‘आनंदमठ ‘ अपने समय के श्रेष्ठतम उपन्यासों में से है। कथानक प्लासी के युद्ध के बाद का है जब बंगाल में मुस्लिम नवाबशाही और अंग्रेजों का संयुक्त शासन था। कहानी संतानों के सन्यासी विद्रोह की है। संतान कौन?वही जो वंदे मातरम् का अमर गान करते हुए जन्मभूमि के लिए प्राणोत्सर्ग करने को तत्पर हैं।
जिस समय काल पर उपन्यास लिखा गया उस समय मुस्लिम शासकों का अत्याचार प्रबल रूप में था। बंगाल में अकाल की वो दशा थी की लोग नर मांस खाने लगे थे।इन्ही परिस्थितियों में एक जमींदार परिवार के दंपति महेंद्र और कल्याणी पुत्री सहित आश्रय की खोज में एक बस्ती में जा पहुंचते हैं। नरभक्षी डाकुओं का एक दल कल्याणी और पुत्री का अपहरण कर लेता है।
उनके दल से भागती कल्याणी और सेना की कैद में फंस चुके महेंद्र की रक्षा संन्यासी करते हैं। कल्याणी के आत्मबलिदान पर पाठक की आंखों में जल उतरता है।यह उपन्यास की वर्णन शैली का कौशल है।संवादों में इतनी संवेदनशीलता है की उसकी तुलना कुछ ही उपन्यासों से हो सकती है। दृश्य निर्माण ऐसा की सब पाठक के सामने सजीव हो उठता है। अनेक प्रकार के अनुशासन में बंधे संन्यासियों के संवादों में कहीं बोझिलपन नहीं है।कुछ संवाद और दृश्य इतने रोचक और आनंद के हैं की पाठक सहज ही मुस्कुरा उठे।
कहानी का नायक नायिका कौन है?यह प्रश्न ऐसा है जिसका एक उत्तर नहीं बनता। महेंद्र – कल्याणी और जीवानंद – शांति दोनों युगल कर्तव्य के प्रति समर्पित हैं।किसी एक को नायक नायिका मान लेना अन्याय लगता है। वंदे मातरम् संन्यासियों की आस्था का गीत है।सेनापति भावानंद युद्ध में मरते समय भी वही सुनना चाहते हैं।
युद्ध के दृश्यों में इतनी सजीवता है की ‘ हरक्यूलिस’ का निर्देशक शर्मा जायेगा।शांति का किरदार शस्त्र, शास्त्र, शौर्य, संगीत, समर्पण और सौंदर्य के गुणों से सुसंपन्न है।ऐसे किरदार साहित्य में विरले ही मिलते हैं। उपन्यास का शीर्षक अपने आप में अत्यंत सार्थक है।आनंद मठ संतानों का मुख्यालय है।आनंद मठ की संरंचना और आध्यात्मिक चेतना इतनी तेजस्वी है की यदि कहीं आनंदमठ है तो उसे तीर्थ मान लेना चाहिए। मूल उपन्यास बंगाली में लिखा गया। हिंदी अनुवाद की भाषा शैली संस्कृतनिष्ठ हैं। भाषा के कारण पढ़ते हुए सहज ही यशपाल कृत ‘ दिव्या’ का स्मरण आया।वैचारिक रूप से दोनों एक दूसरे से विपरीत ध्रुव की रचनाएं हैं।
आनंदमठ के बारे में एक प्रश्न का उत्तर देने से समीक्षक बचते हैं।क्या आनंदमठ मुस्लिम विरोधी है? मैं कहूंगा हां कुछ हद तक लेकिन वह समय ऐसा था जब अन्न के अभाव में भूखों मरती प्रजा से नवाब भारी कर वसूल रहे थे। लोग अपने बच्चे बेचकर भी कर अदायगी कर रहे थे।ऐसी परिस्थितियों में आप सशस्त्र विद्रोहियों से और क्या अपेक्षा रख सकते हैं। एक और प्रश्न यह है की यह उपन्यास सुखांत है अथवा दुखांत?संभवत लिखते समय यह उपन्यास सुखांत रहा होगा, परंतु वर्तमान संदर्भों में यह दुखांत लग सकता है। वारेन हेस्टिंग्स से भीषण युद्ध के बाद भी संतानों ने भारत में अंग्रेजी सत्ता की स्थापना को आसान कर दिया।उपन्यास के अंत में ऐसा संदेश देने के पीछे मुझे लेखक के व्यक्तिगत हित या सुरक्षा की भावना दिखाई देती है।
आनंदमठ पढ़ना अपने आप को ये अनुभूति अवश्य देता है की संकट के समय स्वर निकले,” हरे मुरारे, मधु कैटभारे! वंदे मातरम्!”