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एक अनवरत सांस्कृतिक प्रवाह है अखंड भारत

एक अनवरत सांस्कृतिक प्रवाह है अखंड भारत

by अरुण आनंद
in जनवरी- २०२२, विशेष, संघ
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कुल मिलाकर अगर हम अखंड भारत चाहते हैं तो भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है उसे अपना मानदंड बनाकर चलना होगा। दीनदयाल जी के अखंड भारत के स्वप्न् को साकार करने के आह्वान का आज पुन: स्मरण करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा था, … हमें हिम्मत हारने की जरूरत नहीं। यदि पिछले सिपाही थके हैं तो नए आगे आएंगे।

अखंड भारत की अवधारणा क्या है? इस अवधारणा को लेकर अक्सर भ्रम की स्थिति भी पैदा हो जाती है। इसका कारण है पश्चिम की अवधारणाओं के नजरिए से सोचना या विश्लेषण करना। पश्चिम में किसी राष्ट्र की अवधारणा केवल एक भौगोलिक अवधारणा है। पश्चिमी देश मूलत: जमीन के किसी एक भूभाग को देश यां राष्ट्र का नाम देते हैं लेकिन भारतीय दृष्टिकोण इससे अलग है। भारत में राष्ट्र की अवधारणा मूलत: सांस्कृतिक पक्ष पर टिकी है। भारतीय वांग्मय को आप देखें तो पता चलता है कि कुछ विशिष्ट सभ्यतागत मूल्यों को स्वीकार कर उन्हें अपने जीवन में धारण करने की संस्कृति को राष्ट्र का नाम दिया गया है। इसमें भूगोल गौण है, प्रधान है -संस्कृति। इस प्रकार भारतीय संदर्भों में राष्ट्र अथवा अखंड भारत एक सांस्कृतिक प्रवाह है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 24 अगस्त 1953 को हिंदी साप्ताहिक पांचजन्य में इस अवधारणा को समसामयिक संदर्भों में इस प्रकार स्पष्ट किया है, अखंड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोण का द्योतक है जो अनेकता में एकता के दर्शन करता है। अत: हमारे लिए अखंड भारत कोई राजनीतिक नारा नहीं जो परिस्थिति विशेष में जनप्रिय होने के कारण हमने स्वीकार किया हो बल्कि यह तो हमारे संपूर्ण दर्शन का मूलाधार है। 15 अगस्त, 1947 को भारत की एकता के खंडित होने के तथा जन-धन की अपार हानि होने के कारण लोगों को अखंडता के अभाव का प्रकट परिणाम देखना पड़ा और इसलिए आज भारत को पुन: एक करने की भूख प्रबल हो गई है किंतु यदि हम अपनी युग-युगों से चली आई जीवन-धारा के अंत:प्रवाह को देखने का प्रयत्न करें तो हमें पता चलेगा कि हमारी राष्ट्रीय चेतना सदैव ही अखंडता के लिए प्रयत्नशील रही है तथा इस प्रयत्न में हम बहुत कुछ सफल भी हुए हैं।

भारतीय वांग्मय में भारतवर्ष की व्याख्या इस प्रकार की गई है:

उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।

वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति:॥

दीनदयाल जी के अनुसार, हमने भूमि, जन और संस्कृति को कभी एक-दूसरे से भिन्न नहीं किया अपितु उनकी एकात्मता की अनुभूति के द्वारा राष्ट्र का साक्षात्कार किया। अखंड भारत इस राष्ट्रीय एकता का ही पर्याय है।

उन्होंने स्पष्ट किया कि, एक देश, एक राष्ट्र और एक संस्कृति की जो आधारभूत मान्यताएं हैं उनका सबका समावेश अखंड भारत शब्द के अंतर्गत हो जाता है। अटक से कटक, कच्छ से कामरूप तथा कश्मीर से कन्याकुमारी तक संपूर्ण भूमि के कण-कण को पुण्य और पवित्र ही नहीं अपितु आत्मीय मानने की भावना अखंड भारत के अंदर अभिप्रेत है।

इस पुण्यभूमि पर अनादि काल से जो प्रथा उत्पन्न हुई तथा आज जो है उनमें स्थान और काल के क्रम से ऊपरी चाहे जितनी भिन्नताएं रही हों किंतु उनके संपूर्ण जीवन में मूलभूत एकता का दर्शन प्रत्येक अखंड भारत का पुजारी करता है। अत: सभी राष्ट्रवासियों के संबंध में उसके मन में आत्मीयता एवं उससे उत्पन्न पारस्परिक श्रद्धा और विश्वास का भाव रहता है। वह उनके सुख-दु:ख में सहानुभूति रखता है। इस अखंड भारत माता की कोख से उत्पन्न सपूतों ने अपने क्रिया-कलापों से विविध केंद्रों में जो निर्माण किया उसमें भी एकता का सूत्र रहता है। हमारी धर्म-नीति, अर्थ-नीति और राजनीति, हमारे साहित्य, कला और दर्शन हमारे इतिहास पुराण और आशय, हमारी स्मृतियों विधान सभी में देव पूजा के विभिन्न व्यवधानों के अनुसार बाह्य भिन्नताएं होते हुए भी भक्त की भावना एक है। हमारी संस्कृति की एकता का दर्शन अखंड भारत के पुरस्कर्ता के लिए आवश्यक है।

उन्होंने कहा, संपूर्ण जीवन की एकता की अनुभूति तथा उस अनुभूति के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को दूर करने के रचनात्मक प्रयत्न का ही नाम इतिहास है। गुलामी हमारी एकत्वानुभूति में सबसे बड़ी बाधा थी। फलत: हम उसके विरुद्ध लड़े। स्वराज्य प्राप्ति उस अनुभूति में सहायक होनी चाहिए थी। वह नहीं हुआ इसीलिए हम खिन्न हैं। आज हमारे जीवन में विरोधी-भावनाओं का संघर्ष हो रहा है। हमारे राष्ट्र की प्रकृति है ‘अखंड भारत’। खंडित भारत विकृति है। आज हम विकृत आनंदानुभूति का धोखा खाना चाहते हैं किंतु आनंद मिलता नहीं। यदि हम सत्य को स्वीकार करें तो हमारा अंत:संघर्ष दूर होकर हमारे प्रयत्नों में एकता और बल आ सकेगा।

कई लोगों के मन में शंका होती है कि अखंड भारत सिद्ध भी होगा या नहीं। उनकी शंका पराभूत मनोवृत्ति का परिणाम है। पिछली अर्धशताब्दी के इतिहास तथा हमारे प्रयत्नों की असफलता से वे इतने दब गए हैं कि अब उनमें उठने की हिम्मत ही नहीं रह गई। उन्होंने सन् 1947 में अपने एकता के प्रयत्नों की पराजय तथा पृथकतावादी नीति की विजय देखी। उनकी हिम्मत टूट गई और अब वे उस पराजय को ही स्थायी बनाना चाहते हैं किंतु यह संभव नहीं। वे राष्ट्र की प्रकृति के प्रतिकूल नहीं चल सकते। प्रतिकूल चलने का परिणाम आत्मघात होगा। गत छह वर्षों की कष्ट परंपरा का यही कारण है।

सन् 1947 की पराजय भारतीय एकतानुभूति की पराजय नहीं अपितु उन प्रयत्नों की पराजय है जो राष्ट्रीय एकता के नाम पर किए गए। हम असफल इसलिए नहीं हुए कि हमारा ध्येय गलत था बल्कि इसलिए कि मार्ग गलत चुना। सदोष साधन के कारण ध्येय सिद्धि न होने पर ध्येय न तो त्याज्य ही ठहराया जा सकता है और न अव्यवहारिक ही। आज भी अखंड भारत की व्यवहारिकता में उन्हीं को शंका उठती है जिन्होंने उन दोषयुक्त साधनों को अपनाया तथा जो आज भी उनको छोड़ना नहीं चाहते। कुल मिलाकर अगर हम अखंड भारत चाहते हैं तो भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है उसे अपना मानदंड बनाकर चलना होगा। दीनदयाल जी के अखंड भारत के स्वप्न् को साकार करने के आह्वान का आज पुन: स्मरण करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा था, … हमें हिम्मत हारने की जरूरत नहीं। यदि पिछले सिपाही थके हैं तो नए आगे आएंगे। पिछलों को अपनी थकान को हिम्मत से मान लेना चाहिए, अपने कर्मों की कमजोरी स्वीकार कर लेनी चाहिए, लड़ाई जीतेंगे ही नहीं यह कहना ठीक नहीं। यह हमारी आन और शान के खिलाफ है, राष्ट्र की प्रकृति और परंपरा के प्रतिकूल है।

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Tags: akahand bharatcultural valuesheritagehindi vivekhindi vivek magazineindian culturetraditions

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