हर शहर में एक उन्मादी भीड़

 

शहर में कितना भीड़-भड़क्का है। हर तरफ भीड़ से भरे हैं हमारे शहर। आजादी की यह सबसे महान उपलब्धि है कि गांव वीरान होते गए और शहर भीड़ से भरते गए। अगर यूपी और बिहार न होते तो मुंबई इतनी ठसाठस नहीं होती। भला हो उन सरकारों का जिन्होंने आबादी बेहिसाब बढ़ने दी और गांवों को हाशिए पर रखा। आबादी का सैलाब शहरों की तरफ न गया होता तो बहकर कहां जाता। दूरदृष्टा सरकारों ने ही शहरों को चहलपहल से भरा।

भीड़ कई प्रकार की होती है। सदाबहार भीड़ वह है जो हर कभी, हर कहीं दिखाई देती है। बाजारों में, बस अड्डों पर, रेलवे स्टेशनों पर और अब तो हवाई अड्डों पर भी। स्कूल और अस्पतालों में भी जगहें नहीं हैं। मेट्रो और मॉल्स भी हाऊस फुल हैं। शहरों की चमक सबको आकर्षित करती है।

भीड़ का एक अलग प्रकार भी है। इस प्रकार की भीड़ अचानक प्रकट होती है। वह बेंगलुरू में थाने पर हमला बोल देती है। मुंबई में चौराहों पर हल्ला बोल देती है। दिल्ली में आग लगा देती है। कानपुर की गलियों से फूट पड़ती है। जैसे बैरकों में फौजी टुकड़ियां कमांडर का हुक्म पाते ही हथियारबंद होकर निकल पड़ती हैं, भीड़ का यह प्रकार अपने लक्ष्य के प्रति एेसा ही अनुशासित और प्रतिबद्ध है।

समाज विज्ञानी विशेषज्ञों की दृष्टि में इस प्रकार की भीड़ में कुछ बातें एक जैसी दिखाई दी हैं। जैसे-हर कहीं उनके हाथों में पत्थर होते हैं, जो वे कहीं न कहीं फैंकने या मारने के लिए उपयोग करते हैं। बीच में कोई अनुभवी हाथ में ज्वलनशील तरल पदार्थों से भरी कांच की शीशियां लेकर भी नमूदार हो जाता है और निशाना साधता है। उन्हें परिधानों से भी पहचाना जा सकता है। चेहरे पर रूमाल बंधा हो या मास्क, दूर सामने से ली गई तस्वीरों में वे एक जैसे दिखाई दिए हैं। एक समय कश्मीर में ऐसे ही चेहरे यही पुरुषार्थ करते हुए कई सालों तक दिखाई देते रहे। अब कानपुर की भीड़ ने बताया कि कश्मीर अकेला नहीं है। हम भी उसी जैसे हैं। बस अवसर की प्रतीक्षा है।

भीड़ का अपना साइंस है। भीड़ के अपने साइंटिस्ट हैं। भीड़ की अपनी लेबोरेट्रियां हैं। लैबोरेट्रियां लगातार फैल-पसर रहीं हैं, क्योंकि विज्ञान का स्वभाव है विस्तार। लैब में बाकायदा दिन में पांच बार ऐलान करके प्रयोग की प्रक्रिया निरंतर है। साइंटिस्ट जानते हैं कि कितना तरल कितनी मात्रा में कितनी लंबी बत्ती के साथ मिलाकर जूनियर को देना है ताकि वह विज्ञान के विकास में अपना योगदान किशोर अवस्था से ही सुनिश्चित करके अपना, अपने परिवार और अपनी विज्ञान बिरादरी का नाम सात आसमान तक रोशन कर सके।

साइंटिस्ट थ्री-डी यानी तीन आयामी विधाओं में दक्ष हैं। वे जितने सियासी हैं, उससे ज्यादा मजहबी हैं। जितने मजहबी हैं, उससे ज्यादा सियासी हैं। शरद जोशी होते तो इसे करेले के नीम पर चढ़कर अपनी गुणवत्ता में वृद्धि की नैसर्गिक प्रक्रिया जैसा मानते। हरिशंकर परसाई हो सकता है कि इसे सोने पर सुहागा कहते। साइंटिस्टों की यह प्रजाति अपने अाविष्कारों के आधार पर विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति अंकित कराती रही है।

जूनियर्स की भीड़ जब शहर में अचानक अपनी धमाकेदार प्रस्तुति कर चुकती है तब अगले दृश्य में ये सांइटिस्ट भारत नामक देश के उत्तरप्रदेश नामक राज्य में कानपुर की किसी बेगम गली से सीधे प्रसारण में इंडिया टीवी की स्क्रीन पर प्रकट हो जाते हैं।

ये साइंटिस्ट असल में मास्टर हैं। टेलीविजन पर चिल्ला-चिल्लाकर सुर्खियां पढ़ने वाले वीर और वीरांगनाओं की भाषा की कृपणता ही है कि वे मास्टर को मास्टरमाइंड कह-कहकर चिल्लाते हैं। यह पुलिस के शब्दज्ञान की भी दरिद्र सीमा है कि वह ऐसा कहती है इसलिए चैनल वाले भी मास्टरमाइंड कहने लग जाते हैं। दरसअल ये मास्टर हैं। रिंगमास्टर। मास्टरपीस। मास्टर में जब माइंड लग जाता है तो बात बहुत बड़ी हो जाती है और मास्टरमाइंड जैसी उपाधि हर कहीं खर्च नहीं की जानी चाहिए। मास्टर माइंड कोई एक ही हो सकता है और जरूरी नहीं कि वह सामने ही हो। वह कहीं भी और किसी भी समय में हो सकता है। होगा एक ही।

अल्फ्रेड हिचकॉक की एक कहानी से प्रेरित 1974 की ‘बेनाम’ नाम की बंबईया फिल्म याद कीजिए। नरेंद्र बेदी की इस पूरी फिल्म में असली विलेन आखिर तक अदृश्य है। बस उसकी एक आवाज फोन पर सुनाई देती है। लेकिन वह आवाज भी उसकी नहीं होती, जो सामने आता है। सामने प्रेम चोपड़ा आता है, लेकिन वह कादर खान की आवाज में बोल रहा था और नाम था किशनलाल। अब मास्टर कौन, रिंगमास्टर कौन, मास्टरपीस कौन और मास्टर माइंड कौन? किशनलाल के नाम से प्रेम चोपड़ा सामने आया। मुझे लगता है वह आवाज मास्टरमाइंड की है, जो सामने नहीं है!

जहां कानपुर नामक भीड़ से भरा हुआ एक शहर स्थित है, जिसने एक भीड़ को अभी-अभी विश्व पटल पर उतारा, उस उत्तरप्रदेश नामक राज्य में वर्तमान शासन तंत्र तू डाल-डाल मैं पात-पात की नीतियों का अनुसरण कुशलतापूर्वक कर रहा है और आधुनिक तकनीक इस नीति के क्रियान्वयन में सहायक सिद्ध हो रही है। एक गली से इस भीड़ के आते और जाते ही कुछ ही घंटों में 40 चेहरे पोस्टरों पर आ गए। ये सब जूनियर आर्टिस्ट हैं। आर्टिस्ट को यहां साइंटिस्ट पढ़ा जाए। अच्छे शासन की निशानी है कि वह प्रतिभाओं की खोज करे और उन्हें उनके योग्य स्थान पर प्रतिष्ठित करे। पोस्टर इसी उद्देश्य से छापे गए।

पोस्टर प्रसन्नता प्रदान करते हैं। इन दिनों आईएएस सिलेक्ट हुए हैं, उनके पोस्टर उन्हें और उनके परिवारजनों को प्रसन्नचित्त कर रहे हैं। कोई नया फिल्मी कलाकार पोस्टर पर अपना चेहरा देखकर कितना प्रसन्न होता होगा। कटआऊट नेताजी के चेहरे को गुलाबी बनाए रखते हैं। उसी प्रकार कानपुर की गलियों में अपने नौनिहालों का मुखमंडल पोस्टर पर छपा देखकर कौन निर्दयी मां-बाप होंगे, जो प्रसन्न न हुए होंगे। लैबोरेट्री में पल-पल ही हलचल पर नजर रखने वाले सीनियर साइंटिस्ट ने मुबारकें बोरियाें में भरकर भेजी होंगी। कौम के काम आना बच्चों का खेल नहीं है!

रंगीन पोस्टर के सामने आते ही एक महान सांइटिस्ट काजी अब्दुल कुद्दूस कल इंडिया टीवी पर उवाच रहे थे कि मामला इतना बड़ा नहीं था। लड़कों ने गलती कर दी थी। इतनी लंबी लिस्ट और गिरफ्तारियां कुछ ज्यादती है। उन्हें माफ किया जाना चाहिए। वल्लाह! इस कर्णप्रिय कथन में सियासत से ज्यादा मजहब और मजहब से ज्यादा सियासत, कितना सुंदर संतुलन बैठाया गया। यह कारीगरी हर किसी के बूते की बात नहीं है। बड़े साइंटिस्ट ऐसे ही नहीं बनते!

मामला इतना बड़ा नहीं था, यह कहने का मियाँ साहब का अंदाज कुछ यूं था कि चौथाई पत्थर तो घरों में रखे ही रह गए। शीशियां भी पूरी इस्तेमाल नहीं हो सकीं। जोशीले जवानों की भीड़ एक किलोमीटर की जियारत भी नहीं कर सकी। कुछ हुआ ही नहीं। चार लाशें नहीं गिरीं, चालीस कारें नहीं जलीं, चार सौ जख्मी नहीं हुए। छतों पर छुपाकर तैयार की गई गुलेलों का तो लोकार्पण ही नहीं हो पाया और बाबाजी ने ऐसा सोंटा फटकार दिया। यह तो वाकई जुल्म-ज्यादती है। हां, दिल्ली जैसा कुछ धमाकेदार हुआ तो होता। एक तो सारी तैयारियों पर पानी फेर दिया और अब लड़कों को माफ भी नहीं कर रहे!

भीड़ के कारगुजार अब कुछ महीने या साल जेल में काटेंगे। वे जब कभी अपने आदर्श माता-पिता के बीमार पड़ने या बहन के विवाह के शुभ अवसर पर कुछ दिन के लिए बाहर आएंगे तो गलियों में उनका इस्तकबाल तहेदिल से होगा। वे पुलिसवालों से घिरे हुए विजयी मुद्रा में उन रास्तों से निकलेंगे, जिन रास्तों ने उन्हें इस मंजिल पर पहुंचाया। एक दिन यहीं वे पत्थर उछाल रहे थे। जलती हुई शीशियों से निशाने साध रहे थे। आज उन्हीं रास्तों ने उन्हें इस शोहरत तक पहुंचाया।

कानपुर की एक भीड़ अपना काम अधूरा ही सही, कर चुकी है। भारत नामक देश में अनेक शहर हैं। हर शहर में एक ऐसी ही भीड़ है। उसे अपनी बारी का इंतजार है।

– विजय मनोहर तिवारी

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