसा देश होगा, जहां कोई पहाड़़ी व्यक्ति न हो, बर्तन मांजने-खाना बनाने से लेकर, शिक्षक, वैज्ञानिक, कवि, लेखक, पत्रकार, सेना नायक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, नेता, अभिनेता, संगीतज्ञ, समाजसेवी तक, प्रत्येक कार्यक्षेत्र में पहाड़ के निवासी परिश्रम, लगन तथा निष्ठापूर्वक अपनी सेवाएं दे रहे हैं, किन्तु विडम्बना यह है कि पहाड़ का विकास करने के लिए ठोस़ कदम उठाने वालों की संख्या इतनी कम है कि उनके नाम उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। किसी भी देश अथवा क्षेत्र के विकास का प्रथम सोपान है, गुणवत्तापूर्ण तथा आजीविका के साधन जुटाने में सहायक और समर्थ शिक्षा प्रणाली।

यूं तो आज पहाड़ के गांव-गांव में सरकारी विद्यालय और महाविद्यालय खोले जा चुके हैं, किन्तु अध्यापक…? विद्यालयों की स्थिति यह है, कहीं तो विद्यार्थियों की भरमार है और अध्यापक एक, वही पढ़ाता है, वही दोपहर के भोजन की व्यवस्था करता है, वही क्लर्क, वही प्रधान अध्यापक और उसीको चपरासी के कर्त्तव्यों का निर्वहन भी करना पड़ता है। इसके विपरीत जो विद्यालय सड़क के किनारे स्थित हैं, उनकी कहानी तो और भी रोचक है। वहां बच्चों की संख्या है नगण्य, किन्तु अध्यापक-अध्यापिकाओं की भरमार है, क्योंकि शिक्षकों को चाहिए अपने घर के निकटवर्ती विद्यालय। परम्परा सी बनती जा रही है कि ‘मनीराम लाओ, मन चाहा विद्यालय पाओ।’ विद्यालय में बच्चे आएं या न आएं, पढ़ाई-लिखाई हो या न हो, पहाड़ उजड़े या बसे, इसकी न किसी को चिंता है और न कोई सरोकार। जिन्हें सरोकार है, अपने गांव व पहाड़ के उजड़ने बर्बाद होने की चिंता है, उनकी सुनता कौन है? वेतनभोगियों को तो मात्र अपने मासिक वेतन से मतलब है, उन्हें वह समय पर मिल जाना चाहिये, किन्तु कदाचित उन्हें यह ज्ञात नहीं कि यदि गांव उजड़ जाएंगे तो न तो विद्यालय शेष रहेंगे और न उनका रोजगार। प्रश्न यह है, यदि निर्माताओं को पहाड़ के विद्यालयों तथा ग्रामीण बच्चों की मूलभूत आवश्यकताओं एवं उनके भविष्य की चिंता ही नहीं होगी तो बच्चों के माता-पिता पहाड़ छोड़ने को विवश क्यों न होंगे, और क्यों पहाड़ों से पलायन होगा?

स्वतंत्र राज्य बनने से लेकर अब तक उत्तराखंड न तो अपने विकास की उचित दिशा का चयन कर पाया है और न ही गम्भीरतापूर्वक चिंतन। यदि उत्तराखंड-वासियों ने अपनी स्वार्थपरता से मुक्त होकर, यहां की भौगोलिक स्थितियों-परिस्थितियों पर विचार करके, इसके विकास के लिए व्यवहारिक योजनाएं-परियोजनाएं बनाई होतीं तो क्या उत्तराखंड देश का आदर्श राज्य न बन गया होता? वास्तविकता यह है कि अल्पशिक्षित, अशिक्षित तथा सीधे-सरल लोगों को प्रसन्न करके, जन मत को अपने पक्ष में करनेवाले राजनेता, और उनसे अपने स्वार्थ सिद्ध करनेवाले उनके मार्गदर्शक, यदि क्षणभर भी यह विचार कर पाते, ‘यह पहाड़ और यहां के निवासी मेरे अपने हैं’ तो निश्चित ही वे यहां के विद्यालयों-महाविद्यालयों की गुणवत्ता वृद्धि करने के लिए सुशिक्षित, सुयोग्य तथा आदर्श अध्यापकों की नियुक्ति करवाते। धनोपार्जन करने के उद्देश्य से मात्र भवन निर्माण कराके, दलाली और ठेकेदारी कराने के लिए नए-नए स्कूल-कॉलेज खोलने को बाध्य एवं प्रेरित न करते।

प्रत्येक छोटे-छोटे गांवों और कस्बों में,विद्यालय-महाविद्यालय खोलने से उचित तो यह होता, उस धन राशि द्वारा गांवों से विद्यालय तक बस/जीप लगाकर, हॉस्टल बनाकर, विद्यार्थियों के लिए पुस्तकों का प्रबंध करके, निर्धन परिवार के बच्चों को सुविधाएं प्रदान की जातीं। इसके अतिरिक्त क्रीड़ालयों की व्यवस्था करके, पहाड़ के ऊर्जावान एवं प्रतिभावान बच्चों, युवाओं और युवतियों को उनकी अभिरुचि के अनुसार विविध क्रीड़ाओं में पारंगत करके, राष्ट्र-गौरव वृद्धि में उन्हें सहयोगी बनाया जाता। इस तरह के विविध प्रयासों द्वारा अनेक शिक्षित-प्रशिक्षित बेरोज़गारों को आजीविका का साधन मिलता और बच्चों को अपनी अभिरुचि के अनुरूप पढ़ने-लिखने और खेलने के अवसर। यदि गांवों-कस्बों के बच्चों को अपने घर के आस-पास ही भविष्य निर्माण के अवसर, आने-जाने की सुविधाएं, प्रत्येक विषय की पुस्तकें तथा शिक्षकों का मार्गदर्शन प्राप्त होगा तो निर्धन ही नहीं धनवान व्यक्ति भी अपने बच्चों को सहर्ष विद्यालय भेजने का इच्छुक होगा, क्योंकि अपने बच्चों को प्रगति करते हुए देखकर,भला कौन प्रसन्न नहीं होगा? शिक्षा में वह शक्ति है जो व्यक्ति को संस्कारित करके, उसे मानव से महामानव बनाने की सामर्थ्य प्रदान करती है, उसे पुस्तकीय एवं व्यवहारिक ज्ञान प्रदान करके, उसका आन्तरिक और बाह्य विकास करती है, देश व दुनिया से जुड़ने के अवसर प्रदान करती है तथा उसका सर्वांगीण विकास करने में सहायक सिद्ध होती है। यह तभी संभव होता है, जब उसका शिक्षक विद्वान, चरित्रवान तथा बालमनोविज्ञान का पारखी होता था शिक्षण उसके लिए राष्ट्र सेवा हो, धनोपार्जन का साधन मात्र नहीं। शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जो विद्यार्थी में कौशल विकसित करने, प्रतिभा का उपयोग करने तथा रोज़गार के अवसर प्रदान करने में सहायक हो। संख्यात्मक दृष्टि से छोटे-बड़े गांवों, कस्बों व गली-मोहल्लों में, प्राथमिक विद्यालय खोले जाने से शिक्षा की जो दुर्दशा हुई, अब वही स्थिति महाविद्यालयों की भी होने लगी है।

समझने और समझाने की बात यह है कि पहाड़ का विशुद्ध पर्यावरण, शुद्ध वायु,निर्मल जल स्रोतों, नियमित जीवन शैली,इसी धरती पर उत्पन्न मौसमी शाक-सब्जियों, मोटे अनाजों, दाल-मसालों का उपयोग करने तथा पैदल चलने के कारण, यहां के निवासियों को ऐसा कोई रोग ही नहीं होता था जिसका इलाज लोक जीवन में प्रचलित औषधियों से न किया जा सके। उन लोगों से किसी डॉक्टर को यह कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी, ‘मार्निंगवॉक किया करो।’ जब आज डॉक्टर के कहने पर नगरों में रहने वाले स्त्री-पुरुष, लड़के-लड़कियां स्वास्थ्य-लाभ के लिए प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर, भ्रमण पर जा रहे हैं तो हमारे गांवों में रहने वाले बच्चे अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए, पिछली पीढ़ी के बच्चों की तरह पैदल चलकर, विद्यालय क्यों नहीं जा सकते? वहां का पर्यावरण तो आज भी विशुद्ध ही है। आवश्यकता है, यह सोचने और स्वयं से कहने की ‘यह पहाड़ मेरा है…इसे उजड़ने से मैं ही बचा सकता हूं/सकती हूं…पहाड़ से पलायन मैं ही रोक सकती हूं/सकता हूं, क्योंकि यहां के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित, पहाड़ का हित और अहित किसमें है…यहां किसको, किसकी और कितनी आवश्यकता है… यहां के निवासियों की समस्याएं क्या हैं तथा इनका निस्तारण कैसे किया जा सकता है, ये मुझसे अधिक कोई नहीं जानता। बाहरी व्यक्ति तो अतिथि की भांति मात्र अनुमान लगा सकता है….. सहानुभूति रख सकता है…. संवेदना भी व्यक्त कर सकता है…किन्तु खा-पीकर, दो-चार दिन रहकर…अंततः वह पर्यटक की भांति लौट ही जाएगा।

पहाड़ से पलायन को रोकने के लिए आवश्यक है कि संख्यात्मक दृष्टि की अपेक्षा गुणवत्तात्मक दृष्टि से विद्यालयों का निर्माण किया जाए। इसके लिए यहां के गांवों और कस्बों के आस-पास जितने भी शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान हैं, उनकी गुणवत्ता वृद्धि पर ध्यान केन्द्रित किया जाना नितांत आवश्यक है। विद्यालयों में बच्चों की अभिरुचि के अनुरूप उन्हें पढ़ाई के साथ ही क्रीड़ा, संगीत, साहित्य, कला, कृषि, उद्योग, तकनीकी, कम्प्यूटर आदि रोज़गार पर शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था भी की जानी चाहिये। हम चाहते तो हैं, पहाड़ का विकास होना चाहिए, किन्तु हमें यह भी समझना होगा, जब तक विकास अवैज्ञानिक तरी़के से होगा, विनाश होना निश्चित है। जब कभी, जहां कहीं भी दूरगामी परिणामों पर चिंतन किए बिना विकास कार्य प्रारम्भ किए गए है, वहां विनाश ही हुआ है, क्योंकि अंधविकास और विनाश का साथ चोली-दामन सा होता है।

यदि पहाड़ का विकास वैज्ञानिक रीति से होता तो आज न तो पहाड़ से पलायन होता और न यहां के जंगलों में रहने वाले जीव-जंतु अपना घर छोड़कर, गांवों में प्रवेश करने को विवश होते। मनुष्य हो या पशु, प्रत्येक अपने-अपने अस्तित्त्व की रक्षा करना चाहता है, सभी को अपना जीवन प्रिय होता है। नभचर हो अथवा जलचर, चींटी हो अथवा  हाथी सभी को खाना-पीना, घर-परिवार, अपने समुदाय तथा आश्रय  की आवश्यकता होती है। सर्वप्रथम हमने ही वनों को उजाड़ा, उनके क्षेत्र में आधिपत्य स्थापित करके उन्हें बेघर किया, आज जब वे हमारे क्षेत्र में प्रवेष करके, हमारी खेती-बाड़ी उजाड़कर, हमें दण्डित करने लगे हैं तो हम उन पर दोषारोपण क्यों कर रहे हैं? पहाड़ में लोक प्रचलित उक्ति है, ‘आघिलौकजईलाकौड पछिलै ऊं।’ जिस व्यथा-पीड़ा से कल ये वनवासी गुजरे थे आज हमें उसका सामना करना पड़ रहा है। वास्तव में कल जो बोया था आज वह काटना पड़ रहा है, निःसंदेह बोने वाले कोई और थे, काटना हमारी विवशता है। खा गए दाढ़ी वाले पकड़े गए मूंछों वाले। मनुष्य हो या पशु, आगे बढ़ने का अधिकार सभी को है। आदि युग में हम भी वनवासी ही थे, विकास यात्रा करते हुए, सुख-सुविधा, मनचाहा जीवन प्राप्त करने की लालसा में उन्नति करते-करते, जंगल से गांवों तक और गांवों से नगर, नगर से प्रांत, देश से विदेश और अब तो अंतरिक्ष पर दृष्टि केन्द्रित करते हुए, चंद्रमा और मंगल तक जा पहुंचे हैं। अब आप ही बताइये, इसे प्रगति कहा जाए या पलायन?

 

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