दाखिला अंग्रेजी स्कूल में

“एक स्कूल में हम लोग गए तो शांत, सौम्य टीचर ने हमें ऐसे देखा जैसे अभी कह देगी कि जाओ जाकर कान पकड़ के बेंच पर खड़े हो जाओ। वैसे अगर वह ऐसा कह के भी एडमिशन दे देती तो हम पूरे दिन कान पकड़ कर बेंच पर खड़े होने को तैयार थे। बल्कि मुर्गा भी बन सकते थे।”

हिंदुस्तान में अंग्रेजी पब्लिक स्कूलों में दाखिले के लिए मची मार-काट से मैकाले की आत्मा को कितनी शांति मिलती होगी! अगर घर की बड़ी-बूढ़ियों को बच्चों का दाखिला कराने की कवायद सौंप दी जाए तो बच्चू सब की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाएगी और सारी हेकड़ी भूल जाएंगी; चूंकि ये जो ‘दूधो नहाओ पूतो फलो’ का आशीर्वाद बांटती फिरती हैं। मेरे यहां भी जब ये आशीर्वाद फला तो चिंता होना स्वाभाविक थी। मैंने सोचा अब इस बच्चे के लिए एक अदद मोबाइल फोन, मारुति का अगला मॉडल व डिस्को की मेम्बरशिप चाहिए। लेकिन सब से प्रथम आवश्यकता नर्सरी में दाखिला कराने की थी।

मूलतः भेड़ होने के कारण मैं भी अन्य के साथ भेड़ चाल में शामिल हो गया। एक दिन शाम से ही डिनर टिफन में बांध कर स्कूल के अहाते में जा पहुंचा। वहां कारें खड़ी करने की जगह नहीं थी। मैंने देखा कि लोगों ने कारों में एक पोर्टेबल साइकल रखी हुई थी तथा स्कूल के पास ट्रैफिक जाम होने के कारण सभी पैदल या साइकल पर स्कूल गेट की ओर भागे जा रहे थे। पता चला चौकीदार, जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोल रहा था तथा हल्का लाठीचार्ज कर रहा था, को सख्त हिदायत थी कि रात को नौ बजे गेट बंद कर दे। हम सब गिरते-पड़ते हांफते-हांफते क्यू में जा लगे।

फिर भी सभी खुश थे और नर्सरी के बच्चों की तरह किलकारियां मार रहे थे। एक युवा पिता तो पंक्ति में सभी को मिठाई बांट रहा था। वह बता रहा था कि पिछले वर्ष तो वह गेट के बाहर ही रह गया था और गेट बंद हो गया था। गेट के बाहर खड़े लोग हमें हसरत भरी निगाहों से देख रहे थे। एक गेट ने हम सब को दो वर्गों में विभाजित कर दिया था- हेव्ज तथा हेव नॉट।

इस स्कूल के बारे में मशहूर है जैसे साउथ जाने वाली रेलगाड़ी और फिल्म के आगे की पंक्ति की रिजर्वेशन एडवांस बुकिंग की खिड़की खुलते ही बंद हो जाती है उसी तरह एडमिशन फार्म पलक झपकते ही खत्म हो जाते हैं। लोग थैले भर-भर कर नोट ले गए थे। पता नहीं कितने का आए। पिछले साल तो पचास हजार का था। यकायक खिड़की खुली। सभी उस स्कूल के क्लर्क को सर, साहब, अंकल, माई-बाप कह कर उसका ध्यान आकर्षित करने लगे। क्यू टूट चुकी थी। लोग उसे बता रहे थे- मुझे मिनिस्टर साब ने भेजा है, मुझे ग्रोवर साब ने, मुझे मल्होत्रा ने, मैं सी.एम. साहब के यहां से हूं। मैं पी.एम.ओ. से हूं, मैं पुलिस हेडक्वार्टर से हूं। ज़ाहिर है शुरू के दस बारह लोग ही फार्म ले पाए थे और उसके बाद खिड़की बंद, लाइट गुल, हाउसफुल की तख्ती टांग दी गई। वहां मरघट की सी खामोशी हो गई। मगर यह शांति थोड़ी देर ही रही और अचानक सभी पैरेंट्स छाती पीट’पीट कर रोने लगे। एक बड़ा तगड़ा ‘स्यापा’ हो रहा था।

बहरहाल, मैंने अपने सारे रिश्तेदारों की मान-मनुहार करके और ऑफिस के अनेक लोगों को बहला-फुसला या डरा धमका के शहर के विभिन्न स्कूलों के फार्म लाने भेजा हुआ था। मैंने उन्हें बिना बारी के प्रमोशन से लेकर मुसीबत में साथ निभाने तथा वक्त जरूरत उनके बच्चों की नौकरी तक लगाने का भरोसा दिया था। अतः महीना खत्म होते-होते मेरे पास छह सात स्कूलों के फार्म (फार्म कहना ही ठीक होगा यद्यपि वे इस चार पेज की चोपड़ी को प्रोस्पेक्टस कहते हैं) इकट्ठे हो गए थे, बच्चे के फोटो की 150 प्रतियां मैं पहले ही करा चुका था। इसके साथ ही अपने व पत्नी के रंगीन फोटो, सारे प्रमाण-पत्रों की फोटोस्टेट प्रतियां, अपनी मेरिज सर्टिफिकेट की कॉपी, इन्कम टैक्स रिटर्न, हाउस टैक्स, राशन कार्ड, मोबाइल फोन नंबर, टी.वी. स्क्रीन की चौड़ाई, माइक्रोवेव ओवन की रसीद की मूल प्रति आदि न जाने क्या क्या…. ढेर सारे कागजात। मैंने ऑफिस से एक महीने की छुट्टी ले ली थी। सुबह से जल्दी उठ कर हम लोग पूजा-पाठ करके फार्म भर रहे होते या जमा कराने जा रहे होते या फिर लिखित/मौखिक परीक्षाएं देने। मेरी बीवी ने तो एक हजार एक रुपये का प्रसाद भी बोला हुआ था। जब से हम दोनों एक स्कूल के टेस्ट में फेल हुए थे, श्रीमती जी ने चारों धाम की यात्रा भी जोड़ दी थी- शीश तजे जो प्रभु मिलें, सौदा सस्ता जानि।

जिस स्कूल में हम दंपति फेल हुए थे, बड़ा ही डीलक्स किस्म का स्कूल था जी। दिल के प्राइवेट अस्पतालों जैसी खामोशी थी। शोरशराबा बिल्कुल ना था। शायद इसलिए मौखिक परीक्षा न लेकर हमें लिखित परीक्षा दी गई थी। हम लोग वहां कैसे फेल हो गए यह रहस्य ही बना रहा। यद्यपि सवालों में ऐसा कुछ न था। सवाल दिखने में बड़े ही सिम्पल किस्म के थे। यथा आप अपने बच्चे से प्यार करते हैं? यदि हां तो कितना। क्या आप पैसों को हाथ का मैल समझते हैं? यदि हां तो कितना मैल हर माह निकाल सकते हैं। बीवी से भी कुछ इसी तरह के ऊटपटांग सवाल पूछे थे। यथा उसकी वाशिंग मशीन सेमी है या फुली ऑटोमैटिक? उसने खुद नर्सरी किस स्कूल से पास की थी? क्या वह डिस्कवरी और वी चेनल देखती है? यदि हां, तो क्या वह अपने बच्चे को समझा सकती है? भाई पढ़ाना हमें है तो स्कूल में फीस किस बात की दे रहे हैं! बीवी ने मुझे ऐसे देखा जिसका अर्थ है, जब करोगे बेवकूफी की बात करोगे। जैसे छोटे और पारदर्शी कपड़े पहनना आजकल फैशन है उसी तरह महंगे स्कूल में भेजना फैशन है। इसका पढ़ाई से क्या लेना-देना?

एक स्कूल में हम लोग गए तो शांत, सौम्य टीचर ने हमें ऐसे देखा जैसे अभी कह देगी कि जाओ जाकर कान पकड़ के बेंच पर खड़े हो जाओ। वैसे अगर वह ऐसा कह के भी एडमिशन दे देती तो हम पूरे दिन कान पकड़ कर बेंच पर खड़े होने को तैयार थे। बल्कि मुर्गा भी बन सकते थे। मगर प्यार तो होना ही न था। बैरंग वापस। प्रिंसिपल से मिलने की कहो तो प्रिंसिपल का क्लर्क ही तुम को दुत्कार देता है। प्रिंसिपल साहब बिजी हैं, हैं ही नहीं, एडमिशन ख़त्म हो चुके हैं। चलो अगले साल आना। प्रिंसिपल इन दिनों स्वर्ग के दूत से लगते हैं। हम उसकी एक नजर को तरस गए। कितने ही सिफ़ारिशी खत जगह-जगह से मंगवा कर प्रिंसिपलों की सेवा में भिजवाए मगर जालिम तो था ज़ालिम। उसका दिल ना पसीजा।

कई बार मन में आया कि अमिताभ बच्चन के ‘दीवार’ फिल्म में मंदिर वाले सीन की तरह प्रिंसिपल के कमरे में घुस जाऊं और उस से कहूं, खुश तो बहुत होंगे तुम… मगर प्रिंसिपल तो दूर हमें तो कभी वाइस प्रिंसिपल के दर्शन भी नसीब नहीं हुए। पी.टी.आई. किस्म के लोग ही हमें बाहर ठेल देते थे।

कुछ एक जगह प्रिंसिपल महोदय बच्चे से ज्यादा पेरेंट्स में रुचि ले रहे थे। जैसे एडमिशन पेरेंट्स का ही करना है। इनमें प्रमुख थे वे पेरेंट्स जो पुलिस अथवा शिक्षा मंत्रालय से थे या फिर बिजनेस मैन किस्म के लोग थे जो ब्लेंक चेक पर साइन करके कमीज की ऊपर की जेब में लिए घूम रहे थे।

मां-बाप सज़-धज कर सीधे ब्यूटी पार्लर से आते। कौन जाने कौन सी अदा प्रिंसिपल को भा जाए। कौन जाने किस वेश में भगवन मिल जाएं। स्कूलों के आसपास कई ब्यूटी पार्लर खुल गए थे जो दाखिला योग्य बच्चों के मां-बाप का फेशियल और मेकअप करने में सिद्धहस्त थे। वे आपको कंसल्टेंसी भी दे रहे थे किस रंग की साड़ी के साथ कौन सी लिपस्टिक लगाने पर प्रिंसिपल के दिलो-दिमाग पर ‘सूदिग एफेक्ट’ पड़ेगा और वह तुरंत हामी भर देगा। कई तावीज और गंड़े वाले भी सक्रिय थे। मैंने देखा मां-बाप इंटरव्यू से पहले अपने बच्चों को मंत्र से पवित्र किया हुआ पानी पिला रहे थे। लोग व्रत और उपवास रखे हुए थे। जिन पर लक्ष्मी मैया तो प्रसन्न थी मगर सरस्वती देख ही नहीं रही थी। वे कथा और जागरण शहर में जगह जगह करवा रहे थे। दफ्तरों, बाजारों, चौराहों, पान की दुकानों, शादी-ब्याहों सब जगह एक ही चर्चा थी, फलां का बच्चा अमुक स्कूल में दाखिल हो गया है। आज वहां दावत है। बैंड और शहनाई बुक है। कहीं म्यूजिकल नाइट हो रही थी, कहीं बच्चे की स्कूल की शॉपिंग।

इस सारी रेल-पेल में वे बच्चे तथा उनके मां-बाप अत्यंत ही ‘डिप्रेस्ड’ थे। जिनका दाखिला अच्छे स्कूल में नहीं हो पाया था वहां काफी गमी का माहौल था। ‘कहां चूक हो गई’ पर काफी विश्लेषण चल रहा था। नई सूची बनाई जा रही थी कि अब के किस-किस से किस-किस को कहलवाना है। क्या-क्या सावधानियां बरतनी हैं।

 

 

This Post Has 2 Comments

  1. Dr.Rashmi Nair

    लेख बहूत ही अच्छा है । विषय समसामयिक है । आज की हकीकत है । पर इतना सबकुछ सहकर भी न जाने क्यों लोगोंको लेखमें उले्लेखित स्कूलोमें ही न जाने क्युँ दाखला लेना होता है । जबतक भेड चाल चलते रहेंगे यही हाल होता रहेगा । बडे-बडे स्कूल हमें बेवकुफ बनाते रहेंगे और हर हम बनते रहेंगे । पुराने जमाने भी तो पढाई होती थी .।

  2. Sankul Pathak

    उत्तम व्यंग्य

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