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और कितने मोड़

और कितने मोड़

by डॉ. दिनेश पाठक शशि
in उत्तराखंड दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२१, कहानी, विशेष
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अस्वस्थता का ध्यान आते ही शरीर में एक लहर-सी दौड़ गई। वह तेज बुखार में तप रहा था। जी चाह रहा था हिले भी न, फिर भी छुट्टी न मिल पाने के कारण फैक्टरी जाना पड़ रहा था। जैसे ही आधे रास्ते पहुंचा कि तेज वर्षा प्रारम्भ हो गई। भींगने के कारण कंपकंपी छूटने लगी। अत: टेस्ट रूम में पहुंचकर उसने हीटर जलाया।

आज का प्रश्न कुछ टेढ़ा है, बड़े भाई। वह बुदबुदाया और लिफाफा मोड़कर जेब में रख लिया। अनेक प्रश्न जैसे पहाड़ बनकर सामने खड़े हो गए। जब-जब उसने थकान महसूस की है और मन उद्विग्न हुआ है, अक्सर वह इस पार्क में आकर बैठा है। बाटा चौक का यह छोटा सा गोल पार्क जिसके बीचों-बीच बना चौकोर, छोटा-सा तालाब और तालाब में लगे बीसियों फव्वारों से उठती-गिरती रंगीन धाराओं को देखकर मन में एक शान्ति महसूस की है। उसे अंग्रेजी कविता ‘फाउंटेन’ की बरबस ही याद आती रही है, जिसने उसकी थकान को मिटाकर शरीर में नई स्फूर्ति का संचार किया है। वह चिन्ता-मुक्त हो प्रकृति की अद्भुत छटा में डूब गया है मगर आज यह सब चीजें निरर्थक सिद्ध हो गईं।

फैक्टरी से छूटकर कमरे पर गया। हाथ-मुंह धोने के बाद भी लगता रहा जैसे चेहरे की त्वचा पर खिंचाव बढ़ता जा रहा है। धच्च-धच्च कर स्टोव जलाया और खाना बना-खाकर शाम के सात बजते-बजते वह इस पार्क की तरफ चला आया। विशेष भीड़ होते हुए भी पार्क कुछ अजीब-सा लगा। उसने चारों ओर देखा। कई युगल बैठे-अधलेटे से चुहलबाजी कर रहे थे। फव्वारे हर तीस सेकंड बाद आज के आदमी की तरह अपना रंग बदल रहे थे। कभी पीला, कभी गुलाबी और कभी लाल, मगर वे भी आज अजीब लगे। उसकी निगाहें ऐसा स्थान ढूंढ़ने लगीं, जहां थोड़ी विरलता हो। निरीक्षण के बाद वह तालाब की दीवार के पास ही विद्युत खम्भे के नीचे आकर बैठ गया। ट्यूब लाइट के नीचे पतंगे और मच्छर तेज गति से इधर-उधर उड़ रहे थे फिर भी उनके अस्तित्व को नकारते हुए वह दीवार से पीठ लगाकर अधलेटा हो गया। तभी हल्का-सा हवा का एक झोंका आया। उसके साथ रजनीगंधा के फूलों की खुशबू और फव्वारे की नन्हीं-नन्हीं बूंदों की फुहार उसे मदहोश कर गई मगर तुरन्त ही विद्युत के झटके-सी प्रतिक्रिया हुई और हाथ जेब में पहुंच गया। हां, ये भाई साहब का चौथा पत्र है शायद। हां, चौथा ही है। इसके पहले के अभी तक तीन पत्रों का उत्तर भी नहीं दिया है और आज यह चौथा पत्र। उत्तर भी क्या दे? हर बार वह यहां आकर ठहर जाता है। प्रत्येक पत्र में एक ही प्रश्न होता है, जिसे वह टालता रहा है।

मगर यह पत्र। इसकी भाषा। सब कुछ एकदम बदला-बदला-सा है। दीवार से पीठ लगाए ही वह दोनों हाथों में पत्र को पकड़कर पढ़ता है। “समझ में नहीं आ रहा, मेरे हर पत्र के उत्तर को तुम पी रहे हो। इधर शादी वाले परेशान किए हुए हैं और तुम हो कि…… तुम्हारे इस मौन को स्वीकृति समझूं फिर?”

“नहीं,” अनायास ही उसके मूंह से एक दीर्घ स्वर निकल गया। ‘नहीं बड़े भाई। क्या पता तुम्हारे प्रश्नों को मैं पी रहा हूं या तुम्हारे प्रश्न मुझे पी रहे हैं। सबसे छोटा हूं न घर में। सभी का व्यवहार मैंने देखा और सीखा है। मुझे पता है कि बुझने से पूर्व दीपक की लौ बढ़ जाया करती है। मैं इस लौ को इस तरह बुझते नहीं देखना चाहता। मैं एकरूपता में विश्वास करता हूं।

‘ह……ह…..ह….. आप भी कमाल करते हैं बड़े भाई।’ वह आत्मलीन-सा हंस पड़ा, ‘क्या वही सब कुछ देखने के लिए बाध्य करना चाहते हैं मुझे, जो आपने देखा था?’

शादी हुए दस दिन भी नहीं बीते थे कि जाने कहां से शोला भड़क उठा। मां ने भाभी जी की छोटी-सी बात को तूल देकर घर में हंगामा मचा दिया। वह हंगामा छोटी-सी उस भूल के कारण मां ने उठाया था, यह मैं नहीं मानता। निश्चय ही मूल कारण दहेज कम मिलना था। भाभी जी ने भी आवेशवश घर की नींव ढही दीवारों और छतों की ओर इशारा कर दिया था। “क्या इसी महल में सोफा-सेट और टी.वी. रखते?” सुनकर कितने बौने हो गए थे आप, भूल नहीं पाया हूं। क्या जवाब दे पाये थे आप? हां, दिया था जवाब आपने। भाभी जी के सुन्दर चांद-से चेहरे पर चटाक की आवाज के साथ अपने हाथ की अंगुलियां छाप दी थीं। “ज्यादा बात करती है, बद्तमीज कहीं की।”

मैं आपका यह अप्रत्याशित रूप देख दंग रह गया था। भाभी जी, शायद वह भी इस क्षण के लिए तैयार न थीं। जीवन की कटु सच्चाई ने उनके भोले अन्तर्मन को कहीं गहरे तक झकझोर दिया। फलत: तुरन्त ही उन्हें जो दौरा पड़ा तो लाख कोशिशों के बावजूद एक घंटे तक उनकी दांती भिंची रही। डरते-डरते भाभी जी की हालत जब मैंने बयान की तो आप झुंझला उठे थे,‘मरने दे।’ पर थोड़ी ही देर बाद उभरे आपके चेहरे के निरीह भाव मुझे याद हैं। आप तुरन्त ही बदहवास से किन्तु डरते से भी मां और पड़ोसियों से घिरी भाभी जी के पास गए थे, जिस पर मां ने फब्ती कसी थी,“लो, आ गए सुनते ही। आज के इन मजनुओं ने सिर पर चढ़ा रखा है औरतों को। जोरू के गुलाम हैं ससुरे। और इसे देखो, कैसे बहाने बना रही है खसम के आगे।”

बेहोश पड़ी भाभी जी के प्रति कहे मां के शब्द मुझे भीतर तक झिंझोड़ गए, जिनका बिम्ब हमेशा के लिए मेरे मस्तिष्क में अंकित हो गया। मैं भविष्य के बारे में सोचता, साथ ही ये ठान भी लिया कि जब तक घर की माली हालत में सुधार नहीं होता, ढलती दीवारें और नीम लटकती छतें सुन्दर मकान के रूप में नहीं बदल जातीं, तब तक शादी नहीं करूंगा मगर ये सारी कल्पना साकार रूप कैसे ले, विचार के आते ही मैं एक अंधे मोड़ पर अपने को खड़ा पाता।

हाई स्कूल के बाद इण्टरमीडिएट भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर मेरा प्रवेश यूनिवर्सिटी में हो गया तो आपने पिताजी को लिखा था, “बड़ा होनहार लड़का है। थोड़ा ध्यान रखना इसके खान-पान का।” मैंने भी चोरी-छिपे वह पत्र पढ़ लिया जिसे पढ़कर मन फूला नहीं समाया था। “बड़ा होनहार लड़का है।”

मित्रों द्वारा इंजीनियर कहलाने के लोभ को संवरण कर पाना मेरे लिए मुश्किल हो गया। जब भी कोई साथी इंजीनियर सा कहकर पुकारता, गली में गुजरते हुए मेरा सीना स्वत: ही दो इंच फूल जाता और मैं उदारता दिखाते हुए कह देता,“अरे भाई, अभी कहां बन गया इंजीनियर। अभी तो पहला ही वर्ष है।” मगर अन्दर-ही-अन्दर कुछ गुदगुदा-सा जाता। कल्पना के पर लग जाते। इंजीयरिंग पूरी करते ही फर्स्ट क्लास नौकरी मिल ही जाएगी। बस, फिर क्या है? सबसे पहले एक मकान बनवाऊंगा इस जीर्ण-शीर्ण मकान को तुड़वाकर। फिर शादी का विचार आते ही किसी कन्या का सुन्दर चेहरा सामने घूम जाता। धीरे-धीरे फाइनल ईयर आ पहुंचा। सारे घर में उत्साह-सा दिखाई देने लगा। परीक्षा के बाद मैंने बताया कि पेपर बहुत अच्छे हुए हैं, तो मंझले भैया की उमंग बांसों उछलने लगी। एक आशा थी उसके पीछे, जो उन्हें ऐसा करने पर उद्यत कर रही थी। घर के सुधार की आशा। सभी रिश्तेदार-मित्रों ने भी पिताजी को आश्वासन दिए कि परीक्षाफल आने दो, नौकरी तो लगवा ही देंगे।

दो महीने बाद परीक्षाफल भी घोषित हो गया। प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने की खबर पाते ही घर में खुशियों का सैलाब-सा आ गया। खूब गीत-बाजे हुए। गलियों से गुजरते वक्त गांव के लोगों की प्रशंसात्मक द़ृष्टि जब मुझ पर केन्द्रित होती तो लगता जैसे बहुत बड़ा तीर मार लिया हो मैंने।

नव विकसित कलिका-सी खुशी में कुछ दिन तो बीत गए पर शीघ्र ही चिन्ता हुई और मैंने भाग-दौड़ आरम्भ कर दी। मगर ये क्या? जो लोग प्रशंसात्मक शब्दों की बौछार के साथ-साथ कहते नहीं थकते थे, ’सर्विस तो लगी ही समझो।’ अब वही किनारा करते नजर आए। परीक्षण के बाद सभी की असमर्थता का भान हुआ तो जिन्दगी के यथार्थ धरातल का ज्ञान हुआ। घर अब पतझड़ के मौसम-सा सूना-सूना लगने लगा। जिधर से गुजरता, लगता सभी की निगाहें उसे उसी तरह घूर रही हैं जैसे कटघरे में खड़े मुजरिम को एकत्रित भीड़ घूरती है। मैं सकपका जाता। अन्दर-ही-अन्दर एक आग सुलगती जो इस त्रासदी के विरुद्ध भड़क उठना चाहती।

विभिन्न अखबारों में रोजगार विज्ञापन ढूंढ़ते-ढूंढ़ते मस्तिष्क गरम हो उठता फिर भी रात को लगाए निशानों, पतों पर सुबह ही पोस्टल आर्डर और एप्लीकेशन रवाना कर देता मगर हर जगह साक्षात्कार के लिए बाद में बुलाया जाता। एप्रोच वालों का सिलेक्शन पहले ही हो जाता।

चीं ऽऽ धच्च! एक जोरदार आवाज सुनकर वह हड़बड़ा उठा। यक-ब-यक निगाह आवाज की दिशा में घूम गई। थर्मल पॉवर प्लांट की ओर से आता हुआ ट्रक एक विद्युत खम्भे से टकरा गया था। पार्क की भीड़ के साथ वह भी ट्रक के पास पहुंच गया। “अरे, यह तो अपनी ही फैक्टरी का ट्रक है।” अचानक निगाह ट्रक पर लिखे नाम पर पहुंच गई। वह लापरवाही से फिर उसी जगह जा बैठा। वर्तमान विगत में बदल गया।

मिस्टर गौतम के टेलीग्राम ‘कम सून’ को पढ़ते ही वह तुरन्त चला आया था। औपचारिक साक्षात्कार के बाद इस फैक्टरी में उसका सिलेक्शन हो गया था। ‘चलो, बेरोजगारी के दंश से तो छूटे।’ दिल में राहत हुई। सर्विस लग गई सुनकर लोगों ने फिर रंग बदला।

“बड़ा होशियार लड़का था।” एक शुभचिन्तक ने प्रशंसा की।

“अरे, बड़े भाग तैं मिलै है ऐसी सन्तान। बड़ौ सीधौ-सादौ छोरा है। घर की हालत सुधारि देगौ अब।” पड़ोसी ने आशा व्यक्त की।

“हमें तो पता नहीं चला। वरना सर्विस तो हम ही लगवा देते।” एक रिश्तेदार ने भलमनसाहत लूटी।

परिवार के प्रत्येक सदस्य का दिल भी प्रसन्नता से उछलने लगा-हालात की तबदीली की आशा से मगर महंगाई और वेतन के जोड़-घटाने में ही एक वर्ष बीत गया सूखा ही, तो पिताजी को शंका हुई। कहीं शहर जाकर लड़का…. जिस दिन भाई साहब का पत्र आता या किसी युगल को चुहलबाजी करते पाता तो उसका मन भी कहीं कल्पनालोक में खो जाता और उम्र का तकाजा प्रबल हो उठता। फैक्टरी का शोषण याद आते ही कल्पनाएं हिरन हो जातीं। कुन्द मन तीन सौ पैंसठ दिनों में क्या खोया, क्या पाया की गणना करने लगता। क्या फायदा हुआ उसे पढ़ा-लिखाकर? एक पैसा भी नहीं भेजा अभी तक घर। आगे पढ़ते जाने का विचार भी मटियामेट हो गया। क्या कुछ नहीं देखा उसने इस अल्प अवधि में। प्राइवेट फैक्टरियेां में होता शोषण। लगता चार-पांच सौ रुपये देकर खरीद लिया हो मालिकों ने भारतीय अभियन्ताओं को, उनके हाथों को, उनकी कल्पना को। उनके दिमाग को और उन्हें पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलानी है मालिक के आगे। भले ही शरीर अस्वस्थ हो पर छुट्टी नहीं।

अस्वस्थता का ध्यान आते ही शरीर में एक लहर-सी दौड़ गई। वह तेज बुखार में तप रहा था। जी चाह रहा था हिले भी न, फिर भी छुट्टी न मिल पाने के कारण फैक्टरी जाना पड़ रहा था। जैसे ही आधे रास्ते पहुंचा कि तेज वर्षा प्रारम्भ हो गई। भींगने के कारण कंपकंपी छूटने लगी। अत: टेस्ट रूम में पहुंचकर उसने हीटर जलाया ही था कि मालिक मि. अग्रवाल ने प्रवेश किया।

“आई डिंट फाइन्ड यू इन टाइम इन द फैक्टरी ऐनी डे, मिस्टर!” आते ही अग्रवाल ने गर्जना की। “सर,” कपड़ों को निचोड़ने की प्रक्रिया करते हुए उसने निरीहता से देखा, “इतनी वर्षा में भी ड्यूटी पर आ रहा हूं।”

“तो क्या हुआ? डज द फैक्टरी नॉट पे यू?”

सुनकर तन-बदन में आग सुलग उठी उसके। जी में आया अभी जोरदार मुक्का अग्रवाल की नाक पर लगा दे और पूछे कि चार सौ रुपये में तूने खरीद लिया है क्या?

अक्सर ऐसी आक्रामक स्थिति वेतन वाले दिन हो उठती। जो भी चीज पैरों तले आ जाती, जी करता बहुत जोर से ठोकर लगा दे। वेतन मिलने के तीन दिन बाद ही जेब खाली हो जाती। ऐसे में वह शंकित रहता, कहीं कोई रिश्तेदार न आ जाए।

कभी-कभी वह स्वत: ही वय की प्याली में दर्दों का कालकूट पीता हुआ-सा एकदम सहज हो जाता। खुली आँखों से सब-कुछ देखते हुए भी न देखता-सा, सांसारिकता से विरक्ति-सी होने लगती पर बीच-बीच में भाई साहब के पत्र समाधि भंग कर देते, जिनके समाधान हेतु वह विचारों की गुत्थी सुलझाते-सुलझाते खुद उलझ जाता। अन्त में पत्रोत्तर न दे, चुप लगा जाना ही एकमात्र समाधान दिखता मगर यह चौथा पत्र। आगे पढ़ने का विचार, पांचों अंगुली छपा भाभी जी का निरीह चेहरा, नीम लटकती घर की दीवारें और हाय-तौबा से होते हुए फैक्टरी के शोषण तक, एक-एक कर सारी स्थितियां सामने घूम गईं। सभी कुछ तो पहले जैसा अपरिवर्तित है। उसे लगा जैसे अनेक मोड़ों को पार करता हुआ वह एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है, जहां से कोई राह नहीं सूझती।

अचानक तालाब की दीवार कुछ अधिक ठंडी-सी लगी। उसने इधर-उधर देखा। सभी जा चुके थे फिर अन्यमनस्कता से घड़ी की ओर देखा और उठकर वह भी कमरे की दिशा में घूम गया। सोचते हुए- कब तक वह अकेला ये कालकूट पीता रहेगा?

फब्बारा अब भी उसी तरह रंग बदल रहा है।

 

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डॉ. दिनेश पाठक शशि

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