छात्रों में राष्ट्रप्रेम की अलख जगाती ‘प्रतिज्ञा’

भारतभूमि एक सांस्कृतिक राष्ट्र है। यहां राष्ट्रवाद की भावना हर व्यक्ति की अभिव्यक्ति में देखने को मिल जाती है। एक राष्ट्र के रूप में हमारा देश काफी समृद्ध और गौरवांवित कराने वाला है। भारत एक संवैधानिक देश है। जहां हर धर्म के लोग रहते हैं और हमारे संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत ही हम भारत के लोग से होती है। देश में राष्ट्रवाद की अलख जगाने और राष्ट्र के प्रति समर्पित रहने के लिए कई गीत रचे गए हैं। जिनका वाचन अक्सर राष्ट्रीय पर्वो पर किया जाता है, लेकिन देश में एक राष्ट्रीय प्रतिज्ञा भी लोगों द्वारा अपनाई गई है। जो हमें राष्ट्र के प्रति समर्पित होने और देश की विविधता से रूबरू कराने का काम करती है।
यह राष्ट्रीय प्रतिज्ञा हमें यह एहसास दिलाती है कि हमारा एक व्यक्ति के रूप में अस्तित्व क्या है? यह हमें देश की महत्ता से परिचित करवाती है। यह प्रतिज्ञा देश के लोगों को अपनी संस्कृति पर नाज़ करने की सीख देती है। यह राष्ट्रीय प्रतिज्ञा ही है, जो हमें देशवासियों के प्रति वफादार होने का पाठ पढ़ाती है। गौरतलब हो कि राष्ट्रीय प्रतिज्ञा ही है, जो आमतौर पर सार्वजनिक कार्यक्रमों में और लगभग देश के सभी स्कूलों में रोज़ पढ़ी जाती है। इस राष्ट्रीय प्रतिज्ञा के पीछे की भी अपनी एक कहानी है। इसे सर्वप्रथम हिंदी भाषा में नहीं, बल्कि तेलुगू भाषा में लिखा गया था। जिसके बाद धीरे धीरे इसकी महत्ता एक राष्ट्र के सापेक्ष बढ़ती गई। जो युवाओं में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करने के साथ, सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना जगाने का काम करने लगी।
राष्ट्रीय प्रतिज्ञा के जन्म से शिखर तक की दिलचस्प दास्तान!
राष्ट्रगान या राष्ट्रीय गीत के विपरीत इस प्रतिज्ञा के लेखक सुब्बाराव हैं। जो लम्बे समय तक अल्पज्ञात ही रहे। उनका नाम न तो किताबों में दर्ज हुआ और न ही किसी दस्तावेज़ में इस बात का उल्लेख किया गया। सुब्बाराव द्वारा लिखी प्रतिज्ञा, राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के बराबर की स्थिति में होने के बावजूद लेखन अपनी स्थिति से अनजान थे। लेकिन आज भी उनकी लिखी प्रतिज्ञा के भारत में अपने मायने हैं। वर्तमान दौर में भी उनकी यह प्रतिज्ञा भारतीय युवाओं के मन मष्तिस्क में देश प्रेम की अलख जगा रही है। सभी देशवासियों को एकसूत्र में पिरोकर रखे हुए है। इस राष्ट्रीय प्रतिज्ञा के अक्षरशः कुछ इस तरह से हैं-
“भारत मेरा देश है। हम सब भारतवासी भाई बहन हैं।
मुझे अपना देश प्राणों से भी प्यारा है।
इसकी समृद्धि और विविध संस्कृति पर मुझे गर्व है।
हम इसके सुयोग्य अधिकारी बनने का सदा प्रयत्न करते रहेंगे।
मैं अपने माता-पिता, शिक्षकों एवं गुरुजनों का सदा आदर करूँगा और सबके साथ शिष्टता का व्यवहार करूँगा।
मैं अपने देश और देशवासियों के प्रति वफादार रहने की प्रतिज्ञा करता हूँ। उनके कल्याण और समृद्धि में ही मेरा सुख निहित है।”
यह हमारी ‘राष्ट्रीय प्रतिज्ञा’ है। जो देश के प्रति हमारी निष्ठा की शपथ है। यह प्रतिज्ञा देश के नागरिकों में राष्ट्रवाद की भावना और एकता बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत में लगभग सभी भाषाओं की पाठ्यपुस्तक के पहले पन्ने पर यह राष्ट्रीय प्रतिज्ञा छपी होती है और इसका नियमित पठन-पाठन भी किया जाता है। देश में विशेष मौकों पर सार्वजनिक कार्यक्रमों में इस राष्ट्रीय प्रतिज्ञा का पाठ किए जाने की भी परंपरा है। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस समारोह में सार्वजनिक तौर पर यही राष्ट्रीय प्रतिज्ञा ली जाती है। इसके अलावा स्कूलों में भी प्रतिदिन यह प्रतिज्ञा लिए जाने का रिवाज है। हालांकि, प्रतिज्ञा भारतीय संविधान का हिस्सा नहीं है। लेकिन यह प्रतिज्ञा भारतीय जनमानस में देश प्रेम की अलख जगा रही है। सभी देशवासियों को एक सूत्र में बांधने का काम कर रही है। यह प्रतिज्ञा हमें बताती है कि भले ही हम देशवासी रंगरूप, वेशभूषा से अलग हो। अलग अलग धर्मो और रीति-रिवाजों को मानने वाले हो पर हमारे मन आपस में जुड़े हुए हैं। हम सभी एक परिवार की तरह है। वैसे भी ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना भी भारतीय संस्कृति की ही देन है। जहां समस्त विश्व को ही एक परिवार की तरह देखने की बात कही गई है।
राष्ट्र से प्रेम की सीख देती है राष्ट्रीय प्रतिज्ञा
इस राष्ट्रीय प्रतिज्ञा का मर्म समझने की कोशिश करें। तो इसका निहितार्थ स्पष्ट है। यह प्रतिज्ञा युवाओं और देश के लोगों को अपनत्व की भावना से परिचित करवाती है और अपनी संस्कृति और संस्कारों को आत्मार्पित करने की बात करती है। वर्तमान समय में देश के भीतर तमाम ऐसी समस्याएं हैं। जो एक मजबूत राष्ट्र की राह में रोड़े अटकाने का काम कर रहें हैं और आपसी बंधुत्व की भावना को ठेस पहुँचा रहें हैं। ऐसे में अगर हम सभी इस प्रतिज्ञा के मर्म को समझकर उसे आत्मार्पित और अंगीकृत कर लेते हैं। फिर एक मजबूत और संस्कृतिक-सामाजिक रूप से सशक्त राष्ट्र बनने से भारत को कोई नहीं रोक सकता है। इस प्रतिज्ञा की शुरुआत ही- ‘भारत मेरा देश है। हम सब भारतवासी भाई बहन हैं।’ इस वाक्य से होती है। यह वाक्य अपने आपमें बहुत कुछ बयां करता है। कहते हैं कि हर मनुष्य को अपने राष्ट्र के प्रति गौरव और स्वाभिमान से अभिभूत होना चाहिए। देशभक्ति एवं सार्वजनिक हित के बिना राष्ट्रीय महत्ता का अस्तित्व ही नहीं रह सकता है। जिसके हृदय में राष्ट्रभक्ति है उसके हृदय में मातृभक्ति, पितृभक्ति, गुरुभक्ति, परिवार, समाज व सार्वजनिक हित की बात स्वतः ही आ जाती है। इतना ही नहीं साधारण सी बात है, जब एक व्यक्ति देश के लोगो में अपनी भाई-बहन की छवि देखने लग जाएगा, तो स्वतः ही अन्य सामाजिक बुराइयां भी दूर हो जाएंगी।
राष्ट्रीय प्रतिज्ञा की हर पंक्ति का हर शब्द अपने में व्यापक अर्थ और उसका मर्म संजोए हुए है। बस जरूरत है तो उसे अंगीकार और सहजता से स्वीकार करने की। सोचकर ही देखिए, जब लोग दूसरों के कल्याण में ही अपनी समृद्धि और सुख को निहित पाने लग जाएं, तो कितना सुंदर अपना देश बन जाएगा और इसी बात की प्रतिज्ञा लेने की बात ही तो यह राष्ट्रीय प्रतिज्ञा करती है। यह राष्ट्रीय प्रतिज्ञा देश के बच्चों में बाल्य-काल से ही एक ऐसे गुण अंकुरित करने का काम कर सकती है। जो एक बेहतर राष्ट्र की नींव तैयार करने का काम करेगी। ऐसे में इसे हर स्कूल और पाठशाला में प्रतिदिन प्रार्थना का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। फिलहाल देश के कई हिस्सों में इसका गायन सुबह की स्कूली प्रार्थनाओं में किया जाता है, लेकिन इसकी व्यापक स्वीकृति अभी भी होनी बाकी है। इतना ही नहीं इस राष्ट्रीय प्रतिज्ञा का वाचन ही नहीं होना चाहिए, बल्कि बच्चों को बचपन से इसके मर्म से अवगत कराना चाहिए। इसके द्वारा बच्चों को अच्छे नागरिक बनने और देश के प्रति समर्पित होने की सीख दी जा सकती है और इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना शेष है।
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय प्रतिज्ञा को आंध्र प्रदेश के प्रसिद्ध तेलुगू साहित्यकार पिदिमारी वेंकट सुब्बाराव ने 1962 में तेलुगु भाषा में रचा था। साल भर बाद 1963 में विशाखापत्तनम के एक स्कूल में इसे सार्वजनिक रूप से पढ़ा गया। बाद में देश की विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया। पिदिमारी वेंकट सुब्बाराव का जन्म 10 जून 1916 को आंध्र प्रदेश के नालगोंडा जिले के अन्नपर्थी गांव में हुआ और यहीं उन्होंने तेलुगु, संस्कृत, अंग्रेजी और अरबी भाषाओं में महाविद्यालय तक की शिक्षा प्राप्त की। उन्हें नेचुरोपैथ या प्राकृतिक चिकित्सक के रूप में जाना जाता था। उन्होंने विशाखापत्तनम जिले में कई सालों तक जिला कोषालय अधिकारी के रूप में काम किया। आंध्र प्रदेश के गठन के बाद उन्होंने खम्मम, निजामाबाद, नेल्लोर, विशाखापत्तनम और नालागोंडा जिलों में इस पद पर काम किया। उन्होंने अपने जीवनकाल में तेलुगु भाषा में कई किताबें लिखी जिनमें ‘काल भैरवुडु’ नामक उपन्यास विशेष रूप से लोकप्रिय हुआ।
स्वतंत्रता आंदोलन में भी उनका अतुलनीय योगदान रहा है। सुब्बाराव के राजनीतिक दोस्त और कांग्रेस के नेता तन्नेति विश्वनाथम ने एक बार सुब्बाराव की लिखी इस राष्ट्रीय प्रतिज्ञा पढ़ा तो वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने आंध्र प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री पीवीजी राजू को यह ‘राष्ट्रीय प्रतिज्ञा’ दिखाई। शिक्षा मंत्री राजू ने भी पढ़ने के बाद इसकी सराहना की और जिले के सभी विद्यालयों के छात्रों को नियमित रूप से यह प्रतिज्ञा लेने के निर्देश दिए। जब इसे सभी जगह सराहा गया तो इसे राष्ट्रीय स्तर पर भी लागू किया गया।
शिक्षा विभाग द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर नए सुधार किए जाते हैं। इसके लिए ‘डेवलपमेंट ऑफ एजुकेशन इन इंडिया’ नाम की एक समिति भी है। इस समिति के अध्यक्ष देश के केंद्रीय शिक्षा मंत्री होते हैं। इसी समिति की 31वीं सभा हुई थी, जिसकी अध्यक्षता तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा मंत्री एमपी छागला ने 11 और 12 अक्टूबर 1964 को बेंगलुरु में की थी। इस समिति ने छात्रों में देश के प्रति राष्ट्रीय भावना और एकात्मता बनाए रखने के लिए विद्यालयों और महाविद्यालयों में साथ ही राष्ट्रीय दिवस के शुभ दिवस पर एक प्रतिज्ञा लेने की सिफारिश की।
इस बैठक में वेंकट सुब्बाराव की लिखित ‘भारत मेरा देश है समस्त भारतवासी मेरे भाई बहन’ प्रतिज्ञा को अपनाने की सिफारिश करने का निर्णय लिया गया। यह सुझाव भी दिया गया कि इस प्रतिज्ञा को 26 जनवरी 1965 से राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाना चाहिए। तय किया गया कि ये राष्ट्रीय शपथ भारत गणराज्य के प्रति निष्ठा की शपथ है। इसे भारतीय सार्वजनिक कार्यक्रमों में, विशेष रूप से स्कूलों में और स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान एक साथ पढ़ सकते हैं। इसे स्कूली पाठ्यपुस्तकों और सालाना कैलेंडर के शुरुआती पन्नों में छापा जाए। साथ ही इसे स्कूलों की सुबह की सभा में पढ़ा जाए।
भारत सरकार ने इस प्रतिज्ञा का 7 भाषाओं में अनुवाद किया और 1965 से इस प्रतिज्ञा को देश के सभी राज्यों की पाठ्य पुस्तकों में शामिल करने का निर्देश दिया गया। इस प्रतिज्ञा को पाठ्यपुस्तक की प्रतिज्ञा के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर भी ‘राष्ट्रीय प्रतिज्ञा’ का दर्जा दिया गया। लेकिन, दिलचस्प बात यह है कि स्वयं सुब्बाराव इस प्रतिज्ञा की राष्ट्रीय स्तर पर सफलता से अनभिज्ञ थे। उनकी रचना को राष्ट्रीय प्रतिज्ञा के तौर पर अपनाया गया, उन्हें यह जानकारी भी सेवानिवृत्ति के बाद लगी जब एक दिन उन्होंने अपनी पोती को एक पाठ्य पुस्तक में इस प्रतिज्ञा को पढ़ते हुए सुना। तब उन्हें और उनके परिवार को इस बात का पता चला कि स्कूलों की पाठ्यपुस्तक में छपी यह प्रतिज्ञा सुब्बाराव की है। लेकिन, अफ़सोस इस बात का कि प्रकाशित प्रतिज्ञा के साथ लेखक के तौर पर सुब्बाराव का नाम तक नहीं था।
कई सालों तक तो किसी को इस बात का पता भी नहीं था कि राष्ट्रीय प्रतिज्ञा किसने लिखी है। यहां तक कि शिक्षा समिति के पास भी इसकी कोई अधिकृत जानकारी नहीं थी। कुछ समय बाद केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने सुब्बाराव को राष्ट्रीय प्रतिज्ञा के लेखक के रूप में दर्ज किया। लेकिन, उनके परिवार द्वारा उनके और राज्य सरकार को लिखे गए पत्र सुब्बाराव के मृत्यु (1988) तक अनुत्तरित ही रहे। फिर भी यह प्रतिज्ञा हमें और देशवासियों को अभिमान करने का अवसर और अपने भीतर देश के भीतर सम्मान का भाव जागृत करने की सीख आज भी दे रही है और आगे भी देती रहेगी।
– सोनम लववंशी

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