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मनोरंजन जगत में स्त्री का  विकृत चित्रीकरण

मनोरंजन जगत में स्त्री का विकृत चित्रीकरण

by हिंदी विवेक
in फिल्म, मनोरंजन, महिला, मार्च-२०२३, विशेष, संस्कृति, सामाजिक
4

पिछले दो दशकों से फिल्मों और टीवी में महिलाओं के नकारात्मक चित्रण को बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही, अश्लील वेशभूषा और हावभाव का बढ़ता प्रयोग भी हमारे युवाओं को गुमराह कर रहा है। समाज के प्रबुद्ध वर्ग को आगे आकर इनके विरुद्ध खड़ा होना चाहिए ताकि पर्दे पर होने वाले नारी देह के विकृतीकरण पर अंकुश लगाया जा सके। 

मनोरंजन जगत, यह शब्द जैसे ही हमारे जेहन में कौधता हैं हमारे समक्ष दिखने लगते हैं टीवी, फिल्में, विज्ञापन जहांं दृश्य-श्रव्य माध्यम से हम अपना मनोरंजन करते हैं। 70 एमएम पर्दा हो या टीवी का छोटा पर्दा, दृश्य-श्रव्य माध्यम से विभिन्न पात्रों को सजाकर, उनके अभिनय के द्वारा किसी कथानक को बखूबी प्रस्तुत किया जाता है। साथ ही जोड़ा जाता है ग्लैमर। ग्लैमर और फैशन के जुड़ाव से ही इन संचार माध्यमों को व्यवसायीकरण का अवसर मिलता है। उत्पादों के प्रचार-प्रसार के लिए बने विज्ञापन,फिल्में, धारावाहिक दिखावे-बनावट और अजीब बुनावट के नए-नए ढब के चलते दर्शकों को तो लुभाते ही हैं, साथ ही निर्माता की तिजोरी भी भरते हैं। वे अनाप-शनाप कमाई करने के दृष्टिकोण से हर वह हथकंडे अपनाते हैं, जिनसे अच्छी-खासी कमाई हो, टिकट खिड़की पर या फिर टीआरपी का गेम ऊंंचाइयों तक पहुंंचे।

व्यवसायीकरण के इस दौर ने सारे नैतिक पहलुओं को ताक पर रख दिया है। जीवन मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है। फंतासी की दुनिया ने वास्तव में मानव और बेहतर जीवन दर्शन और नैतिक मूल्यों के बीच गहरी खाई खोदी है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने अगर कहीं सबसे अधिक क्षति की है तो, हमारे जीवन मूल्य और सभ्यता-संस्कृति की। आधुनिक दौर में जिस तरह सब पैसे के पीछे भाग रहे हैं और उपभोक्ताओं को तुष्ट करने की जो नीति है उसने समाज में उपद्रव मचा रखा है। महिलाओं का दोहन, शोषण किया जा रहा है और उन्हें एक उत्पाद के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। उन्हें सिर्फ देह रूप में चित्रित किया जाता है। सिने पटल पर भीगती हुई नायिका, कम से कम वस्त्रों में देह प्रदर्शन, अश्लीलता से नारी देह के चित्रण ने मात्र एक उत्पाद के रूप में उसे बाजार में खड़ा कर दिया गया है। जो नारी देह जननी है सृष्टि की। जिसके बारे में कहा जाता है, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता’, उसे विकृत रूप में चित्रित करके, अशोभनीय बनाकर मात्र एक प्रोडक्ट के रूप में पेश करना आम बात है। अभद्र ढंग से नारी देह का प्रदर्शन करना विज्ञापनों में, यही नहीं पुरुष द्वारा उपयोग किए जाने वाले उत्पादों में भी नारी देह का प्रदर्शन! भौतिकवाद अपने चरम पर है। नारी को इस बाजार में एक दिखावटी वस्तु, एक प्रोडक्ट और ग्लैमर डॉल से अधिक नहीं समझा जा रहा!

फिल्में पहले भी बनती थी और बहुत गरिमापूर्ण ढंग से नारी चित्रण होता था। वहांं नारी ग्लैमर डॉल नहीं होती थी बल्कि सशक्त भूमिका निभाती थी। कई नारी प्रधान फिल्में हैं जहांं अभिनेत्रियों ने बेमिसाल अदाकारी के साथ-साथ अपनी सभ्यता-संस्कृति की रक्षा भी की है। तब अभिनेत्रियांं आपत्तिजनक चित्रण पर, कम कपड़ों पर स्वयं की आपत्ति दर्ज करा देती थी और ऐसे सीन करने से इंकार करती थीं। चलते हैं पिछले दशकों की ओर, वहांं नजर डालें तो हम पाएंंगे 60-70 के दशक तक फिर भी एक सीमा थी देह प्रदर्शन की। इसके पश्चात अस्सी के दशक में थोड़े कपड़े कम होना शुरू हुए। आइटम नृत्य, आइटम सांग्स की भी शुरुआत हुई। नब्बे के दशक में भी मिलाजुला ढंग रहा। कुछ फिल्मकारों ने साफ-सुथरी, सामाजिक,उद्देश्य पूर्ण फिल्में बनाई। 2000 में तो कम से कम होते चले गए कपड़े,  यहांं तक कि ऐसी अभिनेत्रियांं जो पोर्न फिल्मों की अभिनेत्री हैं, को हिंदी सिनेमा-बॉलीवुड में स्थान मिलने लगा! आजकल निर्माता-निर्देशक ही नहीं, अभिनेत्रियांं पश्चिम का अंधानुकरण करती हैं और अपने आप को ग्लैमर डॉल के रूप में प्रस्तुत होने के लिए एवं कम से कम कपड़े पहनने में भी सक्षम दिखाने के लिए तत्पर रहती हैं। पहले प्रणय दृश्यों को संकेतों से, गरिमापूर्ण ढंग से फिल्माया जाता था। आजकल लिविंग रूम ही बेडरूम बन गया है। सभी परिवार जन एक साथ बैठकर फिल्में या सीरियल नहीं देख पाते!  एक नया क्रेज शुरू हुआ है, ओटीटी और नेटफ्लिक्स का। यहांं पर सारी सीमाएंं-सारी वर्जनाएं तोड़ी जा रही हैं नैतिकता की, मर्यादा की।

कथानक नहीं है, स्टोरी का अभाव है! स्क्रीनप्ले सशक्त नहीं है, तो नारी देह का अभद्र  चित्रण करके अश्लीलता से फिल्मांकन आजकल के फिल्मकारों का हथकंडा बन गया है। सच तो यह है की सारी हदें पार हो रही है और बेशर्म रंग बिखेरे जा रहे हैं सिने पटल पर!

सवाल यह खड़ा होता है कि भारत जैसे उच्च आदर्शों और नैतिक मूल्य वाले देश में इस तरह अश्लील-अभद्र दृश्य वाली फिल्में सेंसर पास कैसे कर रहा होता है!

अब अभिनय और बेहतर स्टोरी फिल्मों की सफलता की गारंटी नहीं दे रही है। इसीलिए हर प्रोड्यूसर इस होड़ में लगा हुआ है कि किस तरह वह नारी देह को उत्तेजक रूप में, अश्लील और कम से कम कपड़ों में पर्दे पर उतार सके। दुर्भाग्यपूर्ण है कि, भारत जैसे देश में जहांं एक से बढ़कर एक विदुषी महिलाएंं हैं, अभिनय के क्षेत्र में भी जिन्होंने ऊंंचे- ऊंंचे मुकाम हासिल किए हैं, हम सभी परिचित हैं उन नामों से, लेकिन आज के दौर में इन अभिनेत्रियों ने अर्धनग्न और उत्तेजक तस्वीरें खिंचवा कर और फिल्मों में  ऐसे सीन करके सभी महिलाओं का मान गिराया है।

सवाल ये उठता है कि अगर फिल्में समाज का आईना हैं तो क्या समाज के लोग इस नैतिक पतन के लिए इस अभद्रता-अश्लीलता के लिए जिम्मेदार नहीं हैं! जनाब! बिल्कुल जिम्मेदार हैं क्योंकि यह मांंग और पूर्ति वाला ही सिद्धांंत हो सकता है। सभी प्रबुद्ध वर्ग और भारतीय संस्कृति-सभ्यता के गौरव को बढ़ाने वाले और उसके रक्षक लोगों को, ऐसे दर्शकों को इन फिल्मों को पूरी तरह नकार देना चाहिए जो भारतीय नारी का चरित्र-चित्रण, पोर्ट्रेट पर्दे पर गलत रूप से, विकृत रूप से करती हैं, ताकि यह बॉक्स ऑफिस पर चल न सकें और  अश्लील और विकृत प्रदर्शन को बढ़ावा न मिल सके। सेंसर बोर्ड को भी अपने नियमों में सुधार करना अति आवश्यक है कि वह ऐसे बेशर्म रंग फिल्मों में न बिखरने दे। किसी भी बात को कहने का एक सभ्य तरीका हो सकता है। सिर्फ पैसे या बॉक्स ऑफिस पर भरपूर कमाई के दृष्टिकोण से ऐसी फिल्मों को पास नहीं किया जाना चाहिए। हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह समाज में नकारात्मक वातावरण न बनने दे और नैतिक मूल्यों को हर क्षेत्र में बढ़ावा देने हेतु प्रयासरत रहे ताकि समाज को सही दिशा मिल सके। हमारी सभ्यता- संस्कृति से खिलवाड़ करने वाली यह सिने तस्वीरें, विज्ञापन, धारावाहिक, फिल्में पूरी तरह से प्रतिबंधित होनी चाहिए। इन लोगों के पास कंटेंट की कमी है और सुरुचिपूर्ण प्रदर्शन, समाज के प्रति दायित्व और संवेदनशीलता का अभाव है। ग्लैमर, अश्लीलता और फूहड़ प्रदर्शन के अतिरिक्त फिल्में, विज्ञापन, धारावाहिक बनाने में इनका मनोबल, दिमाग साथ नहीं देता है। जब इस तरह की फिल्मों को कमजोर,अपरिपक्व मस्तिष्क वाले नवयुवक/नवयुवतियांं देखते हैं तो वे उसे फॉलो करने लगते हैं और इस अंधानुकरण में बहुत सारे ऐसे कृत्य कर उठते हैं जो सामाजिक दृष्टि से व स्वयं उनके जीवन हेतु उचित नहीं हैं। पूरा दिशा निर्देशन दिया जाना चाहिए फिल्म निर्माताओं को और फिल्मों में अभिनय करने वाले अभिनेताओं को, कि किस तरह स्वस्थ और सामाजिक दृष्टि से सुरक्षित, सकारात्मक फिल्में, विज्ञापन और धारावाहिक बनाए जाएंं ताकि नई पीढ़ी को सही दिशा मिले। नारी के सम्मान की रक्षा की जाए और उसका विकृत चित्रण पूरी तरह प्रतिबंधित किया जाए।

– अनुपमा ‘अनुश्री’

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Tags: degrading women imageentertainment industrywomen imagewrong depiction

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Comments 4

  1. Anonymous says:
    2 years ago

    100% sahi

    Reply
  2. शोभा भिसे says:
    2 years ago

    मनोरंजन के नाम पर आज सिने जगत मे , टीवी पर,या विज्ञापन के माध्यम से जो कुछ दिखाया,परोसा जा रहा है उसके जिम्मेदार केवल निर्माता निर्देशक या स्वयं एक्टर नहीं है बल्कि हम दर्शक भी हैं जो फिल्म रिलीज होते ही सब रिकार्ड तोड़ देते हैं। ऐसी फिल्मो का बहिष्कार करना चाहिए

    Reply
  3. Nirupama Khare says:
    2 years ago

    मानसिक दिवालियापन है

    Reply
  4. रश्मि प्रभा says:
    2 years ago

    आजकल सबकुछ वीभत्स हो गया है, धड़ल्ले से अश्लीलता को परोसते हुए कोई नहीं सोचता कि बच्चों को क्या दिया जा रहा है ! समाज को विकृत बना दिया गया है !

    Reply

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