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मुंहफट

मुंहफट

by महेश दुबे
in मनोरंजन, साहित्य, हास्य विशेषांक-मई २०१८
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“अपना खुद का बनता काम बिगाड़ना, मुंहफट का जन्मसिद्ध अधिकार है। आ बैल मुझे मार और खुद के पांवों पर कुल्हाड़ी मारने जैसे मुहावरे शायद इन्हें ही देखकर अस्तित्व में आए हैं।”

मुंहफट सारे गांव में बदनाम है। सभी उससे पिंड छुड़ाना चाहते हैं। पता नहीं मां बाप ने क्या नाम दिया था लेकिन अब तो हर कोई उसे एक ही नाम से जानता है, ’मुंहफट’!! बचपन से ही इनकी ऐसी आदत पड़ गई थी कि हर बात में बोल उठते थे। शुरू-शुरू में कुछ तमाचों से थोड़ा असर पड़ा लेकिन बाद में जब जुबान की लगाम छूटी तो घोड़ा बेलगाम ही हो गया। फेरों के समय दुल्हन पर फालतू टिप्पणी करके कई बार पिटने के कारण लोग मंडप में इसके बगल में बैठने से कतराने लगे थे। यहां तक कि खुद के विवाह में भी गलत टिप्पणी कर बैठे थे, परिणामस्वरूप मंडप से लतियाकर भगाए गए और आजतक एक सुकन्या की तलाश में हैं।

एक बार गांव में एक नेताजी आए। नेताजी पुराने खानदानी नेता थे और सर्वगुण सम्पन्न भी थे। वे गांव के चौधरी के घर बैठकर जलपान करते हुए हें हें कर रहे थे कि उनके स्वागत में खड़े लोगों की भीड़ में उपस्थित मुंहफट ने उनसे पूछा, नेताजी! रामबिलासपुर वाली रामकली अब कैसी है? नेताजी की हें हें को ऐसे ही ब्रेक लग गया जैसे प्रगतिशील सरकारों के आते ही देश के विकास को लग जाता है। उनके मुंह का निवाला मुंह में ही रह गया और उनकी आंखों का रंग सुर्ख होने लगा। शायद रामकली प्रकरण में हुई छीछालेदर याद आ गई हो। इधर मुंहफट साहब विनम्र मुद्रा बनाए उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे जो नेताजी के संकेत पर उनके चमचों और गुर्गों द्वारा लात घूंसों के रूप में प्राप्त हुआ और मुंहफट साहब को उन्हीं सरकारी डॉक्टर से इलाज करवाना पड़ा जो उन्हें फूटी आंखों भी नहीं देखना चाहता था।

एक बार गांव-गांव में शिक्षा को लेकर भारी जागृति आ गई थी। सरकारें शिक्षा को लेकर उतनी ही गंभीर हो गई थी जितना राष्ट्रपति से पद्मश्री लेते समय हुआ जाता है, तो उसी झटके में मुंहफट बी ए पास हो गए। अब उनकी जिद हो गई कि शादी भी बी ए पास लड़की से करेंगे। तब आठवीं पास कई लड़कियां दुत्कारी गईं। कुछ वर्षों तक यह अभियान जारी रहा जो बाद में पंचवर्षीय योजना का रूप धारण कर दिवंगत हुआ। अब मुंहफट ने अपेक्षा का सूचकांक दसवीं पास तक उतार लिया था। कालांतर में सूचकांक घटता रहा और इनकी उम्र बढ़ती रही। अब पिछले दिनों अपने पचासवें जन्मदिन पर मुंहफट साहब ने सहर्ष घोषणा की है कि केवल कन्या चाहिए, उसे अक्षरज्ञान हम खुद देंगे।

मुंहफट मन के खराब हैं ऐसी कोई बात नहीं। बेचारे बड़े सरल स्वभाव के हैं। सब की मदद करना, सुख-दुख में उपस्थित रहना, सब का भला करना इनकी आदत में शुमार है लेकिन रहीमदास ने शायद इन्हीं के लिए लिखा है कि ‘रहिमन जिव्हा बावरी, कह गई सरग पताल, आपन तो भीतर गई, जूती खात कपाल।’ सूदखोर लाला हरदयाल कपटी की मौत पर पूरे गांव में से कोई भी उनकी अंत्येष्टि को तैयार नहीं था। अपने आसामियों के रक्त की अंतिम बूंद तक चूस लेनेवाले लाला की ललाइन घर में छाती पीट रही थी। बाल-बच्चे, रिश्तेदार कोई नहीं। ऐसे में मुंहफट आगे आए। गांव वालों के जमीर को ललकारते हुए लाला के घर जा पहुंचे। उनकी देखरेख में लाला के अंतिम सफर की तैयारियां होने लगीं पर इसी बीच मुंहफट जी ललाइन से लाला के व्यक्तित्व और कृतित्व पर ऐसी बात बोल बैठे कि उस अवस्था में भी ललाइन उन्हें घर के बाहर छोड़ने चली आई। बाद में शेष लोगों ने लाला की अंत्येष्टि की। अपना खुद का बनता काम बिगाड़ना, मुंहफट का जन्मसिद्ध अधिकार है। आ बैल मुझे मार और खुद के पांवों पर कुल्हाड़ी मारने जैसे मुहावरे शायद इन्हें ही देखकर अस्तित्व में आए हैं। लोग इनसे ऐसे ही कतराते हैं जैसे घूसखोर अफसर ईमानदार कर्मचारी से कतराता है।

कई स्वयम्भू राष्ट्र रत्नों ने इन्हें सुधारने की असफल चेष्टा की। वे खुद बिगड़ गए। सभा इत्यादि में इनके एक मित्र, जिन्होंने इन्हें सुधारने का प्रण कर रखा था, इनकी बगल में ही बैठे रहकर गिद्ध दृष्टि इनके मुखमंडल पर जमाए रखते और जैसे ही इनके चेहरे के भावों में परिवर्तन दिखाई पड़ता वे झपटकर इनका मुख दबा देते थे। एक बार उन्होंने इन्हें जम्हाई लेने से भी बलात रोक दिया था तो दोनों में बड़ी थुक्का-फजीहत, मार-पीट हुई। अब दोस्ती दुश्मनी में बदल गई है।

 

 

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