हर किसी को पता है कि महिलाओं के उत्थान के बिना समाज और राष्ट्र का उत्थान असम्भव है। लेकिन सामाजिक स्तर पर उनकी प्रगति को लेकर उदासीनता का माहौल है। हालांकि वर्तमान भारत सरकार ने महिलाओं को लेकर कई सारी योजनाएं शुरू की हैं तथा उनके सफल क्रियान्वयन को लेकर कृतसंकल्पित है। वैश्विक स्तर पर भी महिलाएं बहुत कम स्थानों पर नेतृत्व और निर्णय लेने वाले पदों पर अवस्थित हैं।
महिला सशक्तीकरण का नाम लेते ही मन में कई प्रश्न उठने लगते हैं, साथ ही छवियां भी। महिला सशक्तीकरण वास्तव में क्या है, इसकी भारतीय परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता है क्या, और यदि है तो इसकी उद्देश्य के रूप में पूर्ति कैसे हो? सभी वाजिब प्रश्न हैं। पुरुष और नारी के रूप में दो अलग-अलग संरचनाएं प्रकृति द्वारा ही निर्मित हैं। किंतु प्रकृति ने स्त्री और पुरुष के मध्य कभी कोई भेदभाव नहीं किया। मानव समाज ने स्त्री और पुरुष को दो अलग ‘जेंडर’ के रूप में विभक्त कर दोनों के लिए भिन्न विधान किये। वैश्विक स्तर पर जेंडर के आधार पर न सिर्फ स्त्री को एक कमजोर संरचना के रूप में स्वीकार किया गया, इसी आधार पर सामजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा व्यक्तिगत रूप से स्त्री का शोषण हुआ। साथ ही स्त्रियों को निर्णय लेने की भूमिकाओं से दूर रखा गया। उदाहरणस्वरूप, इंग्लैंड तथा अमेरिका में 1920 के दशक तक स्त्रियों को मत देने का अधिकार ही नहीं था, राजनीतिक जगत में उसकी भूमिका की बात तो छोड़ ही दीजिये।
भारत में यदि प्राचीन काल का इतिहास पढ़ें तो स्थिति भिन्न नजर आती है। स्त्री को भारतीय संस्कृति और परम्पराओं में सदा से शक्ति का पर्याय और प्रतीक मान देवी के रूप में पूजा जाता रहा है। अर्धनारीश्वर का सिद्धांत भी देखें तो स्त्री और पुरुष समान स्तर पर दिखाई पड़ते हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास में स्त्री अपने परिवार से लेकर समाज और राजनीति से लेकर शिक्षा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती परिलक्षित होती है। किंतु कोई भी समाज पूर्णरूपेण त्रुटियों से मुक्त नहीं होता। विभिन्न कारणों ने भारतीय समाज में भी जेंडर के आधार पर होने वाला भेदभाव कहीं न कहीं घर कर गया। बाहरी आक्रमणों के बाद भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर बदलाव आये और स्त्रियों के लिए पर्दा और सती प्रथा से लेकर दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों ने स्त्रियों की भूमिका पर नकारात्मक असर डालना आरम्भ कर दिया।
आज अपने चारों तरफ देखें तो एक क्लिष्ट व्यवस्था दिखाई पड़ती है। एक ओर भारतीय स्त्री युद्ध के मैदान से लेकर राजनीति और खेल के जगत में भारत का नाम रोशन करती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी ओर ऐसे कई परिवार और समाज हैं जहां अभी भी कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, पर्दा और दहेज प्रथा जैसी कुरीतियां प्रचलित हैं। हम यह भी नहीं कह सकते कि ऐसा सिर्फ गांवों में होता है। बड़े बड़े शहरों में स्त्रियों के साथ अपराध और शोषण के अलावा उन्हें शिक्षा से दूर रखने और उनके संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के हनन के कई मामले हर दिन सामने आते हैं।
आज जब भारत आत्मनिर्भर बनने का एक सुंदर उद्देश्य लेकर वैश्विक मंच पर ‘ग्लोबल विद लोकल’ की बात कर रहा है, स्त्री सशक्तीकरण का मुद्दा अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि भारत को प्रगति की नयी राह पर आगे बढ़ाने के लिए समाज के हर तबके का योगदान आवश्यक है। और यहां स्त्रियों की भूमिका निश्चित ही निर्णयात्मक हो जाती है। चाहे परिवार हो या समाज या राष्ट्र, भारतीय महिलाएं हर कहीं केंद्र बिंदु के रूप में कार्य करती है, इसमें कोई संशय नहीं। इसलिए उन्हें आगे बढ़ाने और सशक्त करने का दायित्व पूरे राष्ट्र पर आ जाता है।
भारत सरकार द्वारा इस दिशा में कई सराहनीय कदम 2014 के बाद से उठाये गए हैं। प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, लाड़ली लक्ष्मी, महिला ई हाट जैसी कई योजनाएं और कार्यक्रम भारत सरकार अपने अलग अलग मंत्रालयों द्वारा चला रही है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के माध्यम से ग्रामीण और शहरी छात्राओं, कामकाजी स्त्रियों और गृहिणियों के लिए कई प्रकार के कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं जिसका मुख्य उद्देश्य उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, कला कौशल, रोजगार और आर्थिक स्वतंत्रता पर ध्यान देना है। भारतीय स्त्री चाहे ग्रामीण हो या शहरी, गृहिणी हो या कामकाजी, पढ़ रही हो या कोई उपक्रम चलाती हो, स्वस्थ रह सके, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सके, आगे बढ़ सके, इसके लिए कई प्रयोजन भारत सरकार के द्वारा किये जा रहे हैं।
स्त्री सशक्तीकरण का अर्थ मात्र घूमने-फिरने, मनचाहे कपड़े पहनने या सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखने की स्वतंत्रता नहीं है। स्त्री सशक्तीकरण से तात्पर्य है स्त्रियों के पास निर्णय लेने की शक्ति का होना। यह निर्णय उनके अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में भी हो सकते हैं, उनके परिवार से सम्बंधित भी, समाज से जुड़े भी और राष्ट्र से सम्बंधित भी। विश्व स्तर पर इसी शक्ति से स्त्रियों को वंचित रखने के प्रयास किये जाते रहे हैं। यही कारण है कि वैश्विक स्तर पर यदि ऐसी महिला नेताओं या प्रतिनिधियों को गिनें जो अपने देश की प्रमुख हैं तो गिनती उंगलियों पर ही सिमट जाएगी। विभिन्न शोधों और आंकड़ों के अनुसार पूरे विश्व में महिला प्रमुखों का प्रतिशत सिर्फ लगभग सात प्रतिशत है। यही हाल उच्च तकनीकी दक्षता का दावा करने वाले आईटी और कॉर्पोरेट सेक्टर का भी है। चाहे राजनीति हो या कॉर्पोरेट, महिलाओं को भूमिका तो दी जाती है किंतु सीमित, सहयोगी की। निर्णय लेने वाली भूमिकाओं से उन्हें दूर ही रखा जाता है। किंतु विगत वर्षों के भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार को देखें तो पाएंगे कि मुख्य कैबिनेट में छह महिला नेताओं को शामिल किया गया और इसका श्रेय कहीं न कहीं तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को अवश्य जाता है। स्त्री सशक्तीकरण का प्रारम्भ उन्होंने भारतीय जनता पार्टी से ही किया और आज इसी का परिणाम है कि यहां महिलाओं के नेतृत्व का अच्छा खासा बोलबाला है।
स्त्रियों का सशक्तीकरण हमारे मानस से प्रारम्भ होता है। यदि अपनी मानसिकता से हम स्त्रियों के प्रति कुत्सित विचार और कुरीतियों को निकाल दें, अपने परिवार और समाज के स्तर पर प्रयास करें कि स्त्रियों की शिक्षा, स्वास्थ और आगे बढ़ने के मौकों में हम बाधक नहीं बनेंगे, और यह समझ लें कि स्त्री अपने आप में सबसे सशक्त संरचना है तो स्त्रियों से जुड़े सामजिक भेदभावों और अपराधों से निबटने में हम निश्चित तौर पर सक्षम साबित होंगे।
भारत की राष्ट्रपति के रूप में महामहिम द्रौपदी मुर्मू को देख लगता है कि भारत महिला नेतृत्व और सशक्तीकरण की दिशा में नए कालखंड में पदार्पण कर चुका है तथा जी-20 के नए अध्यक्ष के रूप में वह महिला नेतृत्व तथा सशक्तीकरण को लेकर वैश्विक स्तर पर एक प्रणेता के रूप में आगे बढ़ा रहा है।
– अंशु जोशी