इस आपदा ने कि हमें परिवार के प्यार व साथ का महत्व बताया है और सिखाया है कि कम सुविधा साधनों में भी हम सुख व शांति से जीवन व्यतीत कर सकते हैं। रिश्तों को प्यार व अपनेपन से कैसे सहेजा जाता है, यह सबक भी इस संकट से हम काफी हद तक सीख चुके हैं।
कोरोना महामारी ने हमारी इंसानी जिंदगी को ऐसे-ऐसे गहरे दंश दिये हैं जिनकी कल्पना भी डरा देती है। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक छोटा सा अदृश्य विषाणु समूची दुनिया की चूलें हिला देगा और उस पर नियंत्रण के सारे उपाय एकबारगी बौने साबित हो जाएंगे। बीते वर्ष के उस भयावह वैश्विक परिदृश्य को याद कर आज भी मानवता कांप उठती है जब एक छोटे से विषाणु की घातक मारक क्षमता ने असमय ही लाखों जिंदगियां लील ली थीं। समूची वैश्विक अर्थव्यवस्था अचानक ही चरमरा गयी थी। यह सच है कि कोरोना की पहली लहर के दौरान हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के देशव्यापी लॉकडाउन के दूरदर्शी निर्णय ने व्यापक जनहानि को तो रोक लिया था, पर वैश्विक मंदी के प्रभाव से भारत भी अछूता न रहा। नौकरी जाने, वेतन कटौती और बेरोजगारी की पीड़ा सिर्फ भुक्तभोगी ही जान सकते हैं। पहली लहर में देशव्यापी लॉकडाउन के समय रोजी-रोटी के संकट से जूझते लाखों प्रवासी श्रमिकों के अपने गृहक्षेत्रों की ओर पैदल पलायन के पीड़ादायी दृश्यों तथा दूसरी लहर के दौरान देश के लचर चिकित्सीय ढांचे और ऑक्सीजन की कमी से हुई लाखों मौतों के उस भयावह मंजर ने हर भावनाशील देशवासी की आंखों में आंसू ला दिए थे।
लेकिन; यह बात भी उतनी ही सच है कि तमाम कड़वे दंशों के साथ इस महामारी ने हमें जीवन के अनेक पाठ भी पढ़ाए हैं। कोविड-19 की वजह से हुए लॉकडाउन और अनलॉक के बाद के बदलावों ने हमारी जीवनशैली पूरी तौर पर बदल दी है। जिंदगी के अनेक महत्वपूर्ण सबक हमें इस आपदाकाल ने सिखाये हैं। इस महामारी ने लोगों को बोध करा दिया है कि जीवनयापन के लिए धन बेहद आवश्यक है, पर केवल और केवल धन के पीछे भागना नादानी है। कारण कि धन से न जीवन खरीदा जा सकता है, न जीवन की सुख, शांति व खुशी। कारण कि अगर पैसा ही सब कुछ होता तो धनवान इस संक्रमण से न मरते और दुनिया के सबसे अमीर लोग सबसे ज्यादा खुश व सुखी होते। एक शोध के अनुसार दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीब लोगों के बीच खुशियों का अंतर एक प्रतिशत भी नहीं है। पैसे से सिर्फ सुविधाएं व विलासिताएं बटोरी जा सकती हैं, खुशियां व सुकून नहीं। इस संकट काल से मिली इस गहरी सीख के बाद लोग अब अपनी तेज रफ्तार व विलासी जीवनशैली पर गंभीरता से पुनर्विचार करने लगे हैं।
अभी टला नहीं है खतरा
भले ही अभी स्थितियां नियंत्रित दिख रही हों लेकिन खतरा अभी टला नहीं है। लगातार बढ़ रहे कोरोना वायरस के मामलों से देश में तीसरी लहर की आहट सुनाई देने लगी है। नए दैनिक आंकड़े इस बात का सबूत हैं कि इस दिशा में अभी ढिलाई की कोई गुंजाइश नहीं है। इसे देखते हुए देश के स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने चेतावनी जारी की है कि अक्टूबर महीने में कोरोना की रफ्तार फिर एक बार जोर पकड़ सकती है। गौरतलब हो कि गृह मंत्रालय के निर्देश पर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट की तरफ से तैयार की गयी एक हालिया रिपोर्ट में अक्टूबर में तीसरी लहर की आशंका जताते हुए इस दौरान बच्चों को लेकर अधिक सावधानी बरतने, उनको प्राथमिकता से वैक्सीन लगाने और बच्चों की देखभाल के लिए अस्पतालों को अलर्ट मोड में रहने की सलाह दी गयी है।
जरा याद कीजिए इस संकट से पहले का वह आत्मकेंद्रित शहरी समाज जिसे किसी दूसरे के दुख-तकलीफ की न तो कोई चिंता होती थी न परवाह। दूसरे तो दूर की बात अपने माता-पिता, भाई-बहन व अन्य परिवारजनों की दुःख-चिंता के प्रति भी लोग पूरी तरह बेपरवाह रहते थे। हममें से शायद कईयों ने कुछ साल पहले देश की राजधानी दिल्ली के एक अत्याधुनिक सुविधासंपन्न शानदार अपार्टमेंट के एक फ़्लैट में रहने वाली जीवन के सूनेपन से जूझती एक अकेली विधवा महिला की बेहद दर्दनाक मौत की खबर मीडिया में पढ़ी-देखी होगी; जिसका इकलौता बेटा अमेरिका में लाखों कमाता था। पड़ोसियों से मां की मौत की खबर मिलने पर जब वह भारत आया था तो उसे अपनी मां का लगभग एक महीने पुराना जीर्ण-शीर्ण कंकाल मिला था। आयेदिन अखबारों व चैनलों की सुर्खियां बनने वाली ऐसी घटनाएं निःसंदेह हमारी महान सांस्कृतिक जीवन मूल्यों पर गहरा आघात हैं। लेकिन कोरोना के इस दंश ने लोगों की इस स्वार्थी व संकीर्ण मानसिकता में एक सकारात्मक परिवर्तन किया है। सामाजिक दूरी की अनिवार्यता का पालन करते हुए इस आपदा काल में लोग अपनी छतों-बालकनियों में आकर पड़ोसियों का नियमित हालचाल पूछने लगे हैं, फोन पर बात करके एक-दूसरे की दुःख तकलीफ सुनने, समझने व महसूस करने लगे हैं, मदद को आगे आने लगे हैं। इस आपदा ने कि हमें परिवार के प्यार व साथ का महत्व बताया है और सिखाया है कि कम सुविधा साधनों में भी हम सुख व शांति से जीवन व्यतीत कर सकते हैं। रिश्तों को प्यार व अपनेपन से कैसे सहेजा जाता है, यह सबक भी इस संकट से हम काफी हद तक सीख चुके हैं। यही नहीं, इस आपदा ने स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा बुनियादी स्तर पर मजबूत करने की अहम जरूरत देश के नीति नियंताओं को बतायी है। कोरोना के बाद से सभी वर्ग के लोग सेहत व साफ-सफाई के प्रति विशेष रूप से जागरूक हुए हैं। पहले लोग सड़कों पर गंदगी फैलाने, थूकने, कचरा इधर-उधर गिराने से नहीं चूकते थे लेकिन अब वे यह बात अच्छी तरह से जान चुके हैं कि ऐसा करना उनके खुद के लिए भी जानलेवा हो सकता है। इस अवधि में देश-दुनिया में भारतीय योग, प्राणायाम, आयुर्वेद व शाकाहार के प्रति लोगों का रुझान काफी तेजी से बढ़ा है। वैज्ञानिक और चिकित्सक भी शाकाहार को अधिक स्वास्थ्यप्रद बताकर इसे अपनाने की हिमायत कर रहे हैं। स्वच्छता व अभिवादन की भारतीय परम्पराएं वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय हुई हैं। इस संकट ने हमारी कार्यसंस्कृति में भी कई अहम बदलाव किये हैं। पहले जिस ‘वर्क फ्रॉम होम’ कल्चर को अव्यवहारिक माना जाता था; कोरोना काल ने बेहतर नतीजों के साथ उसकी उपयोगिता साबित कर दिखायी है। बच्चों की ऑनलाइन शिक्षा के प्रयोग ने यह साबित किया है कि संकटकालीन स्थितियों में यह प्रविधि भी शिक्षा का एक बेहतर विकल्प बन सकती है।
काबिलेगौर हो कि कोरोना त्रासदी से पहले दुनिया के कई देशों में दशकों से मिसाइलों और परमाणु हथियारों के जखीरे इकट्ठा करने की होड़ चल रही थी लेकिन यह सभी विशाल हथियार एक अति सूक्ष्म कोरोना वायरस के सामने फेल हो गये। इसी तरह पूरी दुनिया में कार्बन उत्सर्जन रोकने और पर्यावरण को बचाने के नाम पर हजारों करोड़ के फंड से होने वाले बड़े-बड़े पृथ्वी सम्मेलन धरती और प्रकृति की सेहत में जो सुधार न कर सके, वह एक नन्हे से कोरोना वायरस ने कर दिखाया। इस विषाणु ने सीख दी कि अगर मनुष्य अपनी अनियंत्रित गतिविधियों पर लगाम लगा ले तो मां प्रकृति स्वयं में इतनी सशक्त है कि खुद अपने आप को सुधार संवार कर हमें नवजीवन दे सकती है।