बाबा साहेब ने संविधान में देश के हर व्यक्ति के उत्थान को महत्व दिया। हजारों वर्षों से दबे-कुचले दलित समाज को आगे बढ़ने के लिए विशेष अधिकार दिलवाए लेकिन दलित समाज में आगे चलकर ऐसे अगुआ बहुत कम हुए जो उनकी शिक्षा पर ध्यान दे सकें, बल्कि अधिकतर लोग उनके नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां ही सेंकते नजर आए, जिस कारण युवा पीढ़ी को समुचित राह नहीं मिल पा रही है।
इतिहास पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि महान विचारकों द्वारा उनके अपने विचारों से मानव मन और इतिहास की धारा बदलने का लम्बा दौर रहा है। हमारे देश में भी सामाजिक बदलाव के सबसे बड़े जनक बाबासाहेब आंबेडकर जैसे महान विचारक यह बात अच्छी तरह महसूस करते थे कि उन्होंने देश के समस्त नागरिकों के लिये संविधान का निर्माण तो किया ही है, साथ ही साथ दलितों की प्रगति के भविष्य के उन्होंने जिस प्रकार के सुनहरे सपने देश के संविधान में बुने हैं, उसके क्रियान्वयन के दूरगामी परिणाम होंगे।
जहां तक दलित समाज के उत्थान की बात है तो किसी भी समुदाय का सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक उत्थान केवल पूरे देश के लिये ही आवश्यक नहीं है बल्कि विशेष रूप से दलित समुदाय के लिये यह बेहद जरूरी है। कहना न होगा कि दलित समुदाय के उत्थान की बुनियाद बाबा साहेब ने संविधान रचने से पहले ही अपने संघर्ष के माध्यम से रखनी शुरू कर दी थी। संविधान रचने में उनके द्वारा लिखित कुछ अध्यायों में शब्दों के माध्यम से दलित समुदाय की प्रगति की रूपरेखा तैयार की थी। कुछ अध्यायों में सीमित इसलिये कि बाबा साहेब ने केवल दलितों के उत्थान के लिए संविधान का निर्माण नहीं किया था बल्कि यह संविधान देश के समस्त नागरिकों के मौलिक, शैक्षिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकारों की रक्षा के लिये रचा था। वास्तव में बाबा साहेब आंबेडकर का बुनियादी संघर्ष एक अलग स्वाधीनता का संघर्ष था। वे पूरे राष्ट्र की प्रगति के बारे में चिंतन करते थे। हमें यह स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए कि यह देश के सभी नागरिकों का संविधान है। यह भी कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारा संविधान सामूहिक चिंतन का परिणाम है।
सामूहिक चिंतन एक ऐसे राष्ट्र के लिये, जिसके नागरिक सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से एक आदर्श और सुदृढ़ नागरिक की परिभाषा का निर्माण करें। इस बात पर कोई भेदभाव नहीं था कि वह नागरिक शहर का हो या गांवों में रहनेवाला हो। यह हमेशा कहा जाता रहा है कि भारत गांवों का देश है। तदनुसार ग्रामीण भारत का विकास तत्कालीन सरकारों का सर्वप्रथम उद्देश्य होना चाहिए था। लेकिन हुआ इसके विपरीत…! लोगों को इस बात के लिये शिक्षित नहीं किया गया कि रोजगार और विकास की जड़ें उनकी अपनी जमीन और उनके अपने गांव में है। उनके प्रतिनिधि उन्हें यह समझाने में असफल रहे कि उनके गांवों के विकास के लिये अनेकों ऐसी योजनाएं हैं जिन्हें अमल में लाना उनकी प्राथमिकता है। परिणाम यह हुआ कि लोगों (जिनमें युवा वर्ग की एक बड़ी संख्या शामिल थी) ने पलायन करना सबसे आसान काम समझा। गांव..गांव ही रह गये..छोटे शहरों का आकार थोड़ा जरूर बढ़ गया। निर्विवाद रूप से इस प्रकार के पलायन का सबसे अधिक लाभ दिल्ली, कोलकाता और मुंबई जैसे महानगरों को हुआ। इन महानगरों में आज भी एक छोटे से कमरे में दर्जनों लोग अपने सपने पालते हैं और दो वक्त के रोजगार अर्जित करके संघर्ष कर रहे हैं। जिन राज्यों से भी यह पलायन हुआ, वहां की सरकारें दृढ़ ईच्छा शक्ति के अभाव में उन्हें वापस अपने गांवों में नहीं बुला नहीं सकी। शिक्षित होने की यात्रा पूरी होने से पहले पलायनवाद की प्रवृत्ति ने उनके उद्देश्य को हिला डाला।
यह भी एक कड़वा सच है कि देश में कहीं भी बसने और रोजगार पाने की स्वतंत्रता ने पलायनवाद की जड़ों पर पानी डालने का कार्य किया। अनेक राज्यों में रहनेवाले इन पलायनवादियों में दलितों की संख्या ज्यादा थी । दलितों की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से ने अपना घर बार और जमीन छोड़ी। ऐसे सारे लोग विवशतावश नगरों और महानगरों की ओर पलायन कर गये। सबसे बड़ी विडंबना यह हुई कि लोग यह महसूस करने को तैयार ही नहीं हुए कि घर बार और बंजर जमीन के साथ वो सबसे महत्वपूर्ण चीज भी छोड़कर जा रहे हैं। वो महत्वपूर्ण चीज थी- शिक्षा का शेष। शिक्षा के बल पर उनके विचारों का स्वरूप निश्चित रूप से सकारात्मक होता जिसका लाभ समाज को मिलता। लेकिन आज भी ऐसा नहीं हो पा रहा है। इस पलायन संस्कृति का हिस्सा जो सबसे बड़ा वर्ग था, वो दलितों का था। जिन्हें अपने मूल निवास स्थानों अर्थात गांवों और छोटे शहरों में अपनी माटी की गंध पहचानने से वंचित किया जाता रहा था। अपनी एक अलग पहचान बनाने की ललक ने उन्हें पलायन की तरफ मोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसका दूसरा पहलू यह है कि संविधान से मिले दलितों को जो अधिकार मिले हैं उनका उपयोग करनेवालों की संख्या सीमित है। देश की राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक और आर्थिक रूप से सफल व्यक्तित्वों में अनेक ऐसे दलित प्रतिभायें शामिल हैं, जिन पर हम गर्व कर सकते हैं। किंतु उनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है। इसके लिये जिम्मेदार वे राजनीतिक हस्तियां और विचारक हैं जिन्होंने दलित वर्ग को पूर्ण रूप से शिक्षित करने की जरुरत नहीं समझी बस उन्हें अपना वोट बैंक समझकर इस्तेमाल किया। यह कहा जाये तो बेहतर होगा कि बाबा साहब के सपनों को धवस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
वर्तमान में आधे-अधूरे ढंग से शिक्षित दलित वर्ग अपने आकाओं की महत्वाकांक्षाओं के दास बनकर रह गये हैं। जबकि बाबा साहब की सर्वोपरी कामना यह थी कि दलित वर्ग शिक्षा से वंचित न रहे। दलित वर्ग को सर्वप्रथम शिक्षित किया जाये। बाबा साहेब के असमय निधन ने जिस निर्णायक मोड़ पर दलित समुदाय को कहना चाहिए कि अपने प्राण त्यागने के बाद लाकर जहां छोड़ा था, वहां से लेकर अब तक समस्त दलित समुदाय की प्रगति का आंकलन करें तो निश्चित रूप से यह सत्य उभरकर सामने आएगा कि जितने भी दलित चिंतक और नेतागणों ने बाबा साहेब का उत्ताधिकारी बनने का असफल प्रयास किया। वो उत्तराधिकारी तो दूर उनके स्थान के आसपास भी स्थान नहीं पा सके। सबने किसी न किसी दल में अपने और अपने परिवार के लिये राजनीतिक आश्रय लिया और केवल अपनों के कल्याण के लिये स्वार्थ की रोटियां सेंकते रहे। सभी नेतागणों ने बाबा साहेब के नाम पर अपने घर भरे हैं या फिर अपनी राजनीतिक विरासत की बुनियाद मजबूत करने की कोशिश की है। यहां तक कि बड़ी बेशर्मी से जीते जी अपनी मूर्तियां तक बना डाली।
दलित समुदाय विभिन्न राजनीतिक दलों के मत और बहुमत के खेल का शिकार हुए। बाबा साहेब यह बात अच्छी तरह महसूस करते थे कि शिक्षा के बिना दलित समुदाय दिशाहीन होकर भटकता रहेगा। उन्होंने पहला मूल मंत्र दिया था…शिक्षित बनो….संगठित रहो और फिर संघर्ष करो। दुर्भाग्य यह कि दलित समुदाय शिक्षित होने की दिशा में तो आंशिक हद तक अग्रसर रहा लेकिन किसी एक लक्ष्य तक पहुंचने से पहले पलायनवाद की तरफ मुड़ गया। हम यह कह सकते हैं कि आज आवश्यकता इस बात की है कि आज फिर से युवा पीढ़ी के उत्थान के बारे में विमर्श करें, जो अभी तक बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। इनकी प्रगति के लिए कुछ व्यवहारिक कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।
वास्तव में दलित युवा वर्ग ‘विचार शून्यता’ से बुरी तरह पीड़ित नजर आता है। उनका केवल एक ही उद्देश्य होता है कि बस जीवनयापन के लिये पर्याप्त धन कमाना। आज आवश्यकता इस बात की है कि युवा दलित वर्ग की वर्तमान एवं आनेवाली पीढ़ी को बाबा साहब के साहित्य और दर्शन से परिचित कराने का प्रयास किया जाये। उनके दलित चिंतन को विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के मंचन पर विश्लेषित किया जाये। युवा वर्ग को केवल आरक्षण के लाभ-शास्त्र का ज्ञान देने तक ही सीमित न रखा जाये बल्कि यह बताया जाये कि बाबा साहब का संविधान उन्हें भी एक नयी दिशा दे सकता है। उन्हें यह भी बताने की आवश्यकता है कि बाबा साहब द्वारा सृजित संविधान केवल उनके लिये नहीं है बल्कि सम्पूर्ण देश के लिये है। उन्हें देश के सभी नागरिकों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की प्रवृत्ति उत्पन्न करने की दिशा में कार्य करने में नहीं हिचकना चाहिये। कुछ तथाकथित दलित चिंतक और स्वयं को बाबा साहेब का सच्चा उत्तराधिकारी घोषित करनेवाले इस बात को लेकर आशंकित हैं कि संविधान बदल दिया जायेगा और इससे भी आगे वो यह प्रचारित करने से नहीं चूकते कि संविधान खतरे में है।
इसके विपरीत उन्हें इस बात पर ज्यादा जोर देना चाहिये कि युवा पीढ़ी को इस सच के लिये शिक्षित किया जाये कि बाबा साहेब के संविधान में उनके शैक्षणिक विकास के लिये ठोस प्रावधान हैं जिनका उपयोग उन्हें भली भांति करना चाहिये न कि उन्हें अपना समय केवल दूसरों को कोसने में लगाना चाहिये। युवा पीढ़ी यह बात अच्छी तरह समझ ले कि यह समय संविधान पर तथाकथित खतरे और शोषित होने के भ्रम से पूरी तरह बाहर निकलकर प्रगति के मार्ग से विचलित नहीं होने का है बल्कि देश के विकास रथ के साथ चलने का है। आंबेडकर साहित्य को घर-घर तक पहुंचाने की आवश्यकता है। सामाजिक क्रांति से वंचित उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया जाये।
डॉ. भीमराव आंबेडकर केवल अस्पृश्य मानव समुदाय के ही नहीं, समस्त वंचित मानव समुदाय के प्रतीक हैं। उनकी भूमिका वर्तमान काल में प्रासंगिकता समझी जानी चाहिये। आज भी अमेरिका में ‘ब्लैक लाईफ मैटर्स’ जैसे आंदोलन चलते हैं, तब भारत में भी ‘युवा दलित जीवन महत्वपूर्ण है’ जैसे विषय पर विमर्शात्मक कदम उठाये जा सकते हैं। आवश्यकता है बस इस बात की कि ‘युवा दलित पीढ़ी’ बाबा साहब के छ्द्म उत्तराधिकारियों उर्फ हितैषियों के वाग्जाल से मुक्त रहने का अधिकतम प्रयास करें।
– राजीव रोहित