रानी गाईदिन्ल्यू: स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वोत्तर की प्रतिनिधि यौद्धा 

पूर्वोत्तर के जनजातीय क्षेत्रों में एक लोकोक्ति बड़ी ही प्रचलित है –  “सोत पो, तेरह नाती ; तेहे करीबा कूँहिंयार खेती।” अर्थात स्त्री यथेष्ट संख्या में जब बच्चों को जन्म देगी तब ही समाज में खेती सफल होगी। पूर्वोत्तर के हाड़तोड़ श्रम करने वाले समाज में यह कहावत परिस्थितिवश ही जन्मी होगी। इस क्षेत्र में ऐसा इसलिए माना जाता था कि बच्चों को जन्म देकर व उनसे श्रम करवाकर ही परिवार का पालन पोषण हो सकता है; ऐसी मान्यता व परिस्थितियां वहां थी। ऐसे निर्धन किंतु संघर्षशील समाज से निकली महिला का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नाम जुड़ना एक विलक्षण बात थी। 26 जनवरी 1915 को जन्मी, एक चमकीले नक्षत्र की तरह चमकती रानी गाईदिन्ल्यू की कथा संघर्ष का एक महाकाव्य है।

भारत के स्वतंत्रता इतिहास को न जाने कितनी ही ज्ञाता अज्ञात मातृशक्ति ने अपनी अद्भुत वीरता, साहस व बलिदानों से समृद्ध किया है। रानी दुर्गावती से लेकर रानी झांसी लक्ष्मीबाई तक का एक बड़ा ही समृद्ध व विस्तृत इतिहास रहा है वीर भारतीय नारियों का। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वोत्तर के राज्य नागालैंड की रानी गाईदिन्ल्यू का नाम भी बड़ा ही उल्लेखनीय व वंदनीय है। 1915 से 1993 तक की अपनी जीवन यात्रा से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को पूर्वोतर का प्रतिनिधित्व देने वाली नागा रानी गाईदिन्ल्यू या रानी गेडाऊ आध्यात्म से परिपूर्ण राजनैतिक महिला थी। 1982 में रानी भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से भी सम्मानित की गई।

नागालैंड की महारानी लक्ष्मीबाई के नाम से प्रसिद्द स्वाभिमानी रानी गाईदिन्ल्यू का जन्म मणिपुर में हुआ था। मात्र 13 वर्ष की आयु में पूर्वोत्तर के क्रांतिकारी नेता जादोनाग के संपर्क में आने के बाद से ही रानी अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष में जुट गई थी। जादोनांग  द्वारा चलाये जा रहे संघर्ष को वहां के लोग हेराका आंदोलन कहा करते थे। हेराका का लक्ष्य प्राचीन नागा धार्मिक मान्यताओं की बहाली और पुनर्जीवन प्रदान करना था। अंग्रेजों द्वारा पूर्वोत्तर में सतत बलपूर्वक कराये जा रहे धर्मांतरण का भी जादोनांग व रानी गेड़ाऊ कड़ा विरोध करती थी। जादोनांग द्वारा चलाए गए इस आंदोलन का स्वरूप आरंभ में धार्मिक था किंतु धीरे-धीरे उसने राजनीतिक स्वरूप ग्रहण करते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। इस आंदोलन के दौरान मणिपुर और नागा क्षेत्रों से अंग्रेजों को बाहर खदेड़ना शुरू किया गया।

क्रांतिकारी जादोनांग के असमय बलिदान के बाद रानी गाईदिन्ल्यू स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढाने लगी। रानी ने नागाओं के कबीलों में एकता स्थापित करके अंग्रेज़ों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए कदम उठाये। रानी को जादोनांग के बलिदान से उपजे असंतोष के कारण जनता का बड़ा समर्थन मिला। रानी को वहां का जनजातीय समाज उनकी पूज्य देवी चेराचमदिनल्यू देवी का अवतार मानने  लगा। अपने दिव्य आभामंडल से मात्र सोलह वर्ष की आयु में इस नन्ही क्रांतिकारी बालिका ने अपने साथ चार हज़ार सशस्त्र नागा सिपाही जोड़ लिए। इन्हीं को लेकर भूमिगत रानी गाईदिन्ल्यू   ने अंग्रेज़ों की सेना का सामना किया और  वह गोरिल्ला युद्ध से अंग्रेजों को छकाने लगी।  रानी की छवि अंग्रेजी सेना में खूंखार यौद्धा की बन गई और वहीं सामान्य वर्ग उन्हें अपनी देवी व उद्धारक मानने लगा था।

अंग्रेज रानी के आन्दोलन को दबाने के लिए हरसंभव अत्याचारपूर्ण प्रयत्न करने लगे। रानी के सशस्त्र नागाओं ने एक दिन  ‘असम राइफल्स’ की सरकारी चौकी पर हमला कर दिया। रानी व अंग्रेजों के मध्य सतत संघर्ष के चलते रानी एक किले के निर्माण में जुट गई जहां रहकर वह अपनी सेना के साथ अपनी जनता को नेतृत्व दे सके। इस किले के निर्माणकाल में ही  17 अप्रैल, 1932 को अंग्रेज़ों की सेना ने अचानक रानी पर आक्रमण कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद अंग्रेजों  ने रानी पर मुकदमा चलाया और वे चौदह वर्षों तक अंग्रेजों की कैदी के रूप में जेल में रहीं। 1947 में देश के स्वतंत्र होने पर ही वे जेल से मुक्त हो पाई थी। रानी गाईदिन्ल्यू के स्वतंत्रता सग्राम में योगदान के कारण ही उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का ताम्रपत्र 1972 में प्रदान किया गया, 1983 में उन्हें विवेकानंद सम्मान से सम्मानित किया गया व 1996 में उनके नाम से भारत सरकार द्वारा डाकटिकिट भी जारी किया गया।

रानी गाईदिन्ल्यू ने स्वतंत्रता संघर्ष के अपने कठिनतम समय के अनुभवों को सुनाते समय एक बार बताया था  कि “मैं (रानी) उनके लिए (अंग्रेजों के लिए)  जंगली जानवर के समान थी, इसलिए एक मजबूत रस्सी मेरी कमर से बांधी गई। दूसरे दिन कोहिमा में मेरे दूसरे छोटे भाई ख्यूशियांग की भी क्रूरता से पिटाई की गई और इस प्रकार हम दोनों भाई बहन को तरह तरह की यातनाएं दी गई। कड़कड़ाती ठंड में हमारे कपड़े छीन कर हमें रातों में ठिठुरने के लिए छोड़ दिया गया, पर मैंने धीरज नहीं खोया था।” रानी को इंफाल जेल में रखा गया और उन पर राजद्रोह का अपराध लगाकर मुकदमा चलाया गया, जिसमें उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई थी। अंग्रेज रानी गाईदिन्ल्यू से इतने भयभीत थे कि  वायसराय ने रानी  की रिहाई गाईदिन्ल्यू के लिए असम की असेंबली में प्रश्न पूछने पर प्रतिबंध लगा दिया था। अंग्रेजी शासन  उन्हें एक खतरनाक विद्रोही मानता था। स्वतंत्रता के पश्चात भी रानी अपने देश, राज्य व समाज की एकता, समृद्धि व राष्ट्रवाद के भाव से परिपूर्ण होकर मृत्युपर्यंत कार्यरत रही व देशसेवा में संलग्न रही।

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