गाय बैल के प्रेम को ख़त्म करता मॉडर्न युग

जहाँ लोग अब अपने और पराए में आकलन लगा रहे हैं वहीं 90 के दशक में लोग पराए को भी अपना मानते थे और पराए को भी इतना प्यार देते थे कि सामने वाला भी अपने और पराए में फर्क नहीं कर पाता था। लोगों की ऐसी संवेदना रहती थी कि वह मनुष्य के साथ-साथ जानवरों को भी अत्यधिक प्रेम करता था। दरवाजे के बाहर खूंटे में बंधी हुई गाय को लोग इतना प्यार स्नेह देते थे की गाय भी प्रेम में प्रफुल्लित होकर पाव सवा सेर लीटर दूध ज्यादा दे देती थी। वही जब गाय बीमार पड़ती थी तो पूरा परिवार उसके खूंटे पर बैठकर रोते नजर आता था और मालिक उसके ठीक होने तक उसके देखरेख में लगा रहता था।

वही जब गाय बछड़े को जन्म देती थी तो बड़े प्यार से गाय को पूरा परिवार पुचकार करके धन्यवाद ज्ञापित करते थे। लोगों में इतना प्रेम स्नेह होता था कि खुशी के मारे लोग गाय के दूध को एक दूसरे के यहाँ भिजवाते थे और खुशी जाहिर करते थे। गाय के बछड़े को अपने बच्चे की तरह सेवा करते थे उन्हें इस बात की आभास रहता था कि यह हमारा बेटा बनकर हमारे साथ हमारे घर गृहस्ती में साथ निभाएगा और बछड़ा भी बखूबी साथ निभाता था। जहाँ बछड़े की माँ दूध देकर घर परिवार का पालन-पोषण करती थी तो वहीं बछड़ा भी खेत में दिन रात एक करके खेत जोत कर अपना कर्म करता था।

उस समय लोगों में ऐसी संवेदना थी की जानवरों के सुख-दुख को बड़े ही सहजता से परख लेते थे। बछड़ा बीमार है कि खुश है साफ तौर पर पता लगा लेते थे बछड़ा जब खेत में काम करता रहता था और मल मूत्र की स्थिति में होता था तो मालिक काम को बीच में ही रोककर मल मूत्र त्यागने केे लिए समय देता था यह उस समय सभी किसानों के अंदर समझ था नित्यकर्म के कुछ पश्चात ही बैलों को काम पर लगाता था। देर तक काम करते-करते जब बैल थक जाता था तो उसका मालिक बड़े ही सहजता से हल और जुआ खोल देता था ताकि बैल आराम कर सके। हमारे पुरखों में जीव जंतुओं के प्रति बड़ी ही गहरी संवेदना थी यही कारण था कि उस समय लोग एक दूसरे से अत्यधिक प्रेम करते थे और जीव जंतु आँख बंद करके मनुष्य पर भरोसा करते थे।

जब भी घर पर कोई भी तीज त्यौहार होता था तो परिवार के सदस्य की तरह गाय और बैल को खाने के लिए पकवान दिया जाता था। गाय और बैल जब बूढ़े हो जाते थे तब उसे कसाई के हाथों बेचना शर्मनाक एवं सामाजिक अपराध लोग समझते थे बूढ़ी गाय और बैल कई सालों तक गौशाला में बैठे चारा खाते रहते थे तब भी मालिक किसान उस का साथ निभाता था उसे कभी अपने से अलग नहीं होने दिया उनके साथ में एक गहरी संवेदना जोड़ कर रखता था मरने तक साथ निभाता था। जब बैल या गाय मर जाती उनके वफादारी को याद करके किसान फफक-फफक कर रोने लगता यह देख कर किसान के परिवार भी किसान के साथ में रोने लगते थे।

जब कोई बैलों को बेंचने की बात करता था तो मालिक फफक-फफक कर रोने लगता था और कहता था कि जो हमारे जीवन को संभालने के लिए मेरा जीवन भर साथ निभाया मैं उसे कैसे बेच सकता हूँ। अगर किसी कारणवश गाय या बैल को बेचना पड़ता था तो परिवार में लोग फफक-फफक कर रोने लगते थे और घर में एक दो दिन चूल्हा नहीं चलता था ऐसी संवेदना थी उस समय लोगों में पैसो के पीछे कम अपनों के पीछे ज्यादा लोग भागते थे यही कारण है कि तब और अब में साफ फर्क दिखता है।

–  महेश गुप्ता (जौनपुरी)

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