नमो की हिंदी -नीति

 

धानमंत्री नरेंद्र मोदी को अंग्रेजी आती है। अंग्रेजी में अगर वह बहुत कुशल और सहज नहीं भी हैं, लेकिन इतनी पकड़ तो वह इस भाषा पर रखते ही हैं कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर अंग्रेजी में अपनी बात पूरी तरह रख सकें। इसका प्रमाण भी उन्होंने श्रीहरिकोटा में पीएसएलवी सीसी २३ रॉकेट प्रक्षेपण समारोह में भली-भांति दे दिया। वहां बैठें वैज्ञानिकों के सामने, जिनमेंे कई दक्षिण भारतीय थे, प्रधानमंत्री मोदी ने अंग्रेजी में भाषण दिया। वहां अंग्रेजी बोलकर मोदी ने एक तीर से दो निशाने साधे। जो लोग नरेंद्र मोदी के हिंदी-प्रेम को उनकी कमज़ोर अंग्रेजी का सबब बताते फिर रहे थे, उनका मुंह बंद कर दिया। दूसरा यह कि मोदी की हिंदी-नीति से दक्षिण भारत में विरोध की जो सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी, उस पर भी ठंडा पानी डाल दिया

अपने शपथ-ग्रहण समारोह के अगले दिन २७ मई २०१४ को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब अपने अतिथियों- सार्क देशों के नेताओं से हिंदी में बातचीत की, तो श्रीलंका के राष्ट्रपति श्री महिंद्रा राजपक्षे, मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन और मॉरीशस के प्रधानमंत्री श्री एन. रामगुलाम अवाक् रह गये। दुभाषिये, अनुवादकों की वजह से उन्हें कोई असुविधा तो नहीं हुई, लेकिन वे चौंके जरूर। लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री का हिंदी में वार्तालाप का यह फैसला दुनिया को सिर्फ चौंकाने या भारत के हिंदी भाषियों में लोकप्रियता पाने की कोई सस्ती चाल मात्र नहीं थी, यह उसी दिन तब साबित हो गया, जब २७ मई २०१४ को ही मोदी सरकार के गृह मंत्रालय ने बाकायदा एक सरकारी आदेश जारी करके समस्त सरकारी मंत्रालयों के सचिवों और समस्त सरकारी विभागों के उन कूटनीतिज्ञों और अफसरों को अंग्रेजी के साथ ही अनिवार्यत: हिंदी में भी चैट करने, ट्वीट करने या अपनी टिप्पणीयां पोस्ट करने के निर्देश दिये, जो सोशल साइट्स पर ई-मेल, फेसबुक, टि्वटर या ब्लॉग्स के अपने अकाउंट्स रखते हैं और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सक्रिय हैं। इनमें गूगल और यू-ट्यूब के उपयोगकर्ता भी शामिल हैं। इस आदेश में साफ कहा गया है कि सभी मंत्रालयों, विभागों, कॉर्पोरेशन्स और बैंकों के जो अधिकारी सोशल नेटवर्किंग साइट्स का सक्रिय उपयोग करते हैं, उन्हें अब अपने पोस्ट्स अंग्रेजी के साथ ही हिंदी में भी डालने होंगे।

मोदी सरकार की हिंदी-नीति को और भी स्पष्ट और भी मजबूत बनाया केंद्रीय गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने। संयुक्त राष्ट्रसंघ की ओर से ‘यूनाइटेड नेशन्स पॉपुलेशन फंड इंडिया’ और रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में उपस्थित अनेक विदेशी प्रतिनिधियों और अधिकारियों के बीच प्रमुख वक्ता के तौर पर केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने धाराप्रवाह हिंदी में ही अपना भाषण दिया। कार्यक्रम में यूएनएफपीए की प्रभारी फ्रेडेरिका माइयर, यूएनआईसीएफ के अधिकारी डेविड मैकलॉचलिन सहित अनेक विदेशी मौजूद थे। कार्यक्रम में गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू और गृह सचिव अनिल गोस्वामी ने अपने भाषण अंग्रेजी में दिये, पर राजनाथ जी हिंदी में ही बोले। बाद में गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने स्पष्ट किया कि भारत में नियुक्त या प्रतिनियुक्त विदेशी अधिकारियों को उसी तरह तुरंत भारत की भाषा हिंदी सीख लेनी चाहिये, जिस तरह देश के तमाम आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को वे प्रांतीय भाषाएं तुरंत सीखनी होती हैं, जिन प्रांतों में उनकी नियुक्ति होती है या ट्रान्सफर होता है।

प्रधानमंत्री की पहल और गृहमंत्री की तुरंत क्रिया का व्यापक प्रभाव पड़ा। उदाहरण देखने को मिला १६ अगस्त को मुंबई में, जहां स्वदेशी तकनीक से निर्मित देश के सबसे बड़े युद्धपोत ‘आईएनएस कोलकाता’ को प्रधानमंत्री मोदी ने देश को लोकार्पित किया। यहां श्री मोदी तो हिंदी में बोले ही (भाषण की शुरुआत मराठी में की), चीफ ऑफ नेवल स्टाफ (वेस्टर्न कमांड) ऐडमिरल रोबिन के. घोवन ने भी छह मिनट का अपना पूरा भाषण विशुद्ध हिंदी में दिया। आज़ादी के बाद अभी तक का यह पहला मौका था, जब किसी ऐडमिरल ने अपना पूरा भाषण हिंदी में दिया।

वैसे भारतीय सेना के तीनों अंगों के साधारण या विशेष, १५ अगस्त, २६ जनवरी आदि सभी परेड्स का संचालन हिंदी में ही होता आया है, लेकिन उच्च सैन्य पदाधिकारी अब तक अंग्रेजी में ही भाषण दिया करते थे। ऐडमिरल रोबिन के. घोवन ने उस परंपरा को तोड़कर नयी एवं आदर्श परंपरा की शुरुआत की।

हालांकि हिंदी को सम्मान देने की गरज से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहले भी हमारे कुछ नेताओं ने हिंदी में भाषण दिये। भारत के विदेश मंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना ऐतिहासिक भाषण हिंदी में दिया था। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने भी सार्क सम्मेलन को हिंदी में ही संबोधित किया था। दोनों ही अंग्रेजी के जानकार थे, लेकिन भारत की राष्ट्रभाषा को सम्मान देने के लिए ही उन्होंने हिंदी में भाषण देकर स्वर्णिम उदाहरण पेश किया था। अटल बिहारी वाजपेयी उन विदेशी नेताओं से तो अंग्रेजी बोलते थे, जो खुद उनसे अंग्रेजी में बात करते थे, लेकिन जो विदेशी नेता अटल बिहारी वाजपेयी के साथ अपनी-अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा में बात करते थे, उनसे अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी में ही बात करते थे।

लेकिन नरेंद्र मोदी की यह विशेषता है कि उन्होंने एक सुचिंतित-सुनिश्चित नीति के तहत हिंदी के पक्ष में अपनी गतिविधियों प्रारंभ की हैं। राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत की ही तरह नरेंद्र मोदी राष्ट्रभाषा को भी देश की सवा सौ करोड़ जनता के राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़कर देखते हैं और जनभावनाओं तथा राष्ट्रभाषा को न्याय दिलाने के ही लिए वह संकल्पपूर्वक ऐसा कर रहे हैं।

मोदी की मातृभाषा गुजराती है, लेकिन संपूर्ण देश में उन्होंने अपने चुनाव-प्रचार के तूफानी भाषण हिंदी मेें दिये। हमने देखा कि वह धाराप्रवाह हिंदी बोलते हैं। सहज-सरल-मुहावरेदार हिंदी। प्रभावशाली और रोचक हिंदी। और इस हिंदी का कमाल जीत के रूप में उन्होंने देखा।

      मोदी देश की राष्ट्रभाषा के माध्यम से दुनिया के सामने भारत को उसके निजी स्वरूप में पेश करना चाहते हैं। विश्वसमाज में अब तक भारत का प्रतिनिधित्व अंग्रेजी में होता था- चाहे वह विदेशों की धरती पर हो या भारतीय धरती पर- जहां भी अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य, वैश्विक परिदृश्य हो, वहां देश का प्रतिनिधित्व विदेशी भाषा में! एक बार तो केंद्रीय साहित्य अकादमी के एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में अद्भुत विड़ंबनापूर्ण अपमानजनक घटना घटी। केंद्रीय साहित्य अकादमी ने गोस्वामी तुलसीदास जयंती के उपलक्ष्य में ‘मानस मेला’ का आयोजन किया, जिसमें विश्व के विभिन्न विद्वानों को तुलसीदास और उनकी महान रचना ‘रामचरितमानस’ पर शोधपत्र या निबंध प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन शर्त यह थी कि शोध-निबंध अंग्रेजी में लिखे जायें। भारतीय विद्वानों सहित सभी विदेशी विद्वानों ने ‘रामचरित मानस’ पर और गोस्वामी तुलसीदास पर अंग्रेजी में ही अपने प्रपत्र प्रस्तुत किये, किंतु मॉरीशस के हिंदी साहित्यकार अभिमन्यु अनत ने अपना प्रपत्र हिंदी में ही प्रस्तुत किया। केंद्रीय साहित्य अकादेमी ने कारण पूछा तो जवाब में अभिमन्यु अनत ने जो एक प्रश्न साहित्य अकादमी से पूछा, वह प्रश्न था- ‘जाने भारत कब हिंदी बोलेगा!’

नरेंद्र मोदी देश में, विदेश में हिंदी बोलकर दुनिया को यह संदेश देना चाह रहे हैं कि देखो भारत अपनी जमीन पर अपने पांवों पर मजबूती के साथ खड़ा है। उसे किसी बैसाखी की जरूरत नहीं।

नरेंद्र मोदी की यह हिंदी-नीति एक साहसिक कदम भी है। वैश्वीकरण के इस युग में विश्व-बाजार पर अपनी पकड़ बनाकर अपने उद्योग-व्यापार को बढ़ाने की गरज़ से आज दुनिया के सभी देश अंग्रेजी सीखने में जुटे हुए हैं। जर्मनी, जापान और फ्रांस जैसे देश, जो अपनी-अपनी भाषाओं के प्रति अत्यंत समर्पित और कट्टर हैं, किसी भी मंच पर सिर्फ अपनी ही भाषा बोलते हैं, आज अंग्रेजी सीख रहे हैं। चीन जैसा अत्यंत अड़ियल रवैये वाला देश, जो अभी कुछ वर्षों पहले तक भी स्वयं को बिना किसी भी शक्ति-महाशक्ति की कोई परवाह किये सचेत ढंग से नितांत अलग-थलग रखता था, सिर्फ और सिर्फ अपनी ही भाषा बोलता था, आज के इस ग्लोबल दौर में अंग्रेजी को अपनाये हुए है। ऐसे में नरेंद्र मोदी की हिंदी-नीति वाकई एक अत्यंत ही साहसिक कदम है। अंग्रेजी की उपयोगिता को मानकर, उसके उपयोग की सीमाएं और क्षेत्रों को समझकर उसे बरकरार रखते हुए राष्ट्रभाषा की मशाल को जिस संकल्प के साथ नरेंद्र मोदी ने थामा है, वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की भाषा हिंदी, संपूर्ण भारत को एकता के सूत में पिरोने वाली अखिल भारतीय संपर्क-भाषा हिंदी, और राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति योग्य सम्मान का ही परिचायक है। उनके इस जज़्बे के साथ देश की सवा सौ करोड़ जनता की सद्भावनाएं जुड़ी हुई हैं। उनका स्वागत!

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