पर्यटन के नजरिये से जब कभी बिहार घूमने की बात होती है, तो कुछेक नाम ही जुबां पर आते हैं, जैसे गया, राजगीर, दरभंगा आदि। लेकिन, इससे इतर जाएं, तो यहां कई ऐसी जगहें भी हैं, जो ऐतिहासिक महत्व की हैं और उन्हीं में से एक सहरसा जिला भी है। यहां आने का मौका मिला, तो यहां के घरों में बथुआ साग से बनने वाला ‘दलसग्गा’ जरूर खाएं। गेंहू के आटे और गुड़ से बनने वाली ‘खबौनी’ की तो बात ही अलग है।
सहरसा की सैर करने के लिए यूं तो कोई भी मौसम मुफीद है, लेकिन जिन्हें अत्यधिक गर्मी व नमी वाले वातावरण से परहेज हो, वे बरसात के बाद का समय चुन सकते हैं। छठ के आसपास गए, तो यहां सौंदर्य के अलावा सांस्कृतिक आनंद की प्राप्ति भी होती है। यहां सही मौसम में आएं तो पानी पर फैले मखाने के दानों से भरे हरे पत्तों को देख सकते हैं और उन दानों से मखाना बनाने की प्रक्रिया को देखने का आनंद भी ले सकते हैं। जहां तक बात यहां पहुंचने की है, तो यह शहर रेल और सड़क, दोनों ही मार्गों से देश के अनेक भागों से जुड़ा हुआ है। रोड ट्रिप, नया जानने-समझने के शौकीनों के लिए एक शानदार अनुभवों से भरी यात्रा हो सकती है, जिसमें आम जनजीवन से जुड़कर आप अपनी मोटरसाइकिल डायरी बना सकते हैं।
यहां सरकारी से लेकर निजी होटल तक बजट में आसानी से मिल जाते हैं। कोशी नदी का मैदानी भाग चावल, मक्का और गेहूं के खेतों व मछली-मखाने के तालाबों के लिए जितना प्रसिद्ध है, पर्यटन की दृष्टि से उतना ही अछूता है। मंदिरों वाली घूमा-फिरी तो यहां होती ही है, लेकिन यह जिला कला, इतिहास और साहित्य से भी पूर्ण है। बिहार में कोशी क्षेत्र में स्थित सहरसा भी एक ऐसी जगह हो सकती है, जहां आप पर्यटन के साथ इतिहास, संस्कृति, कला, साहित्य का लुत्फ ले सकते हैं। भारत के मैदानी इलाकों की विडंबना होती है कि पहाड़-झरने नहीं हुए, तो उनके किसी भी सौंदर्य का कोई अर्थ नहीं। इसलिए भारत के पर्यटन मानचित्र पर सहरसा कहीं नहीं आता। वहां एक यात्री की तरह जाना, उसी भाव से जगहों को देखना रोमांचकारी अनुभव था। वह यात्रा एक रोड ट्रिप थी। देखे हुए को नए अंदाज से देखने में एक खास रोमांच होता है। इस शहर का उत्तरी छोर मत्स्यगंधा को समर्पित है। यह नाम यहां की एक बड़ी झील को दिया गया है।
हालांकि इसका महाभारतकालीन मिथकीय चरित्र मत्स्यगंधा से इसका सम्बंध बस नाम भर का है, पर झील के ठीक बाहर बनी मत्स्यकन्या की खूबसूरत मूर्ति उससे जोड़ती जरूर है। हाल के दिनों में यह झील स्थानीय निवासियों और आसपास के जिले के पर्यटकों में काफी लोकप्रिय हुई है। वे यहां नावों की सवारी के लिए आते हैं। शाम के समय जब सूरज डूबने को होता है, तब का नौका विहार यादगार हो सकता है। आप चाहें तो बाइक से इस झील का चक्कर भी लगा सकते हैं और ट्रेकिंग के शौकीन लोगों के लिए तो झील की परिक्रमा नए अनुभव प्रदान करने वाली हो सकती है। वे बढ़ते हुए शहर और गांवों की सहज जीवनशैली को एक साथ महसूस कर सकते हैं। नौका विहार हो या फिर ट्रेकिंग, सबसे अलग एक आनंद ऐसा है, जो यहां की यात्रा को और खुशनुमा बनाता है।
शाम को जब झील के पूर्वी छोर के पास से गुजरती रेल लाइन पर ट्रेन का आना-जाना होता है, तो वह दृश्य देखते ही बनता है। सहरसा में राजा-महाराजा, सामंत और जमींदार हुए, तो अंग्रेजों की कोठी भी रही। इतिहास में जाएं तो इधर नील की खेती होती थी। उस खेती को नियंत्रित करने के लिए अंग्रजों ने अपने एजेंट रखे हुए थे, जो चपराम में रहते थे। आज वह जगह ‘चपराम कोठी’ कहलाती है। महात्मा गांधी ने चंपारण सत्याग्रह नील की खेती करने वाले किसानों के लिए ही किया था। वे चपराम तो नहीं आए, लेकिन उनके सत्याग्रह का लाभ स्थानीय किसानों को भी मिला। अब न तो नील की खेती होती है, न ही वहां अंग्रेज रहते हैं, लेकिन उनकी कोठी अभी भी मौजूद है। इतिहास की इस परत को समझने का शौक रखने वालों के लिए यह एक खूबसूरत यात्रा हो सकती है। जिनकी ऐतिहासिक खंडहरों में दिलचस्पी हो, वे सोनबरसा राज भी जा सकते हैं। वहां के राजा का महल अब जीर्ण-शीर्ण हो चुका है, लेकिन नदी के किनारे खड़े होकर उसे निहारना इतिहास में यात्रा कर आने जैसा एहसास देता है।