“जीवन विद्या” को सीखें और जिंदगी का स्वरूप समझें

“असुर”, “मनुष्य” और “देवता” देखने में एक ही आकृति के होते हैं । अंतर उनकी प्रकृति में होता है। “असुर” वे हैं, जो अपना छोटा स्वार्थ साधने के लिए दूसरों का बड़े से बड़ा अहित कर सकते हैं, “मनुष्य वे हैं”, जो अपना “स्वार्थ” तो साधते हैं पर “उचित अनुचित” का ध्यान रखते हैं, “पाप से डरते” और अपनी नियत “मर्यादाओं” का उल्लंघन नहीं करते । “देवता” वे हैं जो अपने “अधिकारों” को भूल कर “कर्तव्य” पालन का ही स्मरण रखते हैं । अपनी शक्तियों को परमार्थ और परोपकार में अधिक व्यय करते हैं और इसी में अपना सच्चा स्वार्थ साधन मानते हैं । असुरों के दृष्टिकोण में “दुष्टता”, “मनुष्य” में “मर्यादा” और “देवताओं” में “उदारता” भरी रहती है । दृष्टिकोण के इस अंतर के कारण ही उनके बुरे भले कार्यों की श्रंखला सामने आती है और उसी आधार पर वे निंदा-प्रशंसा के पात्र बनते हैं । “सद्गति” और “दुर्गति” भी इन्हीं के आधारों पर होती है।

व्यापक बुराइयों की अधिक चर्चा करने से कुछ लाभ नहीं । वस्तुस्थिति को हम सब जानते ही हैं, इस चर्चा से चित्त में क्षोभ और संताप ही उत्पन्न होता है। यों भले मनुष्यों का भी अभाव नहीं है । वे प्रत्येक क्षेत्र में, बदनाम क्षेत्रों में भी मौजूद रहते हैं, पर उनकी संख्या नगण्य है ।

प्रश्न यह है कि क्या इस बढ़ती हुई असुरता को इसी रूप में बढ़ने दिया जाये और सर्वनाश की घड़ी के लिए निष्क्रिय रूप से प्रतीक्षा करते रहा जाए ? अथवा स्थिति को सुधारने के लिए कुछ प्रयत्न किया जाए ? “विवेक”, “कर्तव्य”, “धर्म” और “पुरुषार्थ” की चुनौती यह है कि निष्क्रियता उचित नहीं । शांति का संतुलन बनाए रखने के लिए, धर्म और कल्याण के रक्षा के लिए, हमें कुछ करना ही चाहिए । जिस दिशा में अपने कदम अब तक तेजी से बढ़ते चले जा रहे हैं, उसी सर्वनाश की ओर अब इस दौड़ को बंद किया ही जाना चाहिए।

हमें मानव जीवन का उद्देश्य, आदर्श, तत्वज्ञान और व्यवहार सीखना पड़ेगा । फूहड़पन से जिंदगी जीना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं । चौरासी लाख योनियों में करोड़ों वर्ष बाद मिले हुए इस अवसर को यों ही गंदे’संदे ढंग से जी डालना, यह भी कोई समझदारी की बात है । जब थोड़ी सी उपयोगी और कीमती चीजों को संभाल कर रखने और उपयोग करने की बात सोची जाती है, तो मानव जीवन जैसे सुर दुर्लभ अवसर को ऐसी उपेक्षा अस्त-व्यस्तता के साथ क्यों जिया जाना चाहिए? उचित यही है कि हम “जीवन विद्या” को सीखें और जिंदगी का स्वरूप समझने और उसके सदुपयोग का प्रयत्न करें ।

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