सुसंस्कृत व्यक्तियों का निर्माण

 

सुसंस्कारिता जिसे मिली उसने वह सब कुछ पा लिया जिसे पाकर मनुष्य जीवन का अमृतोपम रसास्वादन करने का अवसर मिलता है । “आध्यात्मिकता”, “दृष्टिकोण की उत्कृष्टता” और “धार्मिकता”, “व्यवहार की शालीनता” को ही कहते हैं । शब्दों की ऊँचाई से किसी रहस्यवादी कल्पना में भटकने की आवश्यकता नहीं है । जिन भौतिक सिद्धियों का और आध्यात्मिक ऋद्धियों का वर्णन चमत्कारी एवं आलंकारिक भाषा में किया गया है, वे समस्त विभूतियाँ मात्र सुसंस्कारिता की ही देन है । समुन्नत, सम्मानित और समृद्ध जीवन वस्तुतः सुसंस्कारों के कल्पवृक्ष का ही फलता-फूलता स्वरुप है ।

अपने युग की सबसे बड़ी आवश्यकता भी “सुसंस्कृत व्यक्तियों” की है, कहना चाहिए “सुसंस्कारिता के अभिवर्धन” की है । इन दिनों व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में जितनी भी समस्याएँ व्याप्त है, उनका एकमात्र कारण सुसंस्कृत व्यक्तियों का अभाव या सुसंस्कारिता के अभिवर्धन के लिए उपयुक्त वातावरण का न मिल पाना है । इसके अभाव में ही व्यक्तिगत जीवन में दोष-दुर्गुण, अनीति अवांछनीयता और उनके कारण कई प्रकार के कष्ट-क्लेश तथा समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तथा सामाजिक जीवन में अव्यवस्था, भ्रष्टता, आतंक और असुरक्षा व्यापती है ।

व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में व्याप्त कष्ट कठिनाइयों और समस्याओं के समाधान का एक ही उपाय है कि “समाज में सुसंस्कारिता का वातावरण उत्पन्न किया जाए ताकि लोगों को सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन मिले । इसे यों भी कहा जा सकता है — सुसंस्कृत व्यक्तियों का निर्माण, सुसंस्कारिता का अभिवर्धन अपने युग की महती आवश्यकता है । यह कार्य एक सीमा तक तो प्रचार माध्यम से भी पूरा हो सकता है पर स्थायित्व लाने की अपेक्षा हो तो इतने मात्र से यह आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती । इसके लिए अंत:चेतना की मर्मस्थल तक “सुसंस्कारिता” को पहुँचाना होगा ।

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